परिष्कृत मस्तिष्क बनता है कल्पतरु

October 1997

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अगणित विशेषताओं वाले कम्प्यूटर की तरह ही मनुष्य का मस्तिष्क है। दोनों में सूचनाओं के वृहद् भण्डार हैं। मस्तिष्क अपनी विशिष्ट संरचना के आधार पर संदेशों को ग्रहण-धारण करता है, जबकि कम्प्यूटर आदमी के गुलाम होते और उनकी इच्छानुवर्ती होकर कार्य करते हैं। दोनों में एक मौलिक अन्तर है। कम्प्यूटर की क्षमता सीमित है, जबकि परिष्कृत मस्तिष्क अनन्त सामर्थ्यवान होता है।

इन दिनों मानवी मस्तिष्क के स्थानापन्न के रूप में कम्प्यूटर को स्थान मिला है। इतने पर भी यह नहीं समझा जाना चाहिए कि बुद्धि के संदर्भ में मस्तिष्क की उपयोगिता समाप्त हो गई। सच तो यह है कि ईश्वर निर्मित अंगों की जगह मानव रहित यंत्र नहीं ले सकते। यह ठीक है कि कई मामलों में दोनों का कार्य एक समान होते हैं, तो भी उपकरण को मनुष्य का, उसके अवयवों का ठीक-ठीक विकल्प मानना अनुचित होगा, कारण कि मानव अंग केवल मशीन मात्र नहीं उससे भी अधिक और कुछ है। मनुष्य में भावनाओं और संवेदनाओं की जो सम्पत्ति है, उसके कारण ही उसे सृष्टि का सर्वोपरि प्राणी माना गया है। इन्हें यदि पृथक् कर दिया जाये, तो मनुष्य भी एक चलता-फिरता कठपुतली से अधिक कुछ नहीं रह जाएगा। एक सुविकसित प्राणी होने के कारण ही उसके रोम-रोम और कण-कण में यह विशिष्टता घुली हुई है। विज्ञानवेत्ता इसे कहाँ से लाएँगे ? अपने यंत्रों में उसे किस भाँति विकसित करेंगे ? यदि ऐसा नहीं हो सकता, तो यह दावा रखना गलत है कि यंत्र अंगों के विकल्प बन सकते हैं। वास्तव में इन्हें विकल्प नहीं, सहायक कहना चाहिए। वैज्ञानिकों ने हृदय को संचालित करने वाला यंत्र पेसमेकर मेकर’ बनाया, वृक्क की असफलता को दुरुस्त करने वाला डायलिसिस उपकरण की रचना की, कृत्रिम रक्त पर सम्पूर्ण मनुष्य की नकल यंत्र मानव का विकास किया। यों कहने को तो आदमी ने अपनी प्रतिकृति और बुद्धि की अनुकृति मानव यंत्र कम्प्यूटर के रूप में विकसित कर ली है, पर फिर भी मानव विज्ञान और विराट् सत्ता की कृतियों में तो अन्तर बना ही रहेगा। जड़ बुद्धि भला चेतनवान् मेधा का मुकाबला कैसे कर सकती है। मानवी बुद्धि कोई भी कार्य करने से पूर्व यह बार-बार सोचती है कि उसके कृत्य के परिणाम स्वयं पर, समाज और समय पर क्या होंगे ? यदि वे हानिकारक हुए तो वह उस पर अंकुश लगाती है और लाभकारी होने पर दुगुने तिगुने उत्साह के साथ सम्पन्न करती है। यांत्रिक बुद्धि में यह योग्यता नहीं। उससे स्वतंत्र चिन्तन का अभाव है। वह नीति-अनीति भला-बुरा लाभ-हानि उत्कृष्ट-निकृष्ट का निर्णय कर सकने में असमर्थ है। मानवी बुद्धि में यह समर्थता भाव-संवेदना की फलश्रुति मानी जानी चाहिए। इसलिए मस्तिष्क का कम्प्यूटर से और मानव का यंत्रमानव से तुलना करना गलत होगा। यंत्र सिर्फ निर्देशों का पालन करते हैं, वे भले हैं या बुरे, नैतिक हैं या अनैतिक, इससे उनका कोई सरोकार नहीं है। पिछले दिनों लन्दन में घटी एक घटना से यह बात एकदम स्पष्ट हो जाती है।

हुआ यों कि एक संस्थान में कुछ लड़के लड़कियाँ टाइपराइटिंग कर कर रहे थे। इसी कार्य में एक रोबोट भी नियुक्त था। सभी अपने अपने काम में तल्लीन थे कि अचानक रोबोट अपना काम छोड़कर एक सहकर्मी लड़की की ओर बढ़ने लगा। यह देखकर वह सहम गई और कमरे से बाहर भागी। वह भी उसका पीछा करते हुए बाहर निकला। लड़की उससे बचने के लिए इधर-उधर दौड़ रही थी। रोबोट भी बराबर उसका पीछा कर रहा था। बाद में बड़ी मुश्किल से उसको नियन्त्रित किया गया। कहते हैं कि किसी ने जानबूझ कर उसे गलत सिगनल दिया था। उन दिनों यह घटना चर्चित हुई थी।

ऐसे ही जापान की होण्डा मोटर्स कम्पनी ने एक बार एक ऐसा रोबोट बनाया, जो गाड़ी के पुर्जे बनाने में मनुष्य की सहायता करता था। उसका सहयोगी उसके साथ मिलकर एक दिन पुर्जा बना रहा था कि एक दिन उसे संदेश देने में अचानक एक गलती हो गयी। गलत बटन दबते ही रोबोट की बाँहें तत्काल उठीं और अपने नियन्ता व्यक्ति को एक जोर दार थप्पड़ मारा। यंत्रमानव की फौलादी भुजाओं की मार वह बर्दाश्त नहीं कर सका और थोड़ी ही देर में उसकी मौत हो गयी।

इन घटनाओं के उपरान्त बौद्धिक जगत में यह सवाल उठाए जाने लगे कि क्या सचमुच यांत्रिक बुद्धि को मानव मेधा स्तर का आँका जा सकता है ? क्या केवल क्रियात्मक समानता जैसे किसी एक गुण के आधार पर कोई वस्तु किसी दूसरे के समकक्ष कहलाने का अधिकार प्राप्त कर लेती है ? इन बिन्दुओं पर गम्भीर चिन्तन के पश्चात् इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि समानता का आधार एक पक्षीय नहीं हो सकता। यदि ऐसा होने लगे तो फिर विवेकपूर्ण निर्णय कर पाना असंभव होगा और संसार में नीति, धर्म, गुण, सदाचार की धज्जियाँ उड़ जाएँगी। उदाहरण के लिए आदमी और वनमानुष को लिया जा सकता है। दोनों के आकार-प्रकार लगभग एक जैसे हैं। दोनों को ही ‘बाइपेडल लोकोमोशन’ ( दो पैरों से चलने की क्षमता ) मिला हुआ है। इतने पर भी वनमानुष को मनुष्य नहीं कहा जा सकता है। दोनों में जमीन आसमान का अन्तर है। इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति को उसके बाह्य लिबास, देश-विन्यास और धार्मिक बातों के आधार पर ही आध्यात्मिक मान लिया गया तथा उसके निजी व्यक्तित्व की परख नहीं की गयी तो फिर ऐसे लोग समाज को जिस धार्मिक प्रपंच में धकेलेंगे, वहाँ प्रपंचना और छलना के अतिरिक्त शेष कुछ होगा ही नहीं । ऐसे में धर्म और समाज को जो क्षति पहुँचेगी, वह साधारण नहीं, असाधारण होगी। प्लास्टिक के सजीव से दीखने वाले पौधे कितने ही जीवन्त क्यों न लगे, रहेंगे वे रसहीन और निर्जीव ही। पवित्र गंगाजल और नाले के पानी को सिर्फ जल होने के कारण ही स्तर का नहीं माना जा सकता। गंगाजल का लोग श्रद्धापूर्वक आचमन करते हैं, जबकि नाले के पानी में पैर भी धोना पसन्द नहीं किया जाता । पत्थर गोल है, मात्र इसलिए उसकी शिवलिंग जैसी पूजा होनी चाहिए- यह तर्क निरर्थक है।

यहाँ चर्चा कृत्रिम और नैसर्गिक मानवी बुद्धि के संदर्भ में हो रही है और कहा यह जा रहा है कि समतुल्यता की निशानी आकार अथवा क्रिया की एकरूपता नहीं है, उसमें तद्नुरूप अनुशासन और गरिमा का समुचित समावेश भी अभीष्ट है, तभी यह कहा जा सकेगा कि दोनों वस्तु एक स्तर की एक समान है, अन्यथा नहीं। समान दीखना और समान कहलाना एक बात है और उस जैसा होना सर्वथा दूसरी। कम्प्यूटर और मस्तिष्क के मध्य यही सबसे बड़ा फर्क है। दोनों की क्रिया-प्रणाली एक जैसी हो सकती है, पर कम्प्यूटर कभी मस्तिष्क नहीं बन सकता। मानवी मस्तिष्क का एक प्रमुख गुण समायोजन (एडजस्टमेण्ट) है। उसमें इसकी अद्भुत क्षमता है। कम्प्यूटर इस विशिष्टता से वंचित है। यह सत्य है कि निर्धारित प्रोग्राम के अंतर्गत वह दक्षतापूर्वक काम करता है, पर उससे ऊपर उठकर कुछ विशेष सोच और कर सकना उसके वश की बात नहीं। यही इन दिनों उद्योग जगत के लिए सबसे बड़ी चिन्ता की बात है। जिस पैमाने पर वर्तमान में औद्योगिक प्रतिष्ठान कम्प्यूटरीकृत हुए हैं, उसे देखते हुए क कम्प्यूटर की असमर्थता से उत्पन्न चिन्ता को समझा जा सकता है। कहते हैं कि सन् 2000 की शुरुआत के साथ ही कम्प्यूटर अपनी तारीख पहचान सकने की क्षमता खो बैठेंगे। सब वे बीसवीं सदी और इक्कीसवीं सदी के मध्य भेद नहीं कर सकेंगे । इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि वर्तमान में अधिकाँश कम्प्यूटर प्रणालियों में तारीख क्षेत्र (डेट फील्ड) दो अंकों का है,? जो 19 पर पूर्व निर्धारित है। 31 दिसम्बर सन् 1999 की मध्य रात्रि के पश्चात् यह तारीख क्षेत्र सन् 2000 और 1999 में अन्तर नहीं कर पायेगा। उद्योग क्षेत्र में इसके परिणाम काफी गम्भीर होंगे। विशेषकर वे कम्पनियाँ जो आयात निर्यात में संलग्न हैं अथवा जहाँ कर्मचारियों सम्बन्धी भविष्य निधि, पेंशन जैसे कार्यों का लेखा जोखा रखा जा रहा हो, उन्हें इन कार्यों में मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है और किस प्रकार की दिक्कतें सामने आएँगी इसकी ठीक-ठीक भविष्यवाणी कर सकना तो अभी सम्भव नहीं, पर अनुमान है कि उससे उक्त प्रणाली आँशिक रूप से या पूर्णरूपेण असफल हो जाएगी। इसके अतिरिक्त एक सम्भावना यह भी व्यक्त की जा रही है कि 31 दिसम्बर 1999 की अर्धरात्रि के बाद से कम्प्यूटर आँकड़े ग्रहण करना बन्द कर देंगे। यह तो मात्र अटकलें हैं। वास्तविक स्थिति क्या होगी यह तो समय ही बताएगा।

इसका हल क्या है ? विशेषज्ञों का कहना है कि इसका एकमात्र समाधान यही हो सकता है कि दो अंकों वाले डेट फील्ड को चार अंकों के क्षेत्र में परिवर्तित कर दिया जाए। इस सलाह के साथ वे यह भी कहते हैं कि यह एक जटिल प्रक्रिया है, अतः इसे सरलतापूर्वक सम्पन्न कर सकना कठिन होगा। वे कहते हैं कि यदि प्रोग्रामिंग करते समय अगली सदी का भी ध्यान रखा गया होता तो शायद यह समस्या सामने नहीं आती। अब जैसे ही वैज्ञानिकों को इस समस्या की जानकारी हुई, वैसे ही उन्होंने अपनी भूल का परिमार्जन करना शुरू कर दिया है। अब जो कम्प्यूटर प्रणालियाँ विकसित की जा रहीं हैं, उनमें शताब्दी परिवर्तन के कारण आने वाली तारीख सम्बन्धी अड़चन का पूरा पुरा ध्यान रखा जा रहा है। और इस बात की चेष्टा की जा रही है कि ऐसा कोई सॉफ्टवेयर लगाया जाए जो शताब्दी परिवर्तन से सर्वथा अप्रभावित रहते हुए 1999 की आधी रात्रि के बाद इस महत्वपूर्ण परिवर्तन को पहचान ले और स्वतः ही स्वयं को उसके अनुरूप ढाल ले। यह तो आगे विकसित होने वाली प्रणाली की बात हुई। इससे वर्तमान अवरोध का समाधान थोड़े ही हो जायेगा। वह फिर भी ज्यों का त्यों बना रहेगा, कारण कि इन दिनों विश्वभर में कम्प्यूटर की जितनी प्रणालियाँ अस्तित्व में हैं, उनमें से अधिकाँश का प्रोग्राम इसी शताब्दी को ध्यान में रखकर बनाया गया है, अतः विश्वभर में पुरानी पड़ चुकी इस प्रणाली को बदला जाना ही इसका कारगर उपाय हो सकता है। जल्द ही यदि इसे सम्पादित नहीं किया गया, तो कम्प्यूटरीकृत अधिकाँश कारोबार ठप हो जाएँगे, दुनिया भर में हवाई यातायात अवरुद्ध हो जायेगा और नई सूचना टेक्नोलॉजी की परियोजना को विवश होकर बड़े पैमाने पर निरस्त करना पड़ेगा ।

इससे निपटने के लिए ब्रिटेन ने ‘ईयर 2000 टास्क फोर्स’ बनाया है। इसका मुख्य उद्देश्य सम्पूर्ण विश्व में उक्त संकट के प्रति चेतना उभारना है। जानकारों के अनुसार अभी भी एशिया में 19 प्रतिशत कम्पनियाँ इस गम्भीर समस्या के प्रति लापरवाह बनी हुई हैं। यूरोपीय देशों में 15 प्रतिशत, ब्रिटेन में 92 प्रतिशत तथा अमेरिका में 70 प्रतिशत प्रतिष्ठान आज भी इस दिशा में उपेक्षा बरत रहे हैं, जबकि विपत्ति सिर पर है। इस आकलन के अनुसार इस विश्वस्तरीय परियोजना पर कुल 600 अरब डालर से भी अधिक खर्च होने का अनुमान है। कई मूर्धन्य तो यहाँ तक आशंका व्यक्त करने लगे हैं कि सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के लिए जो राष्ट्रीय बजट है, उसका 30 से लेकर 55 प्रतिशत तक का भाग इस निमित्त खर्च हो जायेगा। जो भी हो इतना सुनिश्चित है कि अब इससे बचा नहीं जा सकता। कम्प्यूटर प्रणाली में परिवर्तन अब अवश्यम्भावी हो गया है।

मस्तिष्क इस मामले में इससे भिन्न है। वह किसी भी बदलाव को तत्काल पहचानता और उसके अनुरूप स्वयं को ढाल लेता है। जड़ कम्प्यूटर और चेतन मस्तिष्क में यही सबसे बड़ा अन्तर है। यह ठीक है कि सामान्य स्थिति में दिमाग वैसी क्षमता का प्रदर्शन नहीं कर पाता किन्तु इतने मात्र से ही यंत्र मस्तिष्क की बराबरी नहीं कर सकते। परिष्कृत स्थिति में यह इतना अद्भुत और असाधारण क्षमतावान् बन जाता है, जिसे किसी भी प्रकार कल्पवृत से कम नहीं आँका जा सकता। जो कल्पतरु हो, उसकी तुलना कृत्रिम बौद्धिकता से करना उसके गौरव को घटाने जैसा है। अतः उचित यही है कि जड़ की तुलना चेतन से न की जाए। जड़ को जड़ की तरह स्वीकार किया जाए और चेतन की महत्ता को उसके अनुरूप गरिमा प्रदान की जाए, तभी हम ब्रेन और बुद्धि को संवेदना शून्य बनने से रोक सकेंगे, इससे कम में नहीं।


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