शिव - उपासना के पीछे छिपे गूढ़ रहस्य

October 1997

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भारतीय संस्कृति में जिन देवताओं की व्याख्या की गयी है, उनमें प्रमुख हैं- ब्रह्म, विष्णु और शिव। त्रिदेवों की इस पूरक व्यवस्था के अंतर्गत ही समूची सृष्टि , का, विश्व-ब्रह्माण्ड का क्रियाकलाप गतिशील है। इसमें सृजन के देवता ब्रह्मा, पोषण के अधिष्ठाता विष्णु एवं संहार के व्यवस्थापक महाकाल भगवान शंकर हैं। आर्ष वांग्मय में इनकी आराधना - उपासना व इनकी कृपा से मिलने वाली अनेकानेक सिद्धि- सम्पदाओं का सविस्तार वर्णन है। इनके कथा - उपाख्यानों के बड़े - बड़े रोचक प्रसंग पुराणों में भरे पड़े हैं। इतने पर भी वस्तुस्थिति को न जान सकने के कारण उपासक उन विभूतियों से वंचित रह जाते हैं, जा इष्ट- आराध्य में सन्निहित हैं। ऐसा क्यों होता है ? इसका उत्तर पाने के लिए हमें उस मूल भावना को समझना होगा, जिसमें देवताओं की विचित्र कल्पनाएँ की गयी हैं। उनकी मुखाकृति, वेष - विन्यास वाहन, अस्त्र - शस्त्र आदि के ऐसे विचित्र कथानक जोड़कर तैयार किये गये हैं कि उन्हें पढ़कर यह अनुमान करना भी कठिन हो जात है कि वस्तुतः कोई ऐसे देवी - देवता है भी अथवा नहीं ? इनमें चार मुख के ब्रह्माजी, शंख - चक्र - गदा- पह्मधारी विष्णुजी, पंचमुखी शंकरजी, षट्मुख कार्तिकेय, हाथी की सूँड़ वाले गणेशजी, पूँछ वाले हनुमान् जी आदि यह सब विचित्र - सी कल्पनाएँ लगती हैं, जिन पर मनुष्य की सीधी पहुँच नहीं हो पाती। ऐसी स्थिति में उसे या तो श्रद्धावश देवताओं को सिर झुकाकर चुप रह जाना पड़ता है या तर्क - बुद्धि से ऐसी विचित्रताओं का खण्डन कर यही मान लेना पड़ता है कि ऐसे देवताओं का वस्तुतः कहीं कोई अस्तित्व नहीं है।

पौराणिक देवी - देवताओं के जो वर्णन मिलते हैं, उन पर गंभीरतापूर्वक विचार करें तो पता चलता है कि इन विचित्रताओं के पीछे बड़ा समुन्नत आध्यात्मिक रहस्य छिपा हुआ है। मानव जीवन के किन्हीं आदर्शों और स्थितियों का इस तरह बड़ा ही कलापूर्ण दिग्दर्शन किया है, जिसका अवगाहन करने मात्र से मनुष्य दुस्तर साधनाओं का फल प्राप्त कर मनुष्य जीवन को सार्थक बना सकता है।

इस प्रकार के आदर्श आदिकाल से ही मनुष्य को आकर्षित करते रहें हैं। मनुष्य उनकी उपासना करता रहा है। इन्हें एक प्रकार से व्यावहारिक जीवन की मूर्तिमान् उपलब्धियाँ कहना चाहिए। उसे जीवनक्रम में इतना सरल और सुबोधगम्य बना देने में भारतीय ऋषि- मुनियों अध्यात्मवेत्ताओं की सूक्ष्म बुद्धि का उपकार ही मानना चाहिए, जिन्होंने बहुत थोड़े में सत्य और जीवन - लक्ष्य की उन्मुक्त अवस्थाओं का ज्ञान उपलब्ध करा दिया है।

शैव और वैष्णव - यह दो आदर्श भी उन्हीं में से हैं। भगवान शिव और भगवान विष्णु दोनों ही आध्यात्मिक जीवन के किन्हीं उच्च आदर्शों के प्रतीक हैं। इन दोनों में मौलिक अन्तर इतना ही है कि शिव अध्यात्मिक जीवन को प्रमुख मानते हैं। उनकी दृष्टि में लौकिक सम्पत्ति का मूल्य नहीं है, वैराग्य ही सब कुछ है, जबकि विष्णु जीवन के लौकिक आनन्द का भी परित्याग नहीं करते। यद्यपि यहाँ तुलनात्मक वर्णन करके किसी देवता की श्रेष्ठता ढूँढ़ना नहीं है, वरन् उन अध्यात्मिक रहस्यों, उच्च आदर्शों, प्रेरणाओं का ज्ञान कराना ही अभीष्ट है जो इन देवविग्रहों के पीछे विद्यमान है।

भगवान शिव को ही ले तो उनके स्वरूप, अलंकार और जीवन सम्बन्धी घटनाओं का विशद वर्णन वेद - पुराणों से लेकर अन्यान्य अध्यात्म शास्त्रों में मिलता है। ऐसे प्रत्येक प्रसंग में या तो किसी दार्शनिक तत्व का विवेचन सन्निहित है। अथवा व्यवहारिक आचरण की शिक्षा दी गई है।

भगवान शिव के अनन्त रूप हैं। अनेक रूपों के अनेक अवतारों का वर्णन मिलता है। आर्ष ग्रंथों में साकार और निराकार दो रूप शिव के निर्धारित किये गये हैं। सर्वव्यापी ब्रह्मरूप होने के कारण वे निष्फल - निराकार हैं और रूपवान् होने से सकल - साकार भी हैं। शिवलिंग उनके ज्योतिर्मय निराकार स्वरूप का प्रतीक है ता त्रिशुलयुक्त सर्पों की माला पहने हुए डमरुधर विग्रह उनका साकार रूप है। विश्व-ब्रह्माण्ड का प्रतीक - प्रतिनिधि मानकर लिंग रूप में उनकी सर्वत्र पूजा - उपासना की जाती है। भारतवर्ष के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित बारह शिवलिंग ‘द्वादश ज्योतिर्लिंग ‘ के नाम से विख्यात हैं।

देवसंस्कृति में निराकार रूप में शिव का आकार लिंग माना जाता है। यह सृष्टि की सर्वव्यापकता एवं महत्ता का प्रतीक है। वेद - पुराणों में सृष्टि को अण्डाकार माना गया है। शिवलिंग का आकार भी ऐसा ही है जो इस तथ्य की पुष्टि करता है। स्कन्दपुराण में इस संदर्भ में उल्लेख है -

“ आकाश लिंगमित्याहु, पृथ्वी तस्य पीठिका ।

आलयः सर्वदेवानां लयनालिंगमुच्येते “

अर्थात् आकाश लिंग है, पृथ्वी उसकी पीठिका है। समस्त देवताओं का वही आलय है। इसकी में सब लय होते हैं, अतः इसे लिंग कहा जाता है।

वैज्ञानिक अनुसंधानों से भी अब इस तथ्य की पुष्टि हो गई है कि विश्व - ब्रह्माण्ड अण्डाकार है। विश्वविख्यात भौतिक विज्ञानी एवं गणितज्ञ आइन्स्टीन ने भी अपने अनुसंधान में अनन्त आकाश को वक्राकार बताया है और भारतीय मान्यता की पुष्टि की है। देश , काल तथा पदार्थ से निर्मित विश्वब्रह्माण्ड तत्त्वतः लिंगवत् वक्राकार है। शिवलिंग उसका प्रतीक-प्रतिनिधि है जो समस्त सृष्टि को अपने में आत्मसात् किये हुए है।

निराकार निर्गुण परब्रह्म का प्रतीक शिवलिंग का अर्थ यह भी है कि यह सृष्टि साकार होते हुए भी उसका आधार आत्मा है। ज्ञान की दृष्टि से उसके भौतिक सौंदर्य का कोई बड़ा महत्व नहीं है। मनुष्य को आत्मा की उपासना करनी चाहिए, उसकी का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। साँसारिक रूप , सौंदर्य और विविधता में घसीटकर उस मौलिक सौंदर्य को तिरोहित नहीं करना चाहिए।

साकार रूप में भगवान शिव का निवास स्थान श्मशान है। वे गले में मुण्डमाला धारण करते हैं। मृत्यु के कालपाश - महासर्प उनके गले में- यज्ञोपवीत में लिपटे हुए हैं। तीक्ष्ण त्रिशूल उनका शस्त्र है। जब वे तीसरा नेत्र खोलते हैं तब चारों ओर आग बरसती है। कुपित होकर जब वे तीसरे नेत्र से जिसे भी देखते हैं वह जलकर भस्म हो जाता है। जब प्रलय की आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है। तब वे ताण्डव नृत्य करने खड़े होते हैं। उनके चरणों की थिरकन जैसे - जैसे गतिशील होती जाती है वैसे ही जरा - जीर्ण कूड़ा- करकट प्रभूत दावानल में जल - जल कर अन्तरिक्ष में विलय होता चला जाता है। इसी तरह भगवान शिव के स्वरूप में कितनी ही विचित्रताएँ देखने को मिलती हैं।

वस्तुतः भगवान शंकर के स्वरूप में जो विचित्रताएँ है, वह किसी मनुष्य की देह में सम्भव नहीं, इसलिए उनकी सत्यता संदिग्ध मानी जाती है। पर हमें यह जानना चाहिए कि यह चित्रण सामान्य नहीं, अलंकार है, जो मनुष्यों में उच्चस्तरीय योग-साधनाओं एवं तपश्चर्या के आधार पर जाग्रत् होते हैं।

उपहारस्वरूप शिव के माथे पर चन्द्रमा है। चन्द्रमा मन की मुदितावस्था का प्रतीक है अर्थात् योगी का मन सदैव चन्द्रमा की भाँति शीतल , उत्फुल्ल, खिला और निःशंक होता है। चन्द्रमा पूर्ण ज्ञान का प्रतीक भी है, अर्थात् उसे जीवन की गहन परिस्थितियों में रहते हुए भी किसी प्रकार का विभ्रम अथवा ऊहापोह नहीं होता।

वह प्रत्येक अवस्था में प्रमुदित रहता है, विषमताओं का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

भगवान शिव का कंठ नीला है, अतः उन्हें नीलकंठ भी कहा जाता है इस संदर्भ में पुराणों में ऐसी कथा आती है कि देवों और दानवों को सर्वनाश से बचाने के लिए भगवान शंकर विष को पी लिया था। तब से उनका कंठ नीला है अर्थात् उन्होंने विष कंठ में धारण किया हुआ है। इस कथानक का भी सीधा - सादा सम्बन्ध योग की सिद्धि से ही है। योगी पुरुष अपने सूक्ष्मशरीर पर अधिकार पा लेता है, जिससे उसके स्थूलशरीर पर बड़े तीक्ष्ण विषों का भी प्रभाव नहीं होता। उन्हें भी वह सामान्य आहार मानकर ही पचा लेता है। यह बात इस तरह भी है कि संसार के मान - अपमान, कटुता, क्लेश आदि दुःख कष्टों का उस पर कोई प्रभाव नहीं होता। उन्हें भी वह साधारण घटनाएँ मानकर आत्मसात् कर लेता है और संसार का कल्याण करने की अपनी आत्मिक वृत्ति में निश्चल भाव से लगा रहता है। दूसरे व्यक्तियों की तरह लोकोपकार करते समय उसे स्वार्थ आदि का कोई ध्यान नहीं होता वह निर्विकार भाव से भलाई के कार्य में जुटा रहता है। खुद विष पीता है, पर औरों के लिए अमृत लुटाता रहता है।

भगवान शिव ने अपने सारे शरीर पर भस्म रमा रखी है। योगी पूर्णता पर संयम - सिद्धि होती है। योगी अपने वीर्य को शरीर में रमा लेते हैं, जिससे उनका सौंदर्य फूट पड़ता है। इस सौंदर्य को भस्म के द्वारा अपने आप रमा लेता है। उसे बाह्य अलंकारों द्वारा सौंदर्य बढ़ाने की आवश्यकता नहीं रहती। अक्षुण्ण संयम ही उसका अलंकार बन गया है, जिससे उसका स्वास्थ्य और शरीर सब कांतियुक्त हो गये हैं।

भगवान शंकर त्रिनेत्रधारी हैं। योग की भाषा में इसे नेत्रोन्मीलन या आज्ञाचक्र का जागरण भी कहते हैं। उसका सम्बन्ध गहन अध्यात्मिक जीवन से हैं घटना प्रसंग है शिवजी ने एक बार तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को भी जला दिया था। योगी का यह तीसरा नेत्र यथार्थ ही बड़ा महत्व रखता है। सामान्य परिस्थितियों में वह विवेक के रूप में जाग्रत रहता है, पर वह अपने आप में इतना सशक्त और पूर्ण होता है कि कामवासना जैसे गहन प्रकोप भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाते। उन्हें भी जला डालने की क्षमता उसके विवेक में बनी रहती है। इसे वैज्ञानिक बुद्धि का प्रतिनिधि कहा जा सकता है। पर सबका तात्पर्य यही कि साधक का तृतीय नेत्र उन्मीलित होना, उसे साधारण क्षमता से उठाकर विशिष्ट श्रेणी में पहुँचा देना है।

शिव का वाहन वृषभ है। वृषभ सौम्यता और कर्मठता का प्रतीक माना जाता है। तात्पर्य यह है कि शिव का साहचर्य उन्हें मिलता है जो स्वभाव से सरल और सौम्य होते हैं, जिनमें छल - छिद्र आदि विकार नहीं होते। साथ ही जिनमें आलस्य न होकर निरन्तर कर्म करने की दृढ़ता होती है। श्मशान में उनका निवास है अर्थात् वे मृत्यु को कभी भूलते नहीं। भगवान की शक्ति और नियमों को मृत्यु की तरह अकाट्य मानकर चलने में मनुष्य की आध्यात्मिक वृत्तियाँ जाग्रत रहती हैं, जिससे वह लौकिक कर्तव्यों का पालन करते हुए भी अपने जीवनलक्ष्य की ओर निष्काम भाव से चलता रहा सकता है। मृत्यु को लोग भूले रहते हैं, इसलिए दुष्कर्म करते हैं। इस महातत्त्व की उपासना का अर्थ अपने आपको बुरे कर्मों से बचाये रखने के लिए प्रकाश बनाये रखना होता है। इस तरह की जीवन -व्यवस्था व्यक्ति को असाधारण बनाती है। वह शक्ति शिव में पायी जाती है, अतः शिव के उपासकों में भी वह वृत्तियाँ घुली होनी चाहिए।

यह प्रसंग भगवान शिव की आध्यात्मिक शक्तियों पर प्रकाश डालते हैं। इनके साथ कथानक और घटनाएँ भी जुड़ी हुई हैं जो जीवन के आदर्शों की व्याख्या करती हैं। इनमें से गंगावतरण की कथा मुख्य है। गंगाजी विष्णुलोक से आती हैं। यह अवतरण महान अध्यात्मिक शक्ति के रूप से होता है। उसे संभालने का प्रश्न बड़ा विकट था। शिवजी को इसके उपयुक्त समझा गया ओर भगवती गंगा को उनकी जटाओं में प्रश्रय मिला। गंगाजी यहाँ ज्ञान की प्रचण्ड आध्यात्मिक शक्ति के रूप में अवतरित होती हैं। लोक - कल्याण के लिए उसे धरती पर प्रवाहित करने की बात है ताकि अज्ञान से मरे हुए लोगों को जीवन-दान मिल सके। पर उस ज्ञान को धारण करना भी तो कठिन बात थी, जिसे शिव जैसा संकल्प -शक्ति वाला महापुरुष ही धारण सकता है। अर्थात् महान क्रान्तियों का सृजन भी कोई ऐसा व्यक्ति ही कर सकता है, जिसके जीवन में भगवान शिव के आदर्श समाये हुए हों, वही ब्रह्मज्ञान का धारण कर उस लोकहितार्थ प्रवाहित कर सकता है।

शिव का एक स्वरूप अर्द्धनारीश्वर है। जो प्रकृति में नर -नारी की सक्रिय भागीदारी के साथ - साथ बराबरी की दर्जा प्रदान करने की सक्रिय प्रेरणा प्रदान करता है। शिव और शक्ति एक - दूसरे के पूरक हैं। गृहस्थ होकर भी पूर्ण योगी होना शिवजी की महत्वपूर्ण विशेषता है। साँसारिक व्यवस्था को चलाकर भी वे योगी रहते हैं, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। वे अपनी धर्मपत्नी को भी मातृशक्ति के रूप में देखते हैं। यह उनकी महानता का अद्वितीय आदर्श है। यहाँ उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि गृहस्थ रहकर भी आत्म-कल्याण की साधना असम्भव नहीं । जीवन में पवित्रता रखकर उसे हँसते-खेलते पूरा किया जा सकता है।

यह सभी आदर्श इस बात की शिक्षा देते हैं कि मनुष्य शिव की तरह पदार्थों और समाज में प्रचलित परंपराओं का आध्यात्मिक मूल्याँकन करना सीख ले तो निस्संदेह उसका जीवन अधिकाधिक निरापद होता चला जाएगा शिव का अर्थ है - शुभ, कल्याणकारी, आनन्द , मोक्ष। संक्षेप में कहा जा सकता है कि शिव मानव जीवन की उन सभी आध्यात्मिक विशेषताओं के प्रतीक हैं जिनके बिना मनुष्य जीवन पाने का अर्थ हल नहीं होता शिवोपासना की प्रेरणा यही है कि हम भी निर्विकार, लोकोपकारी, विवेकशील एवं सत्यान्वेषी बनें। प्रतीकोपासना के पीछे छिपे आध्यात्मिक रहस्यों की ओर से हमें उपेक्षा रखी चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118