हमसे कहीं अधिक संवेदनशील हैं पेड़ - पौधे

October 1997

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योगवासिष्ठ - 3/44/24 महर्षि वशिष्ठ भगवान राम से कहते हैं-

ये च मध्यमधर्माणो मृतिमोहादनन्तरम् । ते व्योमवायुवलिताः प्रयान्त्योषधिपल्लवम् ।।

अर्थात्-हे राम! ऐसे जीव जिनके पुण्य मध्यम श्रेणी के होते हैं, वायु द्वारा उड़कर औषधि, फल-फूल आदि वृक्षों की योनियों में जन्म लेते हैं। अपने-अपने कर्मों का फल भोगकर वे पुनः पुण्यार्जन के लिए मनुष्य शरीर में आते हैं।

योगवासिष्ठ का यह सूत्र स्पष्ट करता है कि प्राण चेतना वृक्षों ओर वनस्पतियों में भी है, इसलिए उनके साथ भी प्राणियों जैसा अध्यात्मवादी दृष्टिकोण अपनाकर व्यवहार करना चाहिए। शास्त्रों में वृक्षों का लगाने उनका पोषण करने को एक पुण्यकर्म माना गया है वृक्ष हमें प्राण-वायु जीवन-तत्व हरीतिमा, छाया, लकड़ी, पुष्प, फूल आदि बहुत कुछ देते हैं, ऐसे उपकारी प्राणियों से, वृक्षों से हमें बहुत कुछ सीखना चाहिए और उनके जैसा परोपकारी बनना चाहिए।

उक्त उपकार किसी जड़ पदार्थ के नहीं हो सकते, यह तथ्य हमें यह सोचने को विवश करता है कि वृक्ष-वनस्पति जड़ नहीं, वरन् प्राणियों की तरह उनमें भी चेतन संवेदनशीलता है, इसलिए उनके साथ जड़ जैसा बरताव करना पाप या अनुचित कर्म है। इस सम्बन्ध में वैदिक मान्यताएँ स्पष्ट ही इस पक्ष में हैं कि पेड़-पौधों में जीवन हैं। अथर्ववेद के प्रथम काण्ड, अनुवाक 5,सुक्त 32 की प्रथम ऋचा में “प्राणन्ति वीरुधः” ऐसा प्रयुक्त हुआ है। उसका अर्थ ही है-जिसमें बेले जीवन धारण करती हैं।’ इसके अतिरिक्त अथर्ववेद

8/2/6 मंत्र में भी औषधियों (वनस्पतियाँ) में जीवन होता है, प्रमाणित किया गया है। यथा- जीवलां नयारिवाँ जीवन्ती-मीषधीमहम्

छान्दोग्योपनिषद्- 6/19/9 में भी उल्लेख है-अस्य सोम्य महती वृक्षस्य यो मूलेभ्याहन्याज्जीवन् स्त्रवेद्यो मध्ये भ्याहन्याज्जीवन्स्त्रवेद्यो ग्रे भ्याहन्या-ज्जीवन्स्त्रवेत्स एष जीवेनात्मानानुप्रभूतः पेपीयमानो मोदमानस्तिष्ठति” अर्थात्-हे सौम्य! यदि इस बड़े वृक्ष को मूल से काटे तो मनुष्य के रक्त की तरह जीता हुआ स्त्रवण करता है। मध्य (तना) और अग्रभाग टहनी-आदि ) काटने से भी वैसा ही जीवनरस टपकता है। इससे प्रतीत होता है कि वृक्ष जीवात्मा से, आत्मचेतना से अधिष्ठित हुआ हैं। एक स्थान से जीवन रस या रक्त निकल जाने से रोगी अंग की तरह वृक्षों की भी अनेक टहनियाँ सूखती रहती हैं। जब वृक्ष से जीवात्मा का प्राणचेतना का अन्त हो जाता है तो वह सूख जाता है और उसमें से किसी प्रकार का प्राण-स्पन्दन नहीं रह जाता।

मनुस्मृति, 46 में भी जीव-योनियों का वर्णन करते हुए मनु भगवान् कहते हैं-

“उदिज्ीज्जाः स्थावराः सर्वे बीजकाण्उप्ररोहिणः। आषध्यः फलापाकान्ता बहुपुष्पुलोपगाः ॥”

अर्थात् कर्मानुसार जीव उद्भिज और स्थावर योनियों-औषधि फल-फूल वाले वृक्षों में भी जन्म ग्रहण करता है। अनेक मंत्रों से यह भी बताता गया है कि उन्हें भी मनुष्य की तरह सुख-दुःख की अनुभूति होती है। वृक्ष वनस्पतियाँ पत्तियों द्वारा (स्टोमेटा द्वारा) साँस लेते हैं और जड़ों द्वारा आहार भी ग्रहण करते हैं। बस चल फिर नहीं सकते हैं, इसी तरह से उन्हें स्थावर कहा गया है।

इस संदर्भ में किये गये आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों द्वारा भी यह सिद्ध करना अब संभव हो गया है कि वृक्षों में भी जीवन हैं। मनुष्यों की तरह आहार पर जीवित रहने, साँस लेने, सूर्य-रश्मियों से जीवन-प्राण ग्रहण करने, काम-क्रीड़ाएं करने, संतति वृद्धि करने जैसी विभिन्न क्रियाएँ वृक्ष- वनस्पति भी करते हैं। मनुष्यों की तरह उनमें भी भाव-संवेदनाएँ होती हैं। हरें-भरे होना वृक्षों का जीवन है तो उनका सूख जाना ही उनकी मृत्यु है। यह सभी लक्षण दर्शाते हैं कि पेड़-पौधे भी उसी दिव्यचेतना के प्रकाश-पुँज हैं, जिसके कि मनुष्य और मनुष्येत्तर प्राणी। जो शक्तियाँ मनुष्य तथा अन्य प्राणियों में दिव्य-विलक्षणताएँ उत्पन्न करती हैं, वही वृक्ष -वनस्पतियों को भी प्रभावित करती हैं। जहाँ पहले विज्ञान यह मानता रहा था कि पेड़-पौधे भी जड़ पदार्थों की तरह निष्प्राण है, वहीं अब यह मान्यता बदली है ओर कुछ वर्षों से ही यह माना जाने लगा है वृक्ष -वनस्पतियों में भी प्राण-चेतना विद्यमान है। अपने देश के प्रख्यात विज्ञानवेत्ता सर जगदीश चन्द्र बसु का तो सारा जीवन ही इसी बात को प्रमाणित करने में लग गया था।

एक छोटी सी घटना से प्रेरित होकर उन्होंने यह सिद्ध किया कि पेड़-पौधों में भी जान है। वे भी अनुभव करते हैं। वे भी मनुष्यों और जानवरों की तरह सुख में सुख तथा दुःख में दुख अनुभव करते हैं। बसु ने ‘आप्टिकल लीवर’ नामक एक विशेष उपकरण बनाया था, जिसके माध्यम से वृक्ष वनस्पतियों की गति, स्पन्दन और संवेदनाओं का अध्ययन किया जाता था। पेड़ की पत्ती तोड़ने पर उसे जो पीड़ा होती है, उसे इस यंत्र से पकड़ा और बताया। इसी तरह ही कितनी ही गतिविधियाँ और प्रतिक्रियाएँ आप्टिकल लीवर से देखी समझी जा सकी। इसके माध्यम से उन्होंने वृक्षों की संवेदनशीलता के अनेक प्रयोग किये थे। साँस और स्पन्दन की गति की नाप और जहरीले पदार्थों का उपयोग करके उन्होंने जहाँ तक सिद्ध कर दिखाया था कि जिस तरह मनुष्य और प्राणियों के शरीर में विष का प्रभाव होता है वृक्ष-वनस्पतियों में भी वैसा ही प्रभाव पड़ता है।

कलकत्ता यूनिवर्सिटी के उत्तर में आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र रोड पर चार एकड़ भूमि में फैला मुगलकाल से पूर्व का एक उद्यान है। इसे इण्डियन टैम्पल ऑफ साइंस’ के नाम से जाना जाता है। इसके प्रवेश द्वार पर एक ग्लास केस में कुछ यंत्र सुशोभित हैं। वे वही यंत्र उपकरण हैं जिन्हें पचास वर्ष पूर्व सर जगदीश चन्द्र बसु ने पेड़-पौधों के विकास और आचरण को प्रदर्शित करने हेतु अध्ययन-अनुसंधान में प्रयुक्त किये थे। ये यंत्र दस करोड़ गुना बढ़ाकर पेड़-पौधों की सूक्ष्मतम स्थिति का, संवेदनशीलता का अध्ययन करने की क्षमता रखते हैं।

भारतीय धर्मशास्त्रों में पेड़ पौधों और वनस्पतियों से मनुष्य द्वारा स्थापित किये गये सजीव संपर्क की अनेक घटनाओं का उल्लेख मिलता है। आयुर्वेद शास्त्र के पितामह महर्षि के सम्बन्ध में विख्यात है कि उन्होंने अपने छोटे से जीवन में हजारों जड़ी बूटियों के गुण-धर्म मालूम किये तथा कौन सी जड़ी-बूटी किस रूप में कैसे प्रयोग की जानी चाहिए, इसका विस्तृत विधि विधान खोजा। आयुर्वेद की रचना करते समय वे जंगल में एक-एक वृक्ष, वनस्पति, झाड़ी के पास जाते और उससे उसकी विशेषताएँ पूछते। वनस्पतियाँ स्वयं अपनी विशेषताएँ बता देती। इस आधार पर हजारों वर्षों या हजारों वैज्ञानिकों का कार्य एक अकेले व्यक्ति द्वारा सम्पन्न किया जा सका। तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग में पहली बात को पिछले दिनों जहाँ संदिग्ध समझा जाता रहा है। परन्तु अब जबकि वनस्पति जगत में हुई अधुनातन खोजों के आधार पर वैज्ञानिक यह कहने लगे हैं कि पेड़-पौधों से न केवल संवाद सम्भव है, वरन् इनसे इच्छित कार्य भी कराया जा सकता है, तो उक्त भारतीय मान्यता की पुष्टि होने में किसी अविश्वास या शंका की गुँजाइश नहीं रह जाती।

इस संदर्भ में ‘द सीक्रेट लाइफ ऑफ प्लाण्ट्स’ नामक अपनी अनुसंधान पूर्ण कृति में मूर्धन्य लेखक वैज्ञानिकद्वय पीटर टॉम्पकिन्स और क्रिस्टोफर बर्ड ने लिखा है कि मनुष्य अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से जितना देख सुन व समझ नहीं सकता, उससे कई गुना क्षमता पौधों में होती है। बिना नेत्रों के इनकी देखने व अनुभव करने की शक्ति बड़ी विलक्षण है। अपने ऊपर आने वाले संकटों की सूचना देने में वे मनुष्य से कहीं आगे हैं। अमेरिकी वनस्पति विज्ञानी पियरे पाल साविन का तो यहाँ तक कहना है कि पौधों की इन विशेषताओं का उपयोग भविष्य में चोरों से घर की सुरक्षा के लिए किया जा सकेगा। उसके लिए किसी भी पौधे का सम्बन्ध दरवाजे के साथ जोड़ दिया जायेगा और मकान मालिक जब उस पौधे के पास जाकर खड़ा हो जायेगा तो पौधा अपने मालिक को पहचान कर दरवाजा खुलने देगा। उन्होंने अपने अनुसंधान निष्कर्ष में बताया है कि पेड़-पौधे न केवल मालिकों पर शोक व्यक्त करते हैं, वरन् उन्हें मानव कोशिका की मृत्यु तक का बोध होता है और उस पर वे अपनी भाव संवेदना भी व्यक्त करते हैं।

इसके लिए पियरे ने एक बड़ा ही विलक्षण प्रयोग किया। इस प्रयोग के लिए जिस पौधे का चुना गया, वह उनके घर से 80 मील दूर एक अनुसंधान केंद्र में स्थित था, जिसका परीक्षण वैज्ञानिकों द्वारा किया जा रहा था। पौधे की संवेदनशीलता परखने के लिए उन्होंने अपने शरीर को बिजली के झटके दिये। 80 मील दूर स्थित पौधे पर इसकी प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया नोट की गयी, जबकि दोनों के मध्य कोई सीधा संबन्ध नहीं था, सिवाय इसके कि जब पियरे के शरीर को बिजली के झटके दिये जा रहे थे तो उस पौधे का ध्यान कर रहे थे। इस घटना के पश्चात् जब उन्हें विश्वास नहीं हुआ तो यही प्रक्रिया तीन पौधों के साथ अलग-अलग गमलों में अलग-अलग कमरों में रख कर दुहराई गयी। हर कमरे का वातावरण दूसरे के वातावरण से बिलकुल भिन्न था तथा तीनों पौधे एक ही विद्युत पथ से जुड़े हुए थे। उधर 80 मील की दूरी पर स्थित पियरे ने दुबारा अपना प्रयोग आरम्भ किया। दोनों के मध्य कोई संपर्क सूत्र नहीं था। केवल विचार शक्ति एवं भावनाओं का उपयोग करना था। जैसे ही प्रयोग आरम्भ हुआ, तीनों ही पौधों पर समान प्रतिक्रिया हुई। अब संदेह की कहीं कोई गुँजाइश नहीं रह गयी थी कि पौधे 80 मील दूर बैठे अपने पालक की अनुभूतियों, संवेदनाओं को ग्रहण कर कृतज्ञता स्वरूप प्रतिक्रियाएँ व्यक्त कर रहे थे।

वृक्ष- वनस्पतियाँ न केवल अपने पालन पोषणकर्ताओं की आज्ञा मानने को तत्पर रहते हैं और सुख-दुःख में अपनी संवेदनाएँ व्यक्त करते हैं, वरन् उनमें भी भावनाओं का आवेश उमड़ता है। इस सम्बन्ध में ‘इलेक्ट्रानिक रिसर्च सेंटर, टोकियो यूनिवर्सिटी जापान’ के वरिष्ठ वैज्ञानिक डाक्टर केन होशीमोतो ने गहन अनुसंधान किया है। उन्होंने पौधों की भाव-संवेदनाओं को अनुभव करने के लिए इलेक्ट्रिक सिगनल का प्रयोग किया है, जिसे आज के भौतिक सिद्धान्तों के आधार पर सिद्ध नहीं किया जा सकता। ‘द मिस्ट्री ऑफ दि फोर्थ डाइमेंसनल वर्ल्ड’ नामक पुस्तक में इसका विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। डा0 होशीमोतो की धर्मपत्नी का पादप प्रेम ‘ग्रीन थम्ब’ के नाम से विश्व विख्यात है। उनके बगीचे में लगे कैक्टस के पौधे उनसे वार्तालाप करते हैं। डा होशीमोतो ने इन पौधों की प्रतिक्रियाओं संवेदनाओं को मानने के लिए लाइडिटेक्टर मशीन के साथ कुछ इलेक्ट्रानिक मशीन जोड़कर उन पर इतने प्रयोग किये हैं कि कैक्टस के पौधे अब गिनती गिनना सीख गये और बाकायदा प्रश्नों के उत्तर तक देने लगे हैं। वे अपनी प्रतिक्रियाएँ या उत्तर कम्पनों के माध्यम से प्रदर्शित करते हैं जिसे इलेक्ट्रानिक यंत्र ध्वनि तरंगों में बदल देते हैं। इन्हें हेडफोन लगाकर कोई भी स्पष्ट रूप से सुन और समझ सकता है। वैज्ञानिकों ने उनके वार्तालाप को सुनकर साइकोकीनेसिस नामक विज्ञान की एक नयी शाखा विकसित की है, जिससे पौधों की अन्तः स्थिति को समझने में सफलता मिली है।

इसी तरह अमेरिका की नेवल और्डीनेंस लैबोरेटरी के अनुसंधानकर्ता ऐल्डन ब्रिड ने भी पेड़-पौधों के साथ भावनात्मक आदान पर विशेष शोधकार्य किया है। ‘साइकोलाजिकल स्टस इवैल्यूएटर’ नामक एक वैज्ञानिक विधि से श्रव्य और श्रवणातीत ध्वनियों को सुगमतापूर्वक सुना जा सकता है। तनावमुक्त शान्त मन से यंत्र के माध्यम से पौधों की आन्तरिक संवेदनाओं को आसानी से सुना समझा जा सकता है। पीटर टौम्पकिन्स एवं क्रिस्टोफर बर्ड के शब्दों में पेड़-पौधे की मनः स्थिति और परिस्थिति को समझने के लिए व्यक्ति की अति सूक्ष्म दृष्टि को विकसित होना चाहिए, तभी वह उनकी संवेदनाएँ समझने में समर्थ हो सकता है।

उक्त खोजें यह संकेत करती हैं कि एक ही चेतन आत्मा सब में विद्यमान है, यह अनुभव करते हुए हमें विराट ब्रह्म की असीम चेतना अपने चारों ओर फैली देखनी चाहिए और जीव-जन्तुओं के साथ ही नहीं, वृक्ष-वनस्पतियों के साथ भी सहृदयतापूर्ण व्यवहार करते हुए वृक्ष सम्पदा को बढ़ाना चाहिए। प्राचीनकाल चेतन से प्रभावित करने और आत्म-चेतना से अदृश्य गुह्य रहस्य उद्घाटित करने के जो प्रयोग हुए तथा उनमें जो सफलताएँ मिली थीं वह आज भी घटित हो सकती हैं, बशर्ते उक्त रहस्य को समझ सकें।


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