शब्द को हम शब्दब्रह्म बनाले

October 1997

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स्थूल जगत में चल रही ध्वनि धाराओं के लाभ - हानि से विज्ञान के विद्यार्थी परिचित है कि अवांछनीय कोलाहल से अन्तरिक्ष कितना विक्षुब्ध होता है और उसका भयानक प्रभाव प्राणियों और पदार्थों पर किस प्रकार विपत्ति बरसाता है ? बड़े शहरों और कारखानों से उत्पन्न कोलाहल के दुष्परिणामों को अब भली प्रकार समझा जाने लगा है और उसकी रोकथाम के लिए गंभीर विचार हो रहा है। दूसरी ओर उपयोगी ध्वनियों का लाभ उठाने के लिए भी एक से एक बढ़े - चढ़े आविष्कारों की शृंखला सामने आ रही है। रेडियो जैसे उपकरणों से संवाद - प्रेरणा आदि के कार्य के लिये जा रहे हैं। इस प्रकार ध्वनियों को समझने, पकड़ने रोकने एवं प्रेषण के लिए भी भरपूर प्रयत्न हो रहे हैं। लाउडस्पीकर, टेपरिकार्डर, सीडी प्लेयर, सुपर सोनिक यंत्रों की भरमार होती चली जा रही है। संगीत के प्रभाव से मनुष्यों की शारीरिक, मानसिक विकृतियों के उपचार होते हैं। उनके सुखद संवेदनाएँ उभारने का काम लिया जाता है। इतना ही नहीं दुधारू पशुओं का दूध बढ़ाने बागवानी एवं कृषि कार्य के क्षेत्र में अधिक अच्छी सफलताएँ पाने के लिए लय और तालबद्ध ध्वनि - प्रवाहों का उत्साहवर्द्धक उपयोग हो रहा है। ध्वनि की शक्ति बारूद, भाप , बिजली, अणुशक्ति से अधिक ही आँकी गई है। प्रयत्नपूर्वक ऊर्जा उत्पन्न करना महँगा भी है और कष्टसाध्य भी। प्राकृतिक ऊर्जा जो ध्वनि - प्रवाह के रूप में सर्वत्र संव्याप्त है, उसको पकड़ने और उपयोग में लाने की आशा विज्ञान क्षेत्र में पुलकन उत्पन्न कर रही है। समझा जा रहा है कि इस क्षेत्र में जिस दिन विज्ञान को कुछ कहने लायक सफलता मिल सकेगा उस दिन वह अबकी अपेक्षा असंख्य गुणी शक्ति का अधिपति बना जाएगा।

यह तो हुई स्थूल जगत में चलने वाले ध्वनि - प्रवाह की क्षमता एवं उपयोगिता की तनिक - सी झाँकी इसके ऊपर सूक्ष्म जगत है। उसमें चलने वाले ध्वनि - प्रवाह और भी अधिक महत्वपूर्ण हैं। यद्यपि वे मशीनों की पकड़ में नहीं आते तो भी उनके अस्तित्व को चेतनात्मक उपकरणों की सहायता से समझा जा सकता है। समझा ही नहीं उपयोग में भी लाया जा सकता है। यंत्रों से तो अब तक परमाणु का स्वरूप तक नहीं देख जा सका। उसकी प्रतिक्रियाओं को देखते हुए उसका स्वरूप कल्पित किया गया है। कल्पना की यथार्थता इसलिए मान्य की गई कि परमाणु से शक्ति - उत्पादन की सफलता ने उनके समर्थन में साक्षी प्रस्तुत कर दी। सूक्ष्म जगत की ध्वनियों का विज्ञान भौतिक क्षेत्र की शब्द विद्या से कम नहीं अधिक ही महत्वपूर्ण है। शरीर से प्राण की क्षमता अधिक होने का तथ्य सर्व- स्वीकृत है। स्थूल जगत की तुलना में सूक्ष्म जगत की गरिमा को भी ऐसी ही वरिष्ठता देनी होगी। ध्वनि - प्रवाह के सम्बन्ध में भी यही बात है। श्रवणातीत ध्वनियाँ विज्ञान जगत में अपनी गरिमा का प्रभाव समझा चुकी है। मनुष्य उनसे संपर्क जोड़ने के लिए बेतरह लालायित भी हो रहा है। सूक्ष्म जगत की ध्वनि संवेदनाओं का महत्व श्रवणातीत ध्वनियों से उच्चस्तरीय है। भौतिक जगत की ध्वनियों से मात्र भौतिक प्रयोजन ही सिद्ध हो सकते हैं। सूक्ष्म जगत के ध्वनि - प्रवाह यदि मनुष्य की समझ एवं पकड़ की सीमा में आ सके तो उसके चेतनात्मक लाभ प्रचुर मात्रा में उठाये जा सकते हैं।

तत्त्वज्ञानी, महामनीषियों को मात्र धर्मोपदेशक नहीं मानना चाहिए। वे सूक्ष्म जगत के स्वरूप को समझने और उसके साथ सम्बन्ध जोड़कर अतीन्द्रिय ज्ञान विकसित करने के प्रयास में संलग्न रहे हैं। इस प्रकार उनकी योग - साधना एवं तपश्चर्या को आत्म-कल्याण और सूक्ष्म विज्ञान के अधिकरण का दुहरा प्रयास कहा जा सकता है। हमारे ऋषि ज्ञानी भी थे और विज्ञानी भी। उनकी साधनाएँ आत्म-साक्षात्कार के लिए भी थीं और सूक्ष्म जगत में प्रवेश एवं अधिकार पाने के लिए भी। योग - साधना के साथ स्वर्ग - मुक्ति की भावनात्मक और ऋद्धि - सिद्धि की शक्तिपरक सफलताएँ जुड़ी हुई हैं।

योग साधनाओं से सूक्ष्म ध्वनि क्षेत्र से संपर्क बनाने और लाभ उठाने के दो प्रयोग होते रहे हैं। शब्द विद्या की दो धाराएँ मानी गई हैं, एक तो पकड़ने समझने और उनके सहारे अविज्ञात सम्भावनाओं से परिचित रहने की है, जिसे नादयोग कहा गया है। नादानुसंधान की महिमा योगशास्त्र में विस्तारपूर्वक बताई गई है। उनके सहारे सूक्ष्म जगत की हलचलों की जानकारी प्राप्त करने का लाभ बताया गया है। यह कहने - सुनने में छोटी किन्तु व्यवहार में बहुत बड़ी बात है। स्थूल जगत की वस्तुस्थिति से जो जितना परिचित है, उसे उतना ही बड़ा ज्ञानवान कहा जाता है। इस जानकारी के आधार पर ही लोग विभिन्न क्षेत्रों में आशातीत सफलताएँ पाते हैं। जिसकी जानकारियाँ जितनी सीमित हैं वे उतने ही पिछड़े समझे जाते और घाटे में रहते हैं। सूक्ष्म जगत की अद्भुत जानकारियों से परिचित रहने वाले नादयोगी अति महत्वपूर्ण वस्तुस्थिति समझ लेते हैं और उनके सहारे खतरों से बचने एवं अवसरों से लाभ उठाने का प्रयत्न करते हैं। यह लाभ वे अपने लिए भी लेते हैं और दूसरों का भी हित - साधन करते हैं। नादयोग के सहारे देवतत्त्वों से - परब्रह्म से जो सीधा सम्बन्ध बनता है उसका अन्तः क्षेत्र के परिष्कार में कितना बड़ा योगदान मिलता है, यह अनुभव का विषय है। नादानुसंधान के प्रवीण अभ्यासी इस क्षेत्र में प्रवेश पाने में मिली सफलताओं से चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करते देख गये हैं।

नादयोग की - सूक्ष्म जगत की दिव्य - ध्वनियों के साथ संपर्क बनाने की विद्या का महत्व बहुत ही है। इस विज्ञान का लाभ, स्वरूप एवं प्रयोग समझाते हुए ऋषियों ने बहुत कुछ कहा है।

नाबिन्दुपनिषद में वर्णन है -

ब्रह्मप्रणवसन्धानं नादो ज्योतिर्मयः शिवः। स्वयमावर्भविदात्मा मेघापायेंऽशुभनिव ॥

यत्र कुत्रापि वा नादे लगति प्रथमं मनः। तत्र त स्थिरीभूत्वा तेन सार्धं विलीयते।

सर्वचिन्ताँ समुत्सृज्य सर्वचेष्टाविवर्जितः। नादमेवानुसन्दध्यान्नादे चित्तं विलीयते॥

नियामनसमर्थोऽयं निनादो निशिताँकुशः । नादोऽन्तरंगसारंगबन्धने वायुरायते॥

अर्थात् - नादयोग ज्योतिर्मय शिव हैं वेदात्मा है। अशुभों का निवृत्तिकर्ता है। जब नाद के आधार पर मन स्थिर हो जात है तो वह परमात्मा में विलीन हो जाता है। इसलिए समस्त चिन्ताओं और हलचलों से छुटकारा पाकर शान्तचित्त से नादानुसंधान करना चाहिए। इस प्रयास के फलस्वरूप जो दिव्य शब्द श्रवण की अनुभूतियाँ होती हैं उससे अन्तःक्षेत्र की दुर्बलताओं और विकृतियों की निवृत्ति होती है। दिव्य क्षमता जगती है।

वायवीय संहिता में नाद को शक्ति का उद्भवकर्ता बताते हुए कहा गया है -

“ नादाच्छक्ति समुद्भवः । “

अन्तःकरण को निर्विषय बना लेने से उसकी दिव्य - क्षमताएँ उभरती हैं। मन को निर्विषय बनाने के लिए नादयोग का अभ्यास अतीव श्रेयस्कर सिद्ध होता है। कहा गया है-

मकरन्दं पिबन्भृंगो गन्धं नापेक्षते यथा। नादासक्तं तथा चित्तं विषयाँ हिं काँक्षते॥ - हठयोग

अर्थ - जिस प्रकार पुष्पों के मकरन्द को पान करने वाला भ्रमर दूसरे गन्ध को नहीं चाहता, उसी प्रकार नाद में आसक्त हुआ अन्तःकरण अन्य विषयों की अभिलाषा नहीं करता है।

शब्द की, नाद की अनुभूति यदि ठीक तरह होने लगे तो उसके सत्परिणाम भौतिक और आत्मिक दोनों ही क्षेत्र के मनोरथों को पूरा करते हैं -

एकः शब्दः सम्यग्ज्ञातः सुष्दु प्रयुक्तः स्वर्गे लोके च काम धुग भवति। - श्रुति

एक ही शब्द की तात्त्विक अनुभूति हो जाने से समस्त मनोरथों की पूर्ति हो जाती है। यह नादानुसंधान श्रवण पक्ष हुआ। शब्द विद्या का दूसरा पक्ष है - ध्वनि का अभीष्ट उद्देश्य के अनुरूप उत्पादन एवं प्रयोग। इसे मंत्रयोग से प्रेषण की क्षमता उत्पन्न होती है। दोनों को मिला देने से ही एक ऐसा स्वर - विज्ञान बनता है जो सूक्ष्म जगत की ध्वनि परिस्थितियों का उभय - पक्षीय उपयोग कर सके। घरों में रहने वाले रेडियो मात्र ध्वनि को पकड़ते हैं। इससे एकांगी प्रयोजन पूरा होता है। टेलीफोन की तरह ग्रहण - प्रेषण की उभय - पक्षीय व्यवस्था जहाँ होती है वही पूर्णता मानी जा सकती है। नादयोग और मंत्रयोग की दोनों ही धाराएँ मिलकर शब्दब्रह्म की समग्र क्षमता प्रस्तुत करती हैं। सुने जाने वाले प्रवाह को शब्दब्रह्म और कहे जाने वाले का परब्रह्म की संज्ञा दी गई है -

आगमोक्तं विवेकाच्य द्विि ज्ञान तथोच्यते। शब्दब्रह्मा ऽऽगमय परं ब्रह्म विवेकजम्॥ - अग्निपुराण

एक शब्द - ब्रह्म है दूसरा परब्रह्म। शास्त्र और प्रवचन से शब्दब्रह्म ओर विवेक, मनन, चिंतन से परब्रह्म की प्राप्ति होती है।

शब्दब्रह्म, परब्रह्म भार्गेभ्याँ शाश्वती - भागवत

शब्दब्रह्म और परब्रह्म यह दोनों ही भगवान के नित्य और चिन्मय शरीर है।

कुण्डलिनी जागरण में मन्त्राराधन एवं नादानुसंधान के रूप में इस शब्द - शक्ति का ही प्रयोग करना पड़ता है। इन दोनों ही धाराओं का उपयोग करने से अन्तः ऊर्जा का प्रखरीकरण - कुण्डलिनी जागरण सम्भव होता है।

चेतन्यं सर्वभूतानाँ शबद ब्रह्नोति में मतिः । तत्प्राप्य कुण्डली रूपं प्राणिनाँ देह मध्यगम् ॥ - योग वासिष्ठ

समस्त प्राणियों में यह शब्दब्रह्म चेतना बनकर विद्यमान है। उसे कुण्डलिनी जागरण द्वारा पाया जाता है।

मंत्र शक्ति का माहात्म्य असीम बताया गया है। उसके उपयोग से आत्मोत्कर्ष और लोक - कल्याण के उभयपक्षीय प्रयोजन पूरे होते हैं। अनुभवी साधना - विज्ञानियों ने , प्रामाणिक शास्त्र साक्षियों ने मंत्र की गरिमा समान रूप से प्रतिपादित की है। इससे उच्चस्तरीय शब्द विज्ञान द्वारा उत्पन्न ध्वनि की महत्ता पर प्रकाश पड़ता है -

अश्मानं चिद्ये बिभिदुर्वचोभिः । ऋग्वेद 4/16/6

उन शक्तिसम्पन्न पत्थरों को भी फोड़ डाला।

तामेताँ वाचं यथा धेनुँ वत्सनोपसृज्य प्रत्ताँ । दुहीतैवमेव देवा वाचं सर्वान् कामान् अनुह्नन ॥ - जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण

जिस प्रकार बछड़ा गाय का दूध पीता है उसी प्रकार देवपुरुष दिव्य - वाणी का आश्रय लेकर समस्त कामनाएँ पूर्ण करते हैं।

जिह्ना ज्या भवति कुल्मलं वाड्.नाडीका दन्तास्तपसाभिदिग्धाः । तेभिर्ब्रह्मा विध्यति देवपीयून् हृद्बलैर्धनुर्भिर्देवजूतैः ॥ - अथर्व

आत्मबल रूपी धनुष , तप रूपी तीक्ष्ण बाण लेकर तप और मन्यु के सहारे प्रहार करते हैं तो अनात्म तत्वों को दूर से ही वेध कर रख देते हैं।

कौषीतकि उपनिषद् में कहा गया है -

न वाचं विजिज्ञासीत्। वक्तारं विद्यात् ।

वाणी के उच्चारण को मत देखो। उच्चारणकर्ता के व्यक्तित्व को समझो।

कृतघ्न व्यक्ति उस साँप की तरह है जिस यह याद नहीं कि किसी के दूध पिलाने से वह मोटा हुआ है।

शब्दविद्या के दो आधार, दो साधन नादयोग और मंत्रयोग के नाम से प्रसिद्ध हैं। दोनों विधि - विधान और अभ्यास में अति सरल हैं। किन्तु उन्हें बहिरंग आवरण ही समझा जाना चाहिए। इनमें प्राण -संचार जीवन - साधना द्वारा उपार्जित की गई उत्कृष्ट अन्तः स्थिति से ही संभव होता है। मस्तिष्क में दुर्बुद्धि, अचिन्त्य, विकृत विचार - प्रवाह का निराकरण करने से उत्पन्न हुई चित्त स्थिरता से नादानुसंधान में सफलता मिलती है। व्यावहारिक जीवन से सत्कर्म परायणता, सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन एवं आदर्शवादी चरित्रनिष्ठा से उस वाक् शक्ति का उदय होता है जो मंत्रों को लक्ष्यवेधी बाण की तरह सामर्थ्यवान बनाती है। साधना विधियाँ सरल हैं, कठिन तो वह प्रक्रिया है जिसमें क्रिया, विचारणा और भावना को परिष्कृत-परिमार्जित करने के लिए निरन्तर आत्म-संघर्ष करना पड़ता है। शब्द विद्या का लाभ उठाने के लिए उसके लिए उपयुक्त यंत्र - उपकरण अपना परिष्कृत व्यक्तित्व ही होता है। शब्द को शब्द - ब्रह्म बना सकना ऐसे ही व्यक्तित्वसम्पन्न साधकों के लिए संभव होता है।


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