जप के साथ पयःपान की ध्यान धारणा भी

January 1996

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आत्म कल्याण के लिए गायत्री की प्रज्ञा उपासना- साधना अनिवार्य मानी गयी है और कहा गया है कि प्रातःकाल दैनिक क्रिया कृत्यों से निवृत्त होकर एक बार महा यज्ञ की उपासना नित्य ही करनी चाहिए। संभव हो सके तो शाम को भी करनी चाहिए। शाम को एक माला आत्मकल्याण की करने से भी काम चल सकता है। आत्म शुद्धि पाँच संध्या विधान और सप्त विधि पूजा सायंकाल को ही करनी चाहिए। घर के अन्य लोगों को भी, स्त्री बच्चों को भी यह प्रेरणा देनी चाहिए कि वे पूजा स्थलों के समीप बैठकर कम से कम एक माला गायत्री मंत्र की सभी कर लिया करें। सप्त विधि पूजा एक बार कर ली गयी हो तो बार बार करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। घरों में पूजा स्थलों की स्थापना-उसके निकट बैठकर पूजा, उपासना का क्रम हर सद्गृहस्थ को अपने यहाँ चलाना चाहिए। स्वयं तो नियमित उपासना करनी चाहिए। प्रयत्न यह भी करना चाहिए कि बैठकर थोड़ी बहुत उपासना अवश्य कर लिया करें। घर में आस्तिकता का भक्ति भावना का वातावरण रहना परिवार की भावनात्मक समृद्धि और आत्मिक शुद्धि के लिए अति आवश्यक है।

आत्म कल्याण के लिए गायत्री महामंत्र की पहली एक माला जप करते समय अपने को एक वर्ष के छोटे बालक के रूप में अनुभव करना चाहिए और सर्वशक्ति मान गायत्री माता के गोद में खेलने, क्रीड़ा कलोल करने की भावना करनी चाहिए। उनका पयपान करते हुए अनुभूति जगानी चाहिए कि इस अमृत दूध के साथ मुझे आदर्शवादिता, उत्कृष्टता, ऋतम्भरा -प्रज्ञा, सज्जनता और सदाशयता जैसी दिव्य आध्यात्मिक उपलब्धियाँ उपलब्ध हो रही है। अतः इसके माध्यम से अपना अंतःकरण एवं व्यक्तित्व महान बनता चला जा रहा है।

ध्यान का स्वरूप नीचे दिया जा रहा है।

( 1) प्रलय के समय बची हुई अनन्त अनन्त जलराशि में कमल के पत्ते पर तैरते हुए बाल भगवान का चित्र बाजार में बिकता है। वह चित्र खरीद लेना चाहिए, और उसी के अनुरूप अपनी स्थिति अनुभव करनी चाहिए। इस संसार से ऊपर नीले आकाश और नीचे नीले जल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। जो कुछ भी दृश्य पदार्थ इस संसार में थे वे इस प्रलय काल में ब्रह्म के भीतर तिरोहित हो गये। अब केवल अनन्त शून्य बचा है। जिसमें नीचे जल और ऊपर आकाश के अतिरिक्त और कोई वस्तु शेष नहीं। यह उपासना भूमिका वातावरण का स्वरूप है। पहले इसी पर ध्यान एकाग्र किया जाये।

( 2) मैं कमल पत्र पर पड़े हुए एक वर्षीय बालक की स्थिति में निश्चिन्त भाव में पड़ा क्रीड़ा कलोल कर रहा हूँ। न किसी की बात की चिंता है, न आकाँक्षा और न आवश्यकता। पूर्णतया निश्चिन्त, निर्भय, निर्द्वन्द्व निष्काम जिस प्रकार छोटे बालक की मनोभूमि हुआ करती हैं, ठीक वैसी ही अपनी है। विचारणा का सीमित क्षेत्र एकाकीपन के उल्लास में ही सीमित है। चारों ओर उल्लास एवं आनन्द का वातावरण संव्याप्त है। मैं उसी की अनुभूति करता हूँ और परिपूर्ण तृप्ति एवं संतुष्टि का आनन्द ले रहा हूँ।

( 3) प्रातःकाल जिस प्रकार संसार में अरुणिमा युक्त स्वर्णिम आभा के साथ भगवान सविता अपने समस्त वरेण्य, दिव्य, भर्ग, ऐश्वर्य के साथ उदय होते हैं उसी प्रकार उस अनन्त आकाश की पूर्व दिशा में ब्रह्म की महान शक्ति गायत्री का उदय होता है। उसके बीच अनुपम सौंदर्य से प्रतिमा जगद्घातृ गायत्री माता प्रकट होती है। वे हँसती मुस्कुराती अपनी ओर बढ़ी आ रही है। हम बाल सुलभ किलकारियाँ लेते हुए उनकी ओर बढ़ते चले जाते हैं। दोनों माता पुत्र आनन्द युक्त मिलन से आबद्ध होते हैं और अपनी ओर से असीम वात्सल्य की गंगा यमुना प्रवाहित हो उठती हैं। दोनों का संगम परम पावन तीर्थराज बन जाता है।

माता और पुत्र के बीच क्रीड़ा कलोल भर स्नेह वात्सल्य का आदान प्रदान है। उसका पूरी तरह ध्यान ही नहीं, भावना भूमिका में भी उतरना चाहिए। बच्चा माँ के बाल, नाक आदि पकड़ने की चेष्टा करता है, मुंह, नाक में उँगली देता है, गोदी में ऊपर चढ़ने की चेष्टा करता है, हँसता, मुस्कुराता और अपने आनन्द की अनुभूति उछल उछलकर करता हैं- वैसी ही स्थिति अपनी ही अनुभव करनी चाहिए। माता अपने बालक को पुकारती हैं, उसके सिर, पीठ पर हाथ फिराती हैं, गोदी में उठाती, छाती से लगाती, दुलराती हैं, उछालती हैं, वैसी ही चेष्टायें माता की ओर से प्रेम उल्लास के साथ हँसी मुस्कान के साथ की जा रही है, ऐसा ध्यान करना चाहिए।

स्मरण रहें केवल उपयुक्त दृश्यों की कल्पना करने से ही काम न चलेगा वरन् प्रयत्न करना होगा कि वे भावनायें भी मन में उठें, जो ऐसे अवसर पर स्वाभाविक माता पुत्र के बीच उठती हरती है। दृश्य की कल्पना सरल हैं पर भाव की अनुभूति कठिन है। अपने स्तर को वयस्क व्यक्ति के रूप में अनुभव किया गया तो कठिनाई पड़ेगी, किंतु यदि सचमुच अपने को एक वर्ष के बालक के रूप में अनुभव किया गया तो जिसको माता के स्नेह के अतिरिक्त और कोई भी प्रिय वस्तु होती ही नहीं, तो फिर विभिन्न दिशाओं में बिखरी हुई अपनी भावनायें एकत्रित होकर उस असीम उल्लास भरी अनुभूति के रूप में उदय होती हैं। प्रौढ़ता को भुलाकर शैशव का शरीर और भावना स्तर कर सकना यदि संभव हो सका तो समझना चाहिए कि साधक ने एक बहुत बड़ी मंजिल पार कर ली।

म्न प्रेम का गुलाम है। मन भागता है और उसके भागने की दिशा अप्रिय से प्रिय भी होती है। जहाँ प्रिय वस्तु मिल जाती हैं वहाँ वह ठहर जाता है। प्रेम ही सर्वोपरि प्रिय हैं जिससे भी उसका मन हो जाय वह भले ही कुरूप या विरूप भी हो लगता परम प्रिय है। मन का स्वभाव प्रिय वस्तु के आस पास मँडराते रहने का है। उपयुक्त ध्यान साधना गायत्री माता के प्रति प्रेम भावना का विकास करना पड़ता है फिर उसका सर्वांग सुन्दर स्वरूप भी प्रस्तुत हैं। सर्वांग सुन्दर -प्रेम की अधिष्ठात्री गायत्री माता के चिंतन करने से मन उसी परिधि में घूमता रहता है। उसी क्षेत्र में क्रीडा कलोल करता है। अतएव मन को रोकने, वश में आवश्यकता करने की एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक साधना भी इस साधन के माध्यम से पूरी हो सकती है।

इस ध्यान धारणा में गायत्री माता को केवल एक नारी मात्र नहीं माना जाता हैं वरन् सत् चित् -आनन्द स्वरूप-समस्त सद्गुणों सद्भावनाओं का प्रतीक, ज्ञान विज्ञान का प्रतिनिधि और शक्ति सामर्थ्य का स्रोत मानते हैं। प्रतिमा नारी की भले ही हो पर वस्तुतः वह ब्रह्म चेतना क्रम दिव्य ज्योति बनकर ही अनुभूति में उतरे।

जब माता के स्तन पान का ध्यान किया जाये तो यह भावना उठनी चाहिए कि “ दूध एक प्रकार का दिव्य प्राण है जो माता के वक्ष स्थल से निकल कर मेरे द्वारा उदर में जा रहा है। और वहाँ एक धवल विद्युत धारा बन कर शरीर के अंग प्रत्यंग रोम रोम में ही नहीं वरन् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, हृदय, अंतःकरण, चेतना एवं आत्मा में समाविष्ट हो रहा है॥। स्थूल, सूक्ष्म कारण शरीरों में अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, विज्ञान मय कोश, आनन्दमय कोशों में समाये हुए अनेक रोग शोकों का कषाय, कल्मषों का निराकरण कर रहा है। यह पय पान का प्रभाव कायाकल्प कर सकने वाली संजीवनी रसायन जैसा हो रहा है। मैं नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, अणु से विभु, क्षुद्र से महान और अणु से परमात्मा के रूप में विकसित हो रहा है। ईश्वर के समस्त सद्गुण धीरे धीरे व्यक्तित्व का अंग बन रहें है। मैं द्रुतगति से उत्कृष्टता की ओर अग्रसर हो रहा हूँ। मेरा आत्म बल असाधारण रूप से प्रखर हो रहा हैं यह ध्यान एक ऐसी स्नायुक्त स्थान की उत्तेजना भरी प्रक्रिया उत्पन्न करता है जिससे अन्दर के शक्ति स्रोत खुलते जागृत होते एवं अनन्त आनन्द का निर्झर फूट पड़ता है। हम करके तो देखें फिर बहिरंग का आदि हमें निस्सार जान पड़ेगा।


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