[ सहस्रकुंडी यज्ञ (नवम्बर 1958) के तुरन्त बाद का एक महत्वपूर्ण लेख एक महात्मा की लेखनी से (उसी शीर्षक से )]
प्रस्तुत लेख अखण्ड ज्योति पत्रिका में आज से चालीस वर्ष पूर्व छपा था। उसे पुनः प्रकाशित कर नये पाठकों को इस मिशन की आधारभूत स्थापना के बहुआयामी पक्ष से परिचित कराने का एक विनम्र प्रयास है।
एक मूर्धन्य कवि का कथन है- “महापुरुषों की जीवनियाँ हमें स्मरण कराती हैं कि हम भी अपने जीवन महान बना सकते हैं।” कवि का कथन सत्य से परिपूर्ण है। गाँधीजी जैसी महान आत्माओं के जीवन-चरित्र का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि उनको महानता के पथ पर अग्रसर करने में महापुरुषों की जीवनियों का कितना महत्वपूर्ण हाथ रहा है। जिन महापुरुषों के विचार और कार्य हमारे अनुकूल होते हैं जिनका हम हृदय से सम्मान करते हैं, उनकी जीवन घटनाओं की छाप हमारे मस्तिष्क पर पड़ती है। परम पूज्य आचार्यजी गायत्री तपोभूमि के संस्थापक और अखिल भारतीय गायत्री परिवार के कुलपति हैं। साधना क्षेत्र में उन्हें कहना ही क्या कि कितना आगे बढ़ चुके हैं। चौबीस-चौबीस लक्ष्य के चौबीस गायत्री महापुरश्चरण उन्होंने किये हैं। पूर्वकाल में सवा करोड़ गायत्री जप करने वाले को वशिष्ठ की पदवी प्रदान की जाती थी। उनका इतना सम्मान किया जाता था कि वशिष्ठ ही अयोध्यापुरी के राजाओं के राजगुरु हुआ करते थे जिनकी आज्ञा के बिना राज्य में पत्ता भी नहीं हिलता था, उनके पथ-प्रदर्शन में ही सब कार्य हुआ करते थे। इसका अर्थ यह है कि सवा करोड़ गायत्री जाप के तप के द्वारा आत्मा इतनी महान बन जाती है कि वह व्यक्ति राष्ट्र के नेतृत्व के योग्य बन जाता है। पूज्य आचार्यजी की साधना वर्षा पहले से छह करोड़ के लगभग हो चुकी है। उनकी महानता की नाप वशिष्ठ के आत्म विकास से हो सकती है। इस महान तप के कारण ही उन्हें इस युग का विश्वामित्र कहा जाता है। विश्वामित्र के द्वारा नवीन सृष्टि की रचना हुई मानी जाती है। इसका अभिप्राय यह है कि उन्होंने अपने क्रान्तिकारी विचारों द्वारा एक नये समाज का निर्माण किया था। महर्षि वशिष्ठ गायत्री साधना को केवल ब्राह्मणो तक ही सीमित रखना चाहते थे, परन्तु विश्वामित्र ने जो कि समस्त विश्व के मित्र, स्नेही और हितैषी थे और प्राणी मात्र में परमात्म-तत्व का अनुभव करते थे, इस सीमित अधिकार की दीवारों को तोड़−फोड़ दिया था और महर्षि वशिष्ठ के विचारों के विरुद्ध एक आंदोलन खड़ा कर दिया था। परम पूज्य आचार्यजी ने भी एक नयी सृष्टि की रचना की है, एक नये समाज का निर्माण किया है। समाज को एक नयी मोड़ दी है उसके लिए वह सदैव स्मरणीय रहेंगे। सैकड़ों वर्षा से जिस जाति का इतना पतन हो चुका हो कि उसने उन्हें भजन-पूजन के अधिकारों से वंचित कर रखा हो। ऐसी-ऐसी कपोल कल्पित घोषणाएँ कर दी हों कि कोई स्त्री यदि वेदमंत्र सुन या पढ़ लेगी या गायत्री जाप कर लेगी तो उसके परिवार में महान अनिष्ट होगा । एक से समय में स्त्रियों को जप हवन में भाग लेने का अधिकार देना एक नयी सृष्टि की रचना ही है, क्योंकि पुराने विश्वासों के अंधानुकरण करने वाले पण्डितों के विरुद्ध इस आवाज को उठाना जिन पर हिन्दू जनता गम्भीर आस्था और श्रद्धा रखती है, अद्भुत साहस का काम है। भारतवर्ष में होने वाले हजारों यज्ञों में जो रुकावटें उन लोगों ने डाली है, जनता को इन पवित्र धार्मिक कृत्यों के विरुद्ध उत्तेजित किया, उन्हें हर प्रकार से डराया, धमकाया, शास्त्रों की दुहाई दी, परन्तु सत्य के पुजारी के सामने उनकी कुछ न चली। सैकड़ों वर्षा से जहाँ वेद मंत्र की आहुतियाँ मन में उच्चारण करते हुए दी जाती थीं, वहाँ अब उच्च ध्वनि सुनाई दे रहा है। क्या यह आश्चर्य नहीं है। ?
गायत्री परिवार के कार्यकर्तागण कोई सेठ-साहूकार या बड़े आदमी नहीं हैं, परन्तु उनके माध्यम से देश में एक अद्भुत धार्मिक क्रान्ति हो चुकी है। जितने बड़े और सफल आयोजन पिछले कुछ वर्षा में गायत्री परिवार द्वारा हुए हैं, उतने और किसी भी धार्मिक संस्था द्वारा सम्पन्न नहीं हुए हैं। गुरु गोविन्द ने एक स्थान पर कहा है कि मैं चिड़ियों से बाज़ मरवाऊँगा अर्थात् छोटे दिखने वाले व्यक्तियों से बड़े-बड़े कार्य करवाऊँगा। पूज्य आचार्यजी के सम्बन्ध में भी यही बात सिद्ध होती है, यज्ञायोजन बड़े-बड़े महात्माओं के द्वारा ही सम्पन्न हो सकते हैं, वह कम पढ़े लिखे कम बुद्धि और सामर्थ्य रखने वाले व्यक्तियों से उन्होंने करवाये हैं। क्या यह कम गौरव की बात है ?
आजकल अधार्मिकता, नास्तिकता का विशेष प्रभाव नवयुवकों पर पड़ा है। उनके सामने परमात्मा का कोई अस्तित्व नहीं है और धर्म केवल ढोंग है और धार्मिक कर्मकाण्डों में अपना समय और शान्ति को व्यर्थ खोना है। गायत्री परिवार के प्रतिज्ञाबद्ध चार लाख से अधिक सदस्यों के नाम व आयु देखने से प्रतीत होता है कि वे अधिकाँश नवयुवक हैं। नवयुवकों को धर्म-मार्ग की ओर अग्रसर करना क्या नयी सृष्टि की रचना नहीं है ?
धर्म-प्रचार का उत्तरदायित्व ब्राह्मणों और साधु-महात्माओं पर रहा है। आज ब्राह्मणा ने अपने कर्तव्यों को तिलाञ्जलि दे दी है। 15 लाख साधु समाज पर बोझ बन रहें हैं। गृहस्थों का कार्य इनकी आज्ञाओं व उपदेशों का अनुकरण कर अपने जीवन का निर्माण करना था। परन्तु पूज्य आचार्यजी ने उन्हें वह शक्ति और सामर्थ्य दे दी है कि वह साधारण गृहस्थ होते हुए छोटा सा व्यापार व नौकरी करते हुए सन्त-महात्माओं और ब्राह्मणों जैसे कार्य योग्यतापूर्वक सम्पन्न कर रहें हैं। साधारण बुद्धि से वह आयोजन की इतनी उत्तम व्यवस्था कर लेते हैं कि देखने पर आश्चर्य होता है। आवश्यकता पड़ने पर वह अच्छे प्रवचन दे लेते हैं। कर्मकाण्डी पंडितों से अच्छे यज्ञ करवा लेते हैं। आजकल नवयुवकों को इस ओर लाना ही कठिन है। उनको साधक बनाकर, प्रचारक व उपदेशक बनाना है तो असम्भव-सा ही दीखता है। वे अपने घर, नौकरी व व्यापार कार्यों से समय बचाकर मौहल्ले-मौहल्ले और ग्राम-ग्राम घूमते हैं, कड़ी धूप में पैदल चलते हैं, भूख-प्यास सहन करते हैं। अपना धन व्यय करके साहित्य वितरण करते हैं, शाखा स्थापित कराने, यज्ञ कराने, व्यसन छुड़वाने, नये गायत्री उपासक आदि की प्रतिज्ञाएँ लेकर घी, शक्कर, नमक, एक समय का भोजन आदि त्याग कर, ब्रह्मचर्य पालन, भूमिशयन, बाल न कटवाना आदि के व्रत लेकर समाज कल्याण आदि लिए अपने आपको अर्पित करते हैं। क्या यह नई सृष्टि की रचना नहीं है ?
पूज्य आचार्यजी का जीवन आश्चर्यों से भरा हुआ है। उन्होंने स्वयं एक पुस्तक में लिखा है कि वेदमाता की कृपा से उन्हें थोड़े समय में इतना ज्ञान प्राप्त हुआ है कि जितना एक साधारण व्यक्ति को 100 वर्षों में प्राप्त होना सम्भव नहीं था। गायत्री तत्त्वावधान के सम्बन्ध में जितनी खोज उन्होंने की है, उतनी आज तक किसी ने नहीं की होगी। गायत्री सम्बन्धी रहस्यों का उद्घाटन जितना उन्होंने किया है, उतना अभी किसी ने नहीं किया। उनके समान गायत्री साधना और तप करने वाला भी कोई दिखाई नहीं देता। अध्यात्म ज्ञान सम्बन्धी अगणित पुस्तकें उन्होंने लिखी हैं। 1956 में दस हजार साधकों से 24-24 गायत्री जाप के अनुष्ठान करवा कर 108 कुण्डीय यज्ञ करवाया था। पाँच वर्ष के थोड़े से समय में देश के कोने कोने में गायत्री यज्ञ भारतीय संस्कृति का प्रसार किया है। 4000 गायत्री परिवार की शाखाएँ स्थापित कराकर उन क्षेत्रों में धार्मिक जागृति की गंगा बहा दी। कलियुग के समय में जब लोग धर्म से चिढ़ते हैं सवा लक्ष साधकों से सवा लाख के गायत्री अनुष्ठान करवाना 52 उपवास करवाना, वर्ष भर तक ब्रह्मचर्य का पालन कराना और उसके पश्चात् उनके अनुष्ठान की पूर्णाहुति के रूप में एक हजार कुण्डों का गायत्री महायज्ञ सम्पन्न करना क्या कम चमत्कार की बात है, जिसमें जनता से एक पैसा भी न माँगा गया हो। सभी लोग दाँतों तले उंगली दबाकर रह गये। कंस ने जब पूजा पर अत्याचार आरम्भ किया था एक ग्वाले से सब दूध लेना शुरू कर दिया था कि प्रजा का कोई व्यक्ति दूध न पिये-भगवान कृष्ण ने उसके विरोध में