करुणा से जन्मे मोती

October 1997

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अपने दुर्भाग्य पर उसके आँसू छलक आए। ठीक वर्षा ऋतु के प्रारम्भ में उस बेचारे के दो बैलों में से एक मर गया। जोड़ी खण्डित हो गयी। एक तो गरीब था, दूसरे ठीक चौमासे के प्रारम्भ में ही बैल मर जाने से चारण रामदेव शोकाकुल हो गया। परन्तु अभी वर्षा हुई न थी, इसी बीच उसने कुछ स्नेही मित्रों और सेठों के पास जाकर पैसे की माँग की और कहा- “भाई ! मैं आपको आपका पैसा अगली फसल में ब्याज के साथ वापस दे दूँगा।” लेकिन उस किसान की दर्द भरी बातों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया और किसी ने उसको पैसे नहीं दिया। आखिरकार वह निराश होकर घर लौट आया। पति को घोर निराशा में पड़ देखकर पत्नी भी दुःखी हो गयी।

समय बीतते भला कितनी देर लगती है। गर्मी की तपन बीत गयी, चौमासे का प्रारम्भ था। बिजली की कड़क-तड़क के साथ बादलों के झुण्ड आकाश में उमड़-ने-घुमड़-ने लगें और किसानों के मुखमण्डल पर आनन्द का भाव झलकने लगा। वर्षा के आगमन से किसानों का हृदय नाच उठा। सारे किसान अपनी-अपनी खेती के साधन और बैलों को लेकर खेतों में जाने लगें। कोई जोतने लगा, तो कोई जमीन में बीज बोने लगा। इस किसान ने भी अपनी खेती के लिए साधन तैयार किये। पर फिर वही दुर्भाग्य, दूसरा बैल कहाँ ? दूसरा बैल तो मर चुका था।

उसकी पत्नी ने कहा, “स्वामी! हमारे पास भले ही दूसरा बैल न हो, इससे क्या होगा, दूसरे बैल की जगह मैं जुत जाऊँगी, किन्तु हमारी बोवनी का समय व्यर्थ नष्ट नहीं होने देना चाहिए।” पत्नी की बात सुनकर हताश चारण रामदेव के मन में भी कुछ हिम्मत आयी और वह एक बैल को और अपनी पत्नी को लेकर खेत में गया तथा एक ओर बैल को तथा दूसरी ओर पत्नी को जोतकर हल चलाने लगा। जैसे मनुष्य मनचाहा भोजन पाकर परितृप्त हो जाता है, उसी प्रकार काफी वर्षा होने के कारण धरती माता भी तृप्त हो गयीं थीं। ठीक मध्याह्न काल था, भगवान सूर्य नारायण भी आज पूर्णरूप से तप रहे थे।

किसान जल्दी-जल्दी बोवनी करने की उतावली में ताबड़-तोड़ हल चला रहा, जिससे उसकी पत्नी थक गयी थी। फिर भी वह थक गयी थी। फिर भी वह अपने काम में मशगूल था। उसी समय संयोगवश सौराष्ट्र नरेश देपाल दे उस किसान के खेत के पास होकर गुजरे। किसान के बैल के साथ दूसरी ओर बैल के बदले स्त्री को जुता हुआ देखकर उनका हृदय द्रवित हो उठा। राजा देपाल दे अपने साथ के सिपाहियों को दूर खड़ा कर, एक आदमी को साथ लेकर उस किसान के पास जाकर कहने लगे- “भाई यह तुम्हारा खेती करने का क्या ढंग है ? भलेमानस! बैल के साथ स्त्री से काम लेना क्या ठीक है ? भाई ! इसको छोड़ दो। क्या तुम्हारे हृदय में इतनी अधिक निर्दयता आ गयी है कि इस बेचारी भोली-भाली स्त्री को बैल के स्थान पर जोत रखा है। अरे ! कुछ तो दिल में दया रखो।”

ये बातें सुनकर रामदेव झल्ला गया, बोला- “बोवनी का समय है। दूसरा बैल भी था जो थोड़े दिन पहले मर गया। घर में पैसा भी नहीं और गाँव में भी कई जगह पैसे के लिए दौड़-धूप की, पर कहीं से छदाम भी न मिला। बिना पैसे के बैल कहाँ मिल सकता है ? तो क्या बैल के बिना हम अपनी बोवनी रोक दें ?

उसकी यह बात सुनकर राजा कहने लगें, “भाई तुमको सचमुच बैल की अत्यन्त आवश्यकता है। मैं तुमको अभी बैल मँगा कर देता हूँ।” इतना कहकर अपने साथ के आदमी को तुरन्त बैल आने को कहा। परन्तु रामदेव ने तनिक भी देखे या प्रतीक्षा किये बिना अपना काम यथावत् जारी रखा। यह देखकर राजा देपाल दे कहने लगा, “अरे भले आदमी ! अभी बैल आ जाएगा, क्या थोड़ी देर के लिए धीर नहीं रख सकते ? तुम्हें अपनी स्त्री पर दया नहीं आती, देखो तो बेचारी कितनी अधिक थक गयी है।”

“ओ हो ! इतने बड़ दयालु तो मैंने नहीं देखे। यदि इतनी ही दया उमड़ रही है तो जब तक बैल नहीं आ जाता, तब तक तुम स्वयं ही जुतकर इसे छुड़ा क्यों नहीं देते ?”

राजा देपाल ने बिना कुछ रुखाई प्रकट किये किसान की बात स्वीकार कर ली और किसान के बैल के साथ जुती स्त्री को छुड़ाकर उसकी जगह पर उन्हें जुए में जोत लिया। इस प्रकार शुरू-शुरू में जैसे ही एक-दो फेरा किया कि राजा के आदमी बैल लेकर आ पहुँचे और किसान को बैल दे दिया। पहले तो किसान ने समझा था कि बैल देने की बात कोरी बात ही है परन्तु अब जब थोड़े समय में बैल आ गया तो वह शर्मिन्दा हो गया और बैल को जुए में जोत कर राजा को मुक्त कर दिया। इस उपकार के बदले वह किसान आभार का एक शब्द भी न बोल सका। देपाल दे राजा भी, मानों कुछ न हुआ हो, इस प्रकार हँसते हुए अपने लोगों को साथ लेकर वहाँ से चला गया।

धीरे-धीरे दिन बीतते गये। खेतों में बोया गया ज्वार भली-भाँति उग गया। सारा खेत हरियाली से भर गया। पर एक आश्चर्य यह भी हुआ कि खूब सारे खेत में खूब सुव्यवस्थित रीति से ज्वार उग गया था, किन्तु जिस जगह राजा देपाल दे को जुए में जोता था, वहाँ एक भी पत्ती न होने के कारण किसान निराश हो गया और मन ही मन विचारने लगा कि लगता है- कोई अभागा आया था, वह जहाँ-जहाँ चला था, वहाँ-वहाँ कुछ नहीं उगा।

इस प्रकार विचारते हुए कारण जानने को उत्सुक किसान वहाँ की जमीन खोदकर देखने लगा, तो एकबारगी वह अचरज में पड़ गया, क्योंकि जहाँ-जहाँ राजा देपाल दे चले थे, वहाँ-वहाँ हराई में बोए ज्वार के बदले सच्चे मोती झिलमिला रहे हैं। इससे उसका आश्चर्य और बढ़ गया। उसने जमीन खोदकर सारे मोती इकट्ठे कर लिये और घर जाकर अपनी पत्नी को सारी बात कह सुनाई। फिर तो पता लगाने पर जान पड़ कि उनको बैल देने वाला और उनकी स्त्री के स्थान पर स्वयं जुए में जुत जाने वाला और कोई नहीं, स्वयं सौराष्ट्र नरेश राजा देपाल दे ही थे।

इससे किसान को भारी दुःख हुआ और वह अपनी स्त्री से कहने लगा, “देवी! मैं मूर्ख आदमी हूँ, मैंने कैसी भूल की है ? मुझ अभागे ने राजा को भी नहीं पहचाना और देवता जैसे सुकुमार राजा को जुए में जोत दिया। देवी ! ये सच्चे मोती अपने नहीं हैं। मैं कल ही राजा के दरबार में जाकर इसे राजा के सुपुर्द कर आऊँगा।”

दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही किसान खेत में से प्राप्त मोतियों की पोटली बनाकर सीधे राजदरबार में जा पहुँचा। भरे दरबार में उसने सारी घटना विस्तार से कह सुनाई और मोतियों की पोटली राजा के चरणों में रख दी। घटना का ब्योरा जानकर मन्त्री, सभासद सभी आश्चर्यचकित थे। सबके आश्चर्य पर राजा देपाल दे मन्द-मन्द मुस्करा रहें थे। लेकिन उनकी यह मुस्कान हर किसी की जिज्ञासा को और अधिक तीव्र कर रही थी।

तभी अपनी वाणी में समाधान का अमृत घोलते हुए राजगुरु कहने लगें- “सभासदों, मंत्रीगण- इसमें आश्चर्य क्यों करते हो, मानवीय प्रेम में विगलित होकर जो श्रम किया जाता है, उस श्रम से झरे बिन्दुओं से कुछ भी चमत्कार सम्भव है। ये सच्चे मोती इसी का चमत्कार है।” सभी के मस्तक इस अद्भुत मानवीय प्रेम के सामने नत हो गये।


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