वनौषधियों की वेदना (Kavita)

October 1997

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विश्व का कल्याण करने, तप-तितीक्षा कर रहीं हम। पर्वतों, निर्जन वनों में, शैलजा-सा तप रही हम॥

लक्ष्य केवल ‘शिव’ हमारा, विश्व का कल्याण करने। रोग, शोक, ग्रसित जगत के, प्राणियों की पीर हरने॥ लुटाने सर्वस्व अपना, चिरप्रतीक्षा कर रहीं हम॥ पर्वतों...........

शीत, वर्षा, ताप, सारे मौसमों की मार सहकर। लवण, खनिज, रसायनों के निर्झरों का नीर पीकर। स्वयं की क्षमता बढ़ाने, हर परीक्षा कर रही हम॥ पर्वतों...........

किया आयुर्वेद के मर्मज्ञ ऋषियों ने परीक्षित। थीं उन्हीं की शोध से, हम लोकमंगल को समर्पित। शोधग्रंथों में कथित क्षमता, समीक्षा कर रहीं है हम॥ पर्वतों...........

रक्त, मज्जा, माँस, अस्थि, चर्म सबके काम आतीं। शोधतीं, करतीं शमन व जोड़ देती अरु गलातीं। जड़, तने, छाले सुपल्लव, फूल, फल सब झड़ रहीं हम॥ पर्वतों...........

हम ‘वनौषधि’ हैं, हमारे नाम व गुण हैं अनेकों । पूर्वजों से आज तक जो भी किये उपकार देखो। किन्तु आज विदेश के षड्यन्त्र से, सिर धुन रहीं हम॥ पर्वतों...........

देशवासी ‘दमन’ वली औषधि ही खा रहे हैं। रुग्ण को रोगाणुओं के साथ क्षति पहुँचा रहे हैं। देखकर यह दुर्दशा, बस पीर अनुभव कर रही हम॥ पर्वतों...........

रोग का करतीं ‘शमन’ हम संतुलन से काम लेकर। और जीवन-तत्व को देतीं सुरक्षा, प्राण देकर। हमारे रहते पिएँ विष, यही चिन्ता कर रहीं हम॥ पर्वतों...........

तनिक हम शुभचिंतकों की, वेदना अनुमानिए तो, हमारी ‘संजीवनी की शक्ति’ को पहचानिए तो, अब हमें स्वीकारिए ! संवेदना से भर रहीं हम॥ पर्वतों...........

-मंगल विजय ‘विजयवर्गीय’


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