परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

January 1996

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(वसंत पर्व 1981 पर शाँतिकुँज परिसर में दिया गया प्रवचन)

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ-

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियों ! भाइयों !!कैसा शुभ अवतरण का दिन रहा होगा वह जिस दिन भगवती सरस्वती ने अवतरण लिया होगा इस धरती पर। भगवती सरस्वती हम देखें, प्रकृति के अंतर्गत वसंत के रूप में। पदार्थों में एक उल्लास आता है, उमंगे आती है, पत्तों झड़ते हैं और फूल खिलते हैं। बच्चों में हम देखते हैं कि वसंत किस तरीके से हँसता और मुस्कुराता है। कोयल को देखते हैं, भौंरों को देखते हैं, दूसरे प्राणियों में देखते हैं, थिरकन और पुलकन किस प्रकार दिखाई पड़ती है।

वसंत के दिनों में हर प्राणी में एक उल्लास और उमंग दिखाई पड़ती है। सृष्टि का सृजन क्रम इन दिनों ज्यादा होता है। मनुष्यों में भी वसंत क्रम इस प्रकार आता है कि उमंग और उत्फुल्लता पैदा होती है। इस रूप में भगवती सरस्वती ने इस धरती पर अपनी खुशी की, उत्साह की तरंगें पैदा की है।

आज से बहुत दिनों पहले कैसा शुभ दिन रहा होगा, जिसे हम भगवती सरस्वती के अवतरण के दिन ज्ञान के अवतरण का दिन कहते हैं। मनुष्य के अन्दर भगवती सरस्वती आयी होंगी ज्ञान के रूप में। मनुष्य कभी असभ्य रहा होगा, वनमानुषों की तरह रहा होगा, दूसरे प्राणियों से कहाँ कमजोर और दुर्बल रहा होगा।

वह कुत्ते की तरह से दौड़ नहीं सकता, हिरण की तरह कुलाचें नहीं भर सकता, बन्दर की तरह उछल कर छलाँग पेड़ पर नहीं लगा सकता, पक्षियों की तरह उड़ान नहीं भर सकता, मछली की तरह पानी में तैर नहीं सकता। इस तरह की सामर्थ्य उसमें नहीं है। आदमी बहुत कमजोर है। इतना कमजोर होते हुए भी वह विकसित होता चला बया। आज प्राणियों का ही नहीं, सृष्टि का स्वामी होने का दावा करता है। मनुष्य यह कैसे हो गया ? वह उसकी बुद्धि का चमत्कार, विचारों के चमत्कार का प्रतिफल है।

कैसा वह सौभाग्य का दिन रहा होगा, जब अन्य प्राणियों की तुलना में बुद्धि विकसित हुई होगी, जिसकी हम खुशी मनाते हैं। आनन्द मानते हैं कि हमें वन मानुष से मनुष्य बनाने का वसंत बड़ा ही महत्वपूर्ण है। भगवती सरस्वती की कृपा से हमें भगवान विचारणा प्राप्त हुई। इसे दूसरे नामों से पुकारते है-विद्या-शिक्षा भी कहते हैं। यह खुशी इसी दिन हर साल मनाते हैं। वहाँ सरस्वती की वंदना करते हैं। यह परम्परा बहुत दिनों से चली आ रही है। हम भी उसके अंतर्गत यह पर्व मनाते हैं ज्ञान प्रेमी के तरीके से, विद्या प्रेमी के तरीके से, लेकिन अपने वसंत पर्व की कुछ विशेषता है।

हमारे व्यक्तिगत जीवन में एक वसंत आया था, आज से लगभग 55 वर्ष पूर्व, जिसमें सामान्य पतझड़ जैसे, एक ठूँठ जैसे इंसान में नवीन पल्लव आ गये, नया उत्साह आ गया।

एक छोटे से देहात में रहने वाले लड़के के समक्ष वसंत पर्व के दिन एक दैवी शक्ति आई, उससे बातचीत हुई। उस दैवी शक्ति ने कहा- तुम से हमें कुछ विशेष काम कराने हैं, बड़े काम कराने है, तुम्हें सामर्थ्य बनाना है। हमने कहा आप बनाइये। मजबूत बनने के लिए ताकतवर बनने के लिए हम तैयार है। समर्थ बनने के लिए ताकतवर आदमी की आवश्यकता पड़ती है। आप हमें योग्य बनाइये।

उनके साथ बातचीत शुरू हो गयी। जिन्हें मैं बाँस, मार्गदर्शक गुरु कहता हूँ -ठीक व वसंत पर्व के दिन आये थे, एक छोटे से कमरे में। तब हमारी उम्र 15 वर्ष की ही रही होगी। हमने पूछा आप क्या सहायता करेंगे ?उन्होंने कहा हम एक ही सहायता करेंगे, तुम्हारी कामनाओं और भावनाओं को बदल देंगे। कामनाएँ किसे कहते हैं, कामनाएँ उसे कहते हैं, जिसके बारे में हम कह रहें थे। यह दो है पर एक पेट की भूख है, जो पेंडुलम की घड़ी के तरीके से खट खट, खट खट चलती रहती है। यह रोटी माँगती है। रोटी की भूख का परिष्कृत रूप वह है, जिसे जीभ कहते हैं। जीभ का इच्छुक प्राणी इकट्ठा करना चाहता है, बड़ा आदमी बनाना चाहता है, सेठ बनना चाहता है। अन्य प्राणी पेट भरना चाहते हैं।

दूसरी वृत्ति प्राणियों की यह होती है। कि वह जोड़े के साथ रहना चाहता है। इंसान में उसका रूप कुछ विकसित हो गया है। विकसित रूप यह है कि विवाह शादियों की बात करता है। दूसरे प्राणियों में यह बात नहीं बनती। वहाँ सिर्फ चयन होता है। चयन के बाद मिलन। दोनों के मिलने से बच्चे पैदा होने लगते हैं। दोनों की मोहब्बत बच्चों को मिलने लगती है, तत्पश्चात कोई भी उनसे अलग रहना पसन्द नहीं करता। इसे मोह कहते हैं।

मित्रों ! प्रत्येक प्राणी के भीतर लोभ- मोह विकसित होते चले जा रहे है। प्रकृति की दी हुई प्रत्येक प्राणी के भीतर दो ही चीजें है, जिसे हम लोभ और मोह कहते हैं। जानवरों के अन्दर उसे पेट और प्रजनन कह सकते हैं। , अतः पेट और प्रजनन का विकसित रूप लोभ एवं मोह है। इन्हें ही कामना कहते हैं। इन कामनाओं की लोग तरह तरह की गुत्थियाँ बनाते रहते हैं।

कामनाओं के स्थान पर दूसरी चीजों की जरूरत है, अगर आदमी अपने आप को विकसित बनाना चाहता है तब। बड़ा आदमी होना चाहता हो, सुसंस्कृत होना चाहता हो, मजबूर होना चाहता हो, देवता होना चाहता हो तो उसे पात्रता सिद्ध करनी होगी। उसे अपनी कामना को बदल करके भावना में विकसित करना होगा। कामना वह होती है जो शरीर से ताल्लुक रखती है।

मित्रो! मैं आप से लोभ-मोह यानि वासना तृष्णा का जिक्र कर रहा था। ये चीजें आदमी के शरीर से संबंध रखती है शरीर में आदमी जब विकसित होता है तो उसके अन्दर दूसरी तरह की भूख उत्पन्न हो जाती है। वह भूख जीवात्मा की होती है। जीवात्मा की जो भूख है उसे हम भावना कहते हैं। हमारे गुरु ने कहा है कि तुम्हें भावना के क्षेत्र में प्रवेश तथा विकसित होना चाहिए और कामनाओं को ऊँचा उठाना चाहिए।

कामनाओं को छोटा नहीं कहा जा सकता, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि हमारे पास शरीर है। शरीर को जिन्दा रखने के लिए दूसरी चीजों की भी आवश्यकता पड़ती है। पेंट भरने के लिए रोटी कमाने की जरूरत पड़ती है, लेकिन हर चीज की एक मात्रा है। पेट भरने के लिए मुट्ठी भर अनाज चाहिए। मनुष्य कम खर्च में भी अपने कुटुम्ब को सुसंस्कृति बना सकता है। नहीं हम अपने बच्चों को सुसंस्कारी बनाने के लिए पब्लिक स्कूलों में भर्ती कराना चाहते हैं। कितने बच्चे है आपके ? तीन बच्चे है। आपको 2400 रुपये देना चाहिए। आपकी बात भी ठीक हो सकती है, अगर हमारे अन्दर सुसंस्कारिता हो तो हम कम पैसे में ही काम चला सकते हैं ? बिनोवा भावे की माँ की तरह से। बिनोवा भावे की माता का मन था कि उसके बच्चे सुयोग्य और सुसंस्कारी बने। बच्चों को आगे बढ़ाने तथा पढ़ाने के लिए पैसों की जरूरत पड़ती है। नहीं पैसों की नहीं, सुसंस्कारों की आवश्यकता पड़ती है, जिसका मन भावना है। अगर सुसंस्कारी हो तो कोई महिला बच्चों को ब्रह्मज्ञानी बना सकती है। बिनोवा भावे की माँ सुसंस्कारी थी अतः उसने तीन बच्चों को पैदा किया तथा तीनों को महान बना दिया। एक का नाम ‘ बिनोवा’, दूसरे का नाम ‘वाल्कोवा’, तीसरे का नाम बिठोवा। तीनों बच्चे ब्रह्मज्ञानी, ब्रह्मचारी संत बन गये तथा समाज के काम आ गये। क्यों साहब पैसे की जरूरत पड़ी, नहीं भाई साहब पैसों की जरूरत नहीं पड़ती।

शकुन्तला जब कण्व ऋषि के आश्रम में पाली पोषी गयी थी, तो कण्व ऋषि के पास कितना पैसा था ? नहीं भाई साहब कुछ नहीं था। शकुन्तला को सुसंस्कारों का वातावरण मिला था, जिसके द्वारा उसने अपने बच्चों को ‘भरत’ बना दिया।

सीता के जब लव-कुश पैदा हुए थे, तो सीता वाल्मीकि के आश्रम में थी। वहाँ क्या सुविधा व क्या व्यवस्था थी आप बता सकते हैं ?नहीं कोई सुविधा नहीं थी॥ इंसान को विकसित करने के लिए भावना की जरूरत है। शरीर को पोषण देने सुन्दर बनाने, सुखी बनाने के लिए कामनाओं की भी जरूरत हो सकती है, जिसको आप दौलत कह सकते हैं, सुविधा कह सकते हैं, लेकिन आत्मा को विकसित करने के लिए दौलत की कोई खास जरूरत नहीं है॥ हम ऋषियों के तरीके से सन्तों के तरीके से कुटुम्ब का पालन करते हुए बड़ी आसानी से जी सकते हैं एवं बड़ी आसानी से शाँति से गुजारा कर सकते हैं, लेकिन हम क्या करें ? एक हविश हमारे ऊपर ऐसी हावी हो गयी है, जिसको हम एक तरह से नशा कही सकते हैं, जिसकी न जरूरत है, न आवश्यकता। यह जब हमारे दिमाग पर हावी होती है, तो पूरी तरह से जकड़ लेती है, तो बुरी तरह से जकड़ लेती है, समझदारों को पकड़ लेती है, हाथ पाँव को पकड़ लेती है, चप्पे चप्पे को पकड़ लेती है।

आज वसंत के दिन जिसे मैं अपना सौभाग्य दिन मानता हूँ, हमारे गुरु ने कहा - तुम्हें अपने आप को कामनाओं की दिशा से मोड़कर दूसरी दिशा में बढ़ना चाहिए। तुम्हें अपने चिंतन की दिशा धारा को दूसरी दिशा में मोड़ देना चाहिए। उस दिन से उनकी जो इच्छा, वह हमारी इच्छा। उस दिन से हमारा सौभाग्य उदय हो गया। मैं तब से क्रमशः मजबूत होता चला गया।

उन्होंने कहा सिद्धाँतों का पालन करने के लिए आदमी को कठोर होना चाहिए, बलवान होना चाहिए, मजबूत होना चाहिए। मजबूती आयेगी, तो हम जो दूसरी चीज देना चाहते हैं, उसे पाने के हकदार हो जाओगे। तभी से हमने अपनी भावना को परिपक्व करने के लिए, मजबूत करने के लिए संकल्प किया। उन्होंने जो संकल्प दिया, उसे जीवन भर निबाहा। संकल्प छोटा सा था। उन्होंने कहा तुम्हें 24 साल तक जौ और छाछ की रोटी पर निर्भर रहना होगा। खानें के संदर्भ में, जीभ के संदर्भ में दो ही चीजें इस्तेमाल करनी होंगी, तीसरी नहीं। जीभ पर हुकूमत कर सकते हो ? हमने कहा -हाँ ! जीभ पर जो दिमाग हुकूमत करता है, उसे चलायमान करता है, उस पर हुकूमत कर सकते हो ?हमने कहा - हाँ, हम जीभ और दिमाग दोनों पर हुकूमत कर सकते हैं। हमने दिमाग पर नियंत्रण किया। जिन लोगों को खाते देखा, दिमाग ने कहा- हमें भी चाहिए। सब लोग बड़े मजे में खाते हैं, पसन्द करते हैं आपको भी खाना चाहिए। हमने दिमाग से कहा आप हमारे है या हम आपके हैं? दिमाग ने कहा हम तो आपके है। हमने कहा तब तो आपको हमारी बाते और हमारा कहना मानना चाहिए। उसे समझा दिया- जो स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक है, वही हमें करना चाहिए। जीभ की आज्ञा हमने नहीं मानी। कहा - हमारे गुरुदेव की आज्ञा है आदर्श सिद्धाँतों को उनकी आज्ञा बड़ी जबरदस्त है, उसे हमें माननी चाहिए। इस प्रकार क्रमशः हमारे संकल्प मजबूत होते चले गये और हम संकल्पवान बनते चले गये।

सिद्धांतों का पालन करने में अपनी कमजोरियाँ कैसे तंग करती है? अपने पड़ोसी कैसे तंग करते हैं? रिश्तेदार खानदान कैसे तंग करते हैं, 24 साल के इस अंतराल में हमने जाना। दुनिया अपने साथ न चलने वालो का कैसा मजाक उड़ाती है, कैसा बेवकूफ बनाती है, उपहास करती है, यह भी हमने देखा परन्तु मैं क्या कर सकता था? कुटुम्बियों से लोहा लिया, मोहल्ले वालों से लोहा लिया, मंच के साथ लोहा लिया, इन्द्रियों के साथ लोहा लिया, परिवार वालों के साथ लोहा लिया। हर एक से टक्कर लेते लेते आज हमारा सौभाग्य उन्होंने हमें लोहा का बना दिया यह क्या चीज थी? भावना थी। किसने दी? हमारे गुरुदेव ने दी। इसको मैं वसंत कहता हूँ। जब से होश सँभाला तब से अबतक 55 वसंत देखे। यह हमारा 56वाँ वसंत पर्व है। 70 साल का मैं हो गया हूँ। इसमें तो 14 वर्ष को मैं नहीं जानता, क्योंकि उस समय हमारा संबंध पारस से नहीं हुआ था। उस समय तक तो हम साधारण इंसान की तरह रहते थे। परन्तु जब हमने 15 वर्ष के बाद पारस को छूना प्रारम्भ किया, तो हमारी शक्ल बदल गयी। शक्ल का मतलब है हमारा ईमान, हमारा दृष्टिकोण, हमारा चिंतन। दूसरे आदमी जैसा विचार करते हैं वैसा मैं नहीं करता॥। दूसरे आदमी की जैसी आकाँक्षाएँ है वैसी मेरी नहीं है। वे जिस दृष्टिकोण के आधार पर फैसले करते हैं, मैं उस आधार पर फैसला नहीं करता। यह क्या हुआ पारस को छू जाना हुआ फ यह मेरा सौभाग्य है कि मैं पारस को छू गया। मैं कौन ? लोहा। वसंत मेरे जीवन में आ गया। पतझड़ पर सिद्धाँतों के, आदर्शों के, मर्यादाओं के, संकल्पों के जो वसंत के कोमल और पत्ते आये थे आज से 55 वर्ष पूर्व यह मेरा सौभाग्य था। आज तो इसमें फूल आ रहे है, और न जाने क्या क्या चीजें आ रही है, उन संकल्पों के कारण, कामना को भावना में बदल देने के कारण कि मैं क्या कहूँ। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। इसे मैं भगवती सरस्वती का वरदान मानता हूँ। कि मुझ ठूँठ जैसे व्यक्ति में पल्लव पैदा कर दिये। कौन सी चीज आ गयी ?बहुत सी चीज आ गई। कोयल आ गई बौर को देखकर। भौंरे आ गये गीत गाने, खिले हुए फूलों को देखकर। कितने आदमी आ गये फूलों को देखकर कि मैं क्या बताऊँ। बच्चों ने ललचाई आँखों से फूलों को देखा। हर एक ने इसे देखा और पसन्द किया। यह मैं अपने जीवन की बात बता रहा हूँ, अपने सौभाग्य की बात बता रहा हूँ, अपने वसंत की बात बता रहा हूँ। यह वसंत एक से एक बढ़ते चले आये मेरे जीवन में। आज 56 वें वसंत के दिन आप और हम मिलकर खुशी मना रहे है। इसका आयोजन संपन्न करने के लिए आप और हम बैठे हुए है। इसमें आप भी खुश हैं और हम भी खुश है, वसंत के पेड़ भी खुश है पत्ते भी खुश है-कोयले, भौंरे, इंसान सभी खुश है। इसमें एक तीसरी धारा और भी मुड़ जाती हैं तीसरी धारा प्रकृति का समस्त सृष्टि में अवतरण। दूसरी धारा हम जैसे नाचीज के जीवन में वसंत की उमंगे, वसंत की भावना। एक और भी वसंत आ गया। भगवान की इस सुन्दर सृष्टि को हम नष्ट नहीं होने देंगे। भगवान ने इसे बड़े परिश्रम से बनाया है। हमने भूगोल पढ़ा है, भूगोल विद्या पढ़ी है। हमने देखा है कि यह दुनिया जिसमें हम और आप है। सबसे सुन्दर, बढ़िया और खूबसूरत है और ऐसा मालूम पड़ता है, मानो भगवान ने बड़ी समझदारी के साथ इस सृष्टि को बनाया है। इसमें उनकी बड़ी बड़ी तमन्नाएँ और उम्मीदें हैं।

इस धरती पर जब कभी भी असंतुलन आता है, भगवान अपनी सृष्टि को संभालने के लिए अपने वासंती खिलौने इस धरती पर भेजते हैं। क्या भगवान व्यक्ति के रूप में आते है? उन्हें धारण करते हैं, क्या क्या चीजें आती है उमंगे आती है प्रकृति में और ढेरों ढेरों आदमी लग जाते हैं। नेतृत्व कौन करता है? मैं नहीं जानता। श्रेय किसे मिलता है? यह मैं नहीं जानता। क्या हवा आती है जो एक आदमी को अवतार बनने का श्रेय दे दें वास्तव में यह असंख्यों का अवतार बना देती है। भगवान राम को हम श्रेय देते हैं, परन्तु क्या अकेले राम की बात थी ? केवट, भील से लेकर गिलहरी तक, गीध से लेकर रीछ, वानरों तक सबके भीतर एक उमंग थी - हम सृष्टि का संतुलन बनाये रखने के लिए अनाचार के विरुद्ध लोहा लेंगे। गिलहरी जिसकी कोई हैसियत नहीं, एक ढेला मारने पर मर जाती है, वह कहती है कि हम लोहा लेंगे। यह कौन कहता था ? अवतार कहता था। अवतार शरीर धारी को व्यक्ति को नहीं कहते, एक तरंग को कहते हैं जो उठती है और मनुष्य के पर छा जाती है। अवतार बहुत बार आये। राम के जमाने में आये, कृष्ण के जमाने में आये। उस समय छोटे छोटे आदमी ग्वाल बाल गोवर्धन उठायेंगे ? क्यों जोखिम उठायेंगे? परन्तु अवतार कहता था कि आपको करना चाहिए। उन छोटे छोटे लोगों में उमंगे थी उन्होंने वैसा किया। इस प्रकार जब भी कोई अवतार आयें होंगे, ऐसे ही हजारों लाखों व्यक्ति के भीतर हूक आयी होगी। क्या भगवान बुद्ध ने दुनिया पलट दी थी ? आपने देखा नहीं ? उनके साथ ढेरों ढेरों आदमी जुड़े थे। उनके परिव्राजक नालन्दा ओर तक्षशिला विश्व विद्यालय में शिक्षण प्राप्त करने के पश्चात बिखर गये थे। रेगिस्तान को पार करते हुए मंचूरिया, मंगोलिया तथा चीन जा पहुँचे। कौन ? भगवान बुद्ध ?हाँ भगवान बुद्ध। एक लाख नर एवं एक लाख नारियाँ अपने घरों को छोड़कर भिक्षु बन गये थे। लोगों ने कहा वे पागल हो गये हैं। उसकी उन्होंने चिंता नहीं की। धर्म की स्थापना और अधर्म के उन्मूलन के लिए जो हूक उठती अवतार उसी को कहते हैं। गाँधी जी भी अवतार थे - यह मत कहिए। गाँधी जी स्वराज्य अकेले लेकर नहीं आ गये। उनके लाखों सत्याग्रहियों की हूक थी, जिसके कारण स्वराज्य प्राप्त हुआ। हूक को ही अवतार कहते हैं। मेरी बात समाप्त।


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