पूज्य गुरुदेव बराबर कहते रहें हैं कि ‘आत्मशक्ति’ का जागरण किया जाना है। इसके अंतर्गत मनुष्य मात्र के लिए सद्बुद्धि और उज्ज्वल भविष्य की प्रार्थना अनिवार्य है। सर्वप्रथम सभी नैष्ठिक साधक तथा नये संपर्क में आये परिजन, युगसंधि पुरश्चरण में भाग लें और अधिक साधक बनाने का क्रम जारी रहे।
नैष्ठिकों से कहा गया है कि वे जप का दैनिक अस्वाद व्रत और ब्रह्मचर्य का साप्ताहिक तथा अनुष्ठानों का छमाही (नवरात्रियों में या सुविधानुसार ) क्रम चलाते रहें। नये साधकों को नित्य दस मिनट गायत्री मंत्र जप या एक चालीसा पाठ या चौबीस मंत्रलेखन की साधना से जोड़कर क्रमशः उन्हें आगे बढ़ाते रहें। यदि कभी चूक हो जाये, तो उसकी पूर्ति अगले दिन कर लें।
अनुदान ध्यान-साधना :- साधकों के अपने साधना पुरुषार्थ के साथ युगशक्ति के दिव्य-अनुदान प्राप्त करने के लिए यह साधना-प्रयोग ऋषिसत्ता की अनुकम्पा से उपलब्ध कराया जा सकता है। साधकों का इस अनुदान-साधना से आत्मनिर्माण और लोककल्याण के व्रतों को फलित करने योग्य, अग्रदूतों की भूमिका निभाने योग्य ऊर्जा प्राप्त होगी। अशुभ को निरस्त करने और सृजन बनाने के लिए आत्मशक्ति की इन दिनों विशेष आवश्यकता है। उसे उपलब्ध करने के लिए ध्यान का यह अभिनव उपक्रम आरम्भ किया गया हैं, जिसे प्रज्ञा परिवार के समस्त परिजनों द्वारा अपनाया जाना चाहिए। उनके संपर्क में जो भी श्रद्धा सम्पन्न व्यक्ति आयें, उन्हें भी अपनाने के लिए कहा जाना चाहिए।
अपने नियमित उपासना क्रम के अतिरिक्त प्रातःकाल के लिए यह शक्ति-संचार साधना है। यह सूर्योदय से एक घण्टा पूर्व से लेकर सूर्योदय तक की अवधि में किसी भी समय 15 मिनट तक की जा सकती है। प्रक्रिया इस प्रकार है :-
उपासना कक्ष या कोलाहल रहित स्थान में ध्यानमुद्रा में बैठें। ध्यानमुद्रा अर्थात् स्थिर शरीर, शान्तचित्त, सुखासन (पालथी मारकर )कमर सीधी, हाथ गोदी में, आँखें बन्द।
ध्यान करें कि देवात्मा हिमालय के केन्द्र से प्रेरित विशिष्ट प्राण प्रभाव हमारे चारों ओर छा गया है। वह हमारे श्वास-प्रश्वास के साथ शरीर, मन, अन्तःकरण के कण-कण में संचरित हो रहा है।
श्वास खींचने (पूरक क्रिया ) के साथ प्राण अनुदान को धारण करने, श्वास रोकने के साथ आत्मसत्ता के जाग्रत को होने का भाव करें, कि हमारी जाग्रत आत्मशक्ति ब्रह्माण्ड में फैलकर युगशक्ति के नवसृजन संकल्प के साथ जुड़ रही है। इससे विभीषिकाएँ निरस्त होकर अनुकूलताएँ बढ़ रही हैं, यह क्रम 15 मिनट चलाएँ। बाद में नमस्कार करके उठें और सूर्यार्घ देकर समापन करें। नये साधकों के लिए इतना ही पर्याप्त है। प्रौढ़ साधक इसके साथ कुण्डलिनी शक्ति जागरण, उन्नयन का प्रयोग जोड़ सकते हैं। इस प्रयोग में भावना इस प्रकार करे :-
श्वास खींचने के साथ भावना करें कि यह प्राण प्रभाव युक्त श्वास, मल-मूत्र छिद्रों के मध्य अवस्थित मूलाधार चक्र तक पहुँचकर उससे टकराता है।
प्राणवायु के टकराने से मूलाधार में सोयी पड़ी सर्पिणी के सदृश कुण्डलिनी शक्ति में हलचल उत्पन्न होती है।
श्वास रोकने के साथ कुण्डलिनी, श्वास में घुले प्राण−प्रवाह को पीकर जाग्रत और परिपुष्ट होती है। उस जागरण से स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीरों को बल मिलता है।
श्वास छोड़ते समय यह भावना की जाये कि प्राणवायु मेरुदण्ड मार्ग से ऊपर उठती हुई मस्तिष्क के मध्य केन्द्र तक पहुँचती है और वहाँ से वह नासिका द्वारा अनन्त अंतरिक्ष में बिखर जाती है।
यह एक प्राणायाम हुआ। इसमें पूरक, कुम्भक और रेचक तीन ध्यान हैं। तीनों के उद्देश्य हैं- धारण, जागरण एवं संचार। इससे आत्मसत्ता की प्रखरता बढ़ती है और वातावरण के अनुकूलन में सहायता मिलती है।
यह साधना देखने में सामान्य किन्तु परिणाम में असामान्य है। इसमें विशेष महत्व शक्ति-संचार-साधना का है। इसे हिमालय पर अवस्थित अध्यात्म ध्रुव केन्द्र का, महाकाल का अनुदान समझा जाए। (सन् 2000 तक यह विशिष्ट प्राण-प्रवाह सूर्योदय तक निरन्तर चलता रहेगा
प्रज्ञा परिजनों के लिए यह अतिरिक्त अनुदान है )
इस साधना की न्यूनतम अवधि 15 मिनट रखी गयी है। दुर्बल व्यक्ति 10 मिनट ही करें। जो आत्मिक दृष्टि से प्रौढ़ और परिपक्व हैं, वे प्रति सप्ताह एक-एक मिनट बढ़ाते हुए आधा घण्टा तक पहुँचा सकते हैं। अधिक भोजन से उत्पन्न होने वाली हानियों की तरह इस प्राण-संचार-साधना को उपयुक्त सीमा तक सीमित रखने को ही कहा गया है।
विशेष- जनसामान्य के लिए देवात्मा हिमालय से ही प्राण संचार का ध्यान उपयुक्त है। वे साधक जिनकी आस्था पूज्य गुरुदेव के प्रति स्थिर हो चुकी है, वे बड़ी सहजता से युगशक्ति की गंगोत्री शान्तिकुञ्ज से शक्ति-संचार का ध्यान कर सकते हैं। भावनात्मक रूप से हरिद्वार पहुँचने, गंगा स्नान कर, सजल श्रद्धा, प्रखर प्रज्ञा पर नमन, अखण्ड दीप दर्शन, वन्दनीया माताजी से भक्ति और पूज्य गुरुदेव से शक्ति अनुदान पाने का भाव करते हुए सामान्य जप और शक्ति-संचार का ध्यान सम्पन्न कर सकते हैं। सूक्ष्मीकरण के क्रम में पूज्य गुरुदेव ने ही नैष्ठिक साधकों के लिए इस ध्यान का विधान दिया था।