इस लोक से परे भी बहुत कुछ अतिविलक्षण है।

October 1997

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दुनिया में हर वस्तु की, चेतन पदार्थों व चेतन के घटकों की अपनी-अपनी सीमाएँ हैं। उन्हीं के अंतर्गत वे जाने, समझें और अपनाए जाते हैं। स्थूल बुद्धि इस मामले में विशिष्ट है कि वह सर्वोपरि मानवी सम्पदा है। उसी के निर्णय निष्कर्ष को यहाँ विचारणा, अवधारणा, मान्यता, तर्क, तथ्य के रूप में अपनाना पड़ता है, पर सीमा-बन्धन से वह भी मुक्त नहीं। इस घटनाक्रम के भौतिक कारणों तक ही उसकी गति है। यदि परोक्ष जगत के गुह्य−विज्ञान को समझना हो, तो उसके लिए साधारण बुद्धि और लौकिक ज्ञान से ऊपर उठना पड़ेगा, तभी उसके वास्तविक निमित्त को समझ पाना सम्भव है अन्यथा नहीं। अध्यात्म जगत के घटनाक्रम इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं।

घटना कुलदानन्द ब्रह्मचारी से सम्बन्धित है। बात उन दिनों की है, जिन दिनों वे गया ( बिहार ) के ब्रह्मयोनि पर्वत पर साधना कर रहे थे। छह महीने बीत चुके थे। अचानक एक दिन समाचार मिला कि उनकी माँ गम्भीर रूप से बीमार है। आते समय उन्होंने माँ को वचन दिया कि वे कहीं भी रहें उनके पास पहुँच जाएँगे। इसलिए वचनबद्ध थे। घर छोड़ते समय परिवार वालो को उन्होंने ने यह नहीं बताया था कि कहाँ रहेंगे। ऐसा इसलिए कि हर छोटी-मोटी पारिवारिक परेशानी में उन्हें तंग न किया जाए और उनकी साधना में व्यवधान न पहुँचे, पर प्रस्थान करते वक्त एक पड़ोसी मित्र को सारी बात समझा दी थी और यह भी बता दिया था कि वे कहाँ जा रहे हैं। आज वही मित्र सूचना लेकर आए थे।

वे तत्काल घर के लिए निकल पड़े। समय की कमी को भली−भाँति समझ रहे थे, पर क्या कर सकते थे। सफर पैदल ही तय करना था, कारण की उन दिनों रेल-यातायात की सुविधा न थी। बसें भी यदा-कदा संयोग से ही मिलती थीं। अतएव लगभग एक महीने बाद जब वे घर पहुँचेंगे, तो क्या माँ से मुलाकात हो सकेगी ? यदि नहीं हुई, तो उसका दिल टूटेगा ? क्या वह यह नहीं समझेगी कि बेटे ने धोखा दिया ? ऐसे में क्या उसकी आत्मा को शान्ति मिल सकेगी ? वह यही सोच-सोचकर परेशान हो रहे थे और अपनी धुन में चले जा रहे थे। माँ के एक-एक शब्द उनके कानों में प्रतिध्वनित हो रहे थे। विदाई के समय का दृश्य उनके मन को मथ रहा था। किस प्रकार माँ रो-रोकर उन्हें जाने से रोक रही थी और वह बार-बार आश्वासन दे रहे थे कि यह बिछोह अस्थायी है। वह आएँगे, बीच-बीच उससे मिलते रहेंगे।

इन्हीं विचारों में वे खाये हुए थे मन अपना काम कर रहा था और पैर अपने। वे तेजी से गंतव्य की ओर बढ़े चले जा रहे थे, तभी उनके वस्त्र बगल की कँटीली झाड़ी से उलझ गये। विचार-प्रवाह रुका और छुड़ाने लगे। सहसा सामने की ओर दृष्टि गई। वे चौंके यह तो अपना गाँव प्रतीत हो रहा है ? गाँव का जीर्ण सूर्य मन्दिर ओर उसकी ड्योढ़ी में खड़ी शेर की दो भग्न प्रतिमाएँ। इधर-उधर देखा। सारे दृष्टि उसी की पुष्टि कर रहे थे, पर उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि गया से चले अभी एक दिन भी नहीं हुआ, इतनी जल्दी सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय कर ढाका कैसे पहुँच गये। आश्वस्त होने के लिए उससे पूछा तो ज्ञात हुआ कि यह उन्हीं का गाँव ‘पश्चिमपाड़ा’ है। वे विस्मय-विमूढ़ हो गये। उनकी बुद्धि तनिक भी काम नहीं कर रही थी। वे बिलकुल ही समझ नहीं पा रहे थे कि ऐसा कैसे हो गया?

उनका घर अभी दो किलोमीटर दूर था। माँ का स्मरण आते ही कदम जल्दी बढ़ने लगे। घर पहुँचे, तो देखा माँ अन्तिम साँसें गिन रही है। बेटे को सम्मुख देख उनके नेत्र चमके और आँसू की कुछ बूँदें उनसे ढुलक पड़ी, फिर सदा के लिए आँखें बन्द हो गयी।

इस घटना की चर्चा करते हुए कुलदानन्द कहा करते थे कि हर वस्तु और घटना के दो पहलू हैं- सामान्य और गुह्य। सामान्य पक्ष को साधारण बुद्धि सरलतापूर्वक समझ लेती है, पर दूसरा अत्यन्त गूढ़ और दुरूह होने के कारण समझ से परे होता है। उपरोक्त प्रसंग का विश्लेषण करते हुए वे कहते हैं कि इसमें चलना एक सामान्य सी क्रिया थी। साधारण मेधा उसे भली−भाँति समझती थी कि यह जाने का कार्य किसी विशेष उद्देश्य और स्थान के लिए हो रहा है, पर चलते-चलते अनायास सैंकड़ों किलोमीटर की दूरी पल भर में छलाँग जाना-यह उसका गुह्य विज्ञान है, जिसे साधारण बुद्धि नहीं समझ सकती। इसके लिए ऋतम्भरा-प्रज्ञा स्तर की बुद्धि चाहिए। यह बिना आत्म-परिष्कार के सम्भव नहीं।”

एक अन्य मिलती जुलती घटना बंगाल के प्रसिद्ध साधक किरणचन्द्र दरवेश के साधनात्मक जीवन के सम्बन्ध में है। किरणचन्द्र तब वृन्दावन में अपने गुरु विजयकृष्ण के साथ ‘तीर्थमणि कुँज’ में निवास कर रहे थे। गुरु ने उनकी साधना के लिए एक पृथक् कोठरी की व्यवस्था कर दी थी। उसी में वे प्रतिदिन प्रायः चार घण्टे साधना किया करते। उन दिनों ‘लता साधना’ नामक उनकी एक विशिष्ट साधना चल रही थी। तंत्र शास्त्र में इसका विस्तार पूर्वक उल्लेख मिलता है। बताया जाता है कि इस प्रक्रिया द्वारा काम-शक्ति पर विजय प्राप्त कर सकना सम्भव है।

जिन दिनों का यह प्रसंग है कहते हैं कि उन दिनों संसर्ग दोष के कारण किरणचन्द्र काम-भावना प्रबल हो उठी थी, अस्तु गुरु ने अपने पास बुलाकर उक्त साधना का निर्देश किया। किरणचन्द्र भी काम की प्रबलता से परेशान थे और इससे मुक्ति का उपाय खोज रहे थे। जब उन्हें उपचार बता दिया, तो उसे वे निष्ठापूर्वक नियमित रूप से करने लगे।

एक दिन नित्य की भाँति उन्होंने साधना की। उसके उपरान्त आधे घण्टे का ध्यान का नियम था। उन्होंने आँखें बन्द की और ध्यान करने लगे। अभी वे ध्यान की गहराई में उतर ही रहे थे कि कुछ घुटन अनुभव हुई। तनिक सजग हुए, तो ज्ञात हुआ कि कमरे में जलने वाली धूपबत्ती की सुगन्ध भी गायब है। अनायास आँखें खुल गयी। वे आश्चर्यचकित रह गये। जिस कोठरी में बैठे ध्यान कर रहे थे, उसकी जगह अब कोई गुफा थी। उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। कई बार नेत्र मले, पर वह वास्तव में गुफा ही थी, नेत्रों का कोई भ्रम नहीं। दीवार स्पर्श करके भी इसकी पुष्टि कर ली।

वे आसन से उठ गये और व्याग्रतापूर्वक टहलने लगे। किरणचन्द्र गम्भीर सोच में पड़ गये थे। उनकी बुद्धि यह सोच सोचकर चकरा रही थी कि वे यहाँ किस प्रकार पहुँच गए। चिंता बढ़ती जा रही थी। एक समय तो वे इतने घबरा गये कि स्वयं किरणचन्द्र ही हैं, इस पर भी भरोसा नहीं रहा। तभी उन्हें होश आया कि गुफा के बाहर चलकर देखा जाए। बाहर निकलने पर मालूम हुआ कि वह एक पहाड़ी गुफा है। पहाड़ से नीचे उतरकर मैदानी भाग में आये। पास एक व्यक्ति दिखाई पड़ गया। पूछने पर विदित हुआ कि चह विजयवाड़ा (महाराष्ट्र) है। अब वे और परेशान हुए। हजारों किलोमीटर की दूरी कैसे तय करेंगे ? पैसा पास में है नहीं। पैदल यात्रा के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं। इसके लिए मनोभूमि तैयार करने लगे। लगभग आधे घण्टे पश्चात् जब ते चलने को तैयार हुए, तभी मन में विचार आया कि प्रस्थान करने से पूर्व थोड़ा ध्यान कर लेना चाहिए। वे पुनः गुफा के अंदर बिछे आसन पर पहुँचे और ध्यान करने लगे। इस बार मन बड़ी तेजी से गहराई में उतरता चला गया। थोड़ी ही देर में श्वास प्रवाह की गति एवं आवाज एकदम क्षीण पड़ गयी। यह इस बात की पहचान थी कि साधक ध्यान की गहरी भूमिका में प्रवेश कर गया।

करीब दो घण्टे बाद ध्यान टूटा। नेत्र खुले, तो दृष्टि सामने की ओर उठ गई। एक बार वे फिर चौके कोठरी का दरवाजा है। चारों ओर देखा और आश्वस्त हुए। यह उनका ही कमरा था। चेहरे पर प्रसन्नता और व्यग्रता के मिश्रित भाव थे। प्रसन्न इसलिए थे कि अपनी कोठरी में फिर से वापस आ गये। व्यग्रता का कारण यह था कि आखिर एक अनजाने स्थान में अकस्मात् कैसे पहुँच गए ? जो कुछ इस बीच अनुभव किया, वह वास्तविकता थी या भ्रम? वे तेजी से उठे और विजयकृष्ण गोस्वामी के पास जा पहुँचे। उन्होंने समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा कि न तो यह सब भ्रम था, न वह कोई अपरिचित स्थान। वह तुम्हारी पूर्व परिचित भूमि थी- तुम्हारे पिछले जन्म की साधना स्थली। कई बार पुनर्जन्म के स्थानों से गहरा लगाव होने के कारण इस प्रकार की घटनाएँ घट जाती हैं और अनेक बार इसके पीछे ईश्वरीय लीला होती है। तुम्हारे संदर्भ में कारण आकर्षण ही है। समाधान से किरणचन्द्र संतुष्ट हो गये और गुरु को प्रणाम कर चले गए।

विख्यात साधक हरनाथ ठाकुर के बारे में कहा जाता है कि जिन दिनों उनकी साधना उग्र चल रही थी, उन दिनों उनके साथ कई विचित्र घटनाक्रम होने लगे थे। इनका उल्लेख सुरेशचन्द्र चक्रवर्ती ने अपनी पुस्तक ‘पागल की कथा’ में विस्तारपूर्वक किया है। एक प्रसंग की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है कि एक दिन मध्य रात्रि को जब वे ध्यान कर रहे थे तो अचानक एक अस्फुट सी आवाज सुनाई पड़ी। उन्होंने ध्यान नहीं दिया, किन्तु जब बार-बार सुनाई पड़ने लगी तो आँखें खोली। देखा सामने एक दिव्य पुरुष खड़े हैं। उनका सम्पूर्ण शरीर ज्योतिर्मान था। आँखों से इतना तेज निकल रहा था कि वे उनसे नेत्र न मिला सके। उन्होंने कहा कि इस प्रकार रास्ते में बैठकर ध्यान क्यों कर रहे हो ? आने जाने वालों को इससे असुविधा होती है। तनिक परे हटकर बैठ जाओ। इससे उन्हें भी कठिनाई न होगी और तुम्हारी साधना में भी विक्षेप नहीं आयेगा। इतना कहकर वे आगे बढ़ गये। हरनाथ ठाकुर जैसे सोते से जागे। देखा सचमुच वे एक पगडंडी के मध्य आसन जमाए हुए हैं। उन्हें स्मरण आया कि वे तो कमरे में बैठे हुए थे, फिर यहाँ कैसे आ गए ? यह कौन सा स्थान है ? महापुरुष जा चुके थे, इसलिए उनके प्रश्न अनुत्तरित रह गये। इधर-उधर देखा थोड़ी दूर पर पीछे की ओर एक भव्य मन्दिर था जो स्निग्ध चाँदनी में अत्यन्त मनोहारी लग रहा था। उन्होंने महसूस किया कि यहाँ काफी दूर की चीजें भी एकदम स्पष्ट अपने वास्तविक आकार में दिखती हैं। उससे उन्हें आश्चर्य हुआ, तभी अकस्मात् याद आया कि उन देवपुरुष से जो कुछ भी बात हुई, बैखरी में नहीं वाराणसी में सम्पन्न हुई। शब्दों के उच्चारण की आवश्यकता नहीं पड़ी। चेहरा देखकर ही उनके सारे भाव समझ में आ जाते थे। इस पर भी उन्हें विस्मय हुआ। वे सोचने लगे कि ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ था। मन की बात जानने की सामर्थ्य तो उनमें थी नहीं, फिर अचानक यहाँ उसका विकास कैसे हो गया ? अभी यह विचार ही रहे थे कि पक्षियों का एक झुण्ड वहाँ आकर बैठ गया। उन्होंने अनुभव किया कि उनके भाव और विचार भी उनके लिए बोधगम्य थे। अब उनकी समझ में कुछ-कुछ आने लगा कि पृथ्वी से परे कोई अलौकिक स्थान है। वे आसन से उठकर मन्दिर की ओर चल पड़े। वहाँ पहुँचने पर विदित हुआ कि वास्तव में वह जितना समीप दिख रहा था उतना था नहीं। इससे एक ओर तथ्य उजागर हुआ कि वहाँ दूरी सम्बन्धी ज्ञान सामान्य मनुष्य के लिए निर्भ्रान्त नहीं था। सीढ़ियाँ चढ़ कर वह मन्दिर के द्वार तक पहुँचें। स्वर्ण कपाट बन्द थे। वहीं सीढ़ियों पर बैठकर उनके खुलने का इंतजार करने लगे। सीढ़ियाँ श्वेत संगमरमर की बनी थी और उनमें स्थान स्थान पर रत्न जड़े हुए थे। काफी देर तक प्रतीक्षा करने के उपरान्त भी जब द्वार नहीं खुला, तो वे आगे बढ़ गए। थोड़ी दूर पर एक सरोवर था। उसमें अद्भुत लावण्यमयी अप्सराएँ स्नान कर रहीं थी। सामने एक अजनबी को खड़ा देख वे सब चौंक पड़ी, फिर देखते-देखते न जाने कहाँ अदृश्य हो गयी। सम्पूर्ण में कमल खिले हुए थे। वे सब सामान्य आकार-प्रकार के थे, किन्तु सरोवर के मध्य का कमल आकार में असाधारण था, इतना बड़ा जितना सामान्य मन्दिर का गुम्बज होता है। उसकी खुशबू मदोन्मत्त करने वाली थी। हरनाथ नयनाभिराम दृश्यों का रसास्वादन कर रहे थे, तभी आकाश-वाणी हुई- “काफी देर हो चुकी, अब तुम्हें अपना आसन ग्रहण करना चाहिए।” वे मुड़ चले। आसन पर बैठते ही स्वतः आँखें बन्द हो गयी। धीरे-धीरे बाह्य लुप्त होने लगा। जब नेत्र खुले तो स्वयं को कमरे में पाया। आज उनकी कोठरी कमल पुष्प की खुशबू से ओत प्रोत थी, इसे दूसरे लोग भी अनुभव कर रहे थे।

अक्षर ज्ञान प्राप्त करे रहे बालक के लिए पुस्तक पढ़ना कठिन है, समझना तो असम्भव ही होता है। बुद्धि जिस स्तर की होती है, उससे उसी स्तर का काम लेना पड़ता है। भौतिक मेधा अभौतिक कारणों का समाधान नहीं ढूँढ़ सकती। इसके लिए उसका आगे का विकास अनिवार्य है।


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