अजब तेरी दुनिया, हे मेरे राम !

January 1996

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मनुष्य ने अनेक आविष्कार किये हैं। आज के इस वैज्ञानिक युग में वह सर्वत्र ने का दम भी भरने लगा हैं, लेकिन अभी तो सृष्टि के आँचल में कितनी ही ऐसी रहस्य मय घटनायें विद्यमान है, जिसका रहस्य वह नहीं जान पाया है। संसार में फैली यत्र तत्र यह रचनायें अभी भी हमारे लिए एक अनबूझ पहेली बनी हुई है। ‘ ग्रेट मिस्ट्रीज “ अनआक्सप्लेन्ड ‘ ‘मिस्टीरियस नॉलेज’ ‘मिस्ट्रीज ऑफ माइण्ड’ ‘ स्पेस एण्ड टाइम’ आदि पुस्तकों में इस तरह की सैकड़ों पुस्तकों का वर्णन है। जो पृथ्वी पर एवं उसके गर्भ में, समुद्र एवं आकाश में स्थित है, जिनके बारे में अभी तक कुछ भी नहीं जाना जा सका है।

समुद्र को ही ले लो 68 करोड़ वर्गमील जितनी जलराशि के ऊपरी सतह वाले प्रशाँत महासागर के मध्य दक्षिणी अमेरिका से कोई 2300 मील की दूरी पर पोलोनेशिया के सुदूर पूर्व में स्थित एक अति रहस्यमय द्वीप समूह है। यूरोपीय अन्वेषकों ने इसका नामकरण ‘ईस्टर आइलैण्ड‘ किया है। पुरातत्व विदों के लिए आज भी यह एक अबूझ पहेली बना हुआ है।

प्राचीन काल में इस स्थान को पृथ्वी की नाभि कहा जाता था। इस स्थान का स्थानीय नाम ‘ के-पिटो-आ-टे-हुनेआ ‘ है। प्रशाँत महासागर का यह द्वीप, ज्वालामुखी पहाड़ों के शृंग स्वरूपों में एक बिन्दु मात्र है। इसकी सर्वप्रथम खोज सन् 1772 में डच अन्वेषक जेकब रोगेवीन ने की थी। उन्होंने ही इसका नामकरण’ ईस्टर द्वीप ‘ रखा था, क्योंकि इसाइयों के पावन पर्व ईस्टर के दिन ही उसने यहाँ पर अपना पैर रखा था। इस द्वीप में अनेकों विशाल काय पाषाण भू तीर्थों को देखकर हर कोई आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहता। यहाँ के आदि निवासी भी इस बारे में कुछ नहीं जानते। अन्वेषणकर्ताओं का कहना हैं कि किसी समय यह स्थान उन्नत सभ्यता का केन्द्र था अन्यथा जिस तरह से ये विशालकाय शिलाखण्ड मूर्तियों के शक्ल में स्थापित हैं, यों ही बेतरतीब ढंग से पड़े होते हैं। उनके अनुसार ऐसी मूर्तियाँ 600 से अधिक संख्या में पायी गयी। जिसमें -रानारोराकु’ ज्वालामुखी के पास खड़ी हुई एक विशालकाय शिलाखण्ड से बनी एकात्मक, मूर्ति 33 फीट ऊँची है। इसका वजन लगभग 90 टन है। बताया जाता है कि 33 फीट ऊँचाई वाले इस प्रस्तर मूर्ति के सिर पर ग्रेनाइट पत्थर की 12 टन वजनी नलकाकार एक कलगी लगी हुई थी जो 6 फुट ऊँची और 8 फीट चौड़ी थी। इस प्रस्तर प्रतिमाओं के अतिरिक्त पक्की सड़कें, अनेकों मंदिर एवं सौर वेधशालाएँ आदि बनी हुई है। जो वहाँ के मूल निवासियों से भी पूर्व प्राचीन काल में सुविकसित सभ्यता का प्रमाण है। इतने पर भी यह एक रहस्य बना हुआ है। कि ग्रेनाइट जैसे पत्थर पर हथौड़ा मारने से चिंगारियाँ निकलती हैं, से बने इस तरह के अनेकों एकलव्य प्रतिमायें बनाना कैसे संभव हुआ होगा ? किन लोगों ने इन्हें बनाया होगा और किस लिए बनाया होगा ?इतनी भारी और ऊँची प्रतिमायें कहाँ से लाई और कैसे खड़ी की गयी होगी? इतना ही नहीं ईस्टर द्वीप में पाई गई चित्र लिपि को भी अभी तक वैज्ञानिक कुटानेवाद करने में सफल नहीं हो सके हैं हर प्रकार से विस्मित कर देने वाला यह द्वीप खोज कर्ताओं के लिए अन्वेषण का केन्द्र बना हुआ है।

‘अन-टू -दि अननोन ‘ नामक पुस्तक में बताया गया है कि ईस्टर द्वीप समूह जो प्रशांत महासागर में चिली राज्य के अधीनस्थ हैं, वहाँ 30 फीट से लेकर 70 फीट और 600 से अधिक मेगालिथक प्रतिमायें पाई जाती है। नार्वे के मूर्धन्य नृतत्ववेत्ता हेअरथल ने अपने एक पुरातत्वीय अभियान में बताया कि इस द्वीप समूह में जो मेगालिथ शिलाखण्ड जमीन पर गिर गये थे, उन्हें उठाने के लिए 180 आदमियों की आवश्यकता पड़ी थी। इन प्रतिमाओं के अकेले सिर का ही वजन 18 टन से कम नहीं है। इस प्रकार कोरसिका में साठ से अधिक मेगालिथक मूर्तियाँ पाई गई है। तुर्किस्तान में भीर नेमरुरुड डाग में पायी जाने वाली कई प्रस्तर प्रतिमाओं का अध्ययन हो रहा है।

मिश्र एवं ब्राजील में स्थित पिरामिडों के रहस्य पूर्णतया अभी तक उजागर नहीं हो पायें थे कि विश्व में अनेक क्षेत्रों में फैले विशालकाय मेगालिथक प्रतिमायें भी अपना उत्तर ढूंढ़ने के लिए वैज्ञानिकों को विवश कर रही है। कि इन्हें इतना परिश्रम करके क्यों बनाया गया था? वे किस उपयोग की रही होगी? यह सभी प्रश्न अभी भी अनुतरित है।

अनुसंधान कर्ता विज्ञानियों का कहना हैं कि दक्षिण डाकोटा अमेरिका में एक विशालकाय मेगालिथक शिलाखण्ड है, जिस पर सिओक्स के रेड इण्डियन्स अपने मेरुदण्ड को घिसते हैं और अपनी मनःशक्ति को ले जा करके साइकिक शक्तियाँ प्राप्त करते हैं। इसी तरह इण्डीज पर्वत में एक ऐसा भारी भरकम प्रस्तर खण्ड हैं जिसमें फन फैलाये नाग के आकार का एक छिद्र है। युद्ध के समय सैनिक अपनी मुट्ठी उस स्थान पर रख देते हैं और असामान्य साहस और वीरता के भाव अपने भीतर प्रविष्ट कर जाने की अनुभूति करते हैं। जाँच कर्ता वैज्ञानिकों ने पाया कि उक्त स्थान पर यदि कम्पास रख दिया जाय तो उसकी सुई जोर जोर से घूमने लगती है, इंग्लैंड में भी कारेनिसले मार्ग के अंत में ‘ मेन एण्ड टाँल ‘ नामक एक शिलाखण्ड है। इसके मध्य एक बड़ा सा छिद्र है जिसमें सूखा रोग व गडमाला के रोगों को तीन बार निकालने से वह रोग मुक्त हो जाता है। , ऐसी मान्यता है। इंग्लैंड के अतिरिक्त फ्राँस एवं विश्व के अनेक अन्य स्थानों में इस तरह के रहस्यमयी मेगालिथक रचनायें पायी गयी है। जिनकी जाँच परख वैज्ञानिक उपकरणों को ध्यान से भी की गई है, पर उत्तर वही ढाक के तीन पात।

इंग्लैंड के सोमरसेट काउन्टी की ‘ब्रु’ नदी के समीप स्थित ग्लेसनबरी नगर यात्रियों के लिए मक्का -मदीना जैसा प्रसिद्ध स्थल है। कहा जाता है कि क्रूस पर चढ़ाते समय ईसामसीह के शरीर से बहने वाले रक्त को एक पात्र में एकत्रित कर लिया गया था। वह पवित्र पात्र ‘ दी होली ग्रेइल’ इसी गिरिजाघर में रखा हुआ है। इस स्थान को ड्रयूइड लोग पवित्र मान कर प्रतिवर्ष उसकी यात्रा करते है इस स्थान की एक अन्य विशेषता यह भी है कि यह ‘लेंज’ अर्थात् भीम ऊर्जा प्रवाह के मार्ग में पड़ता है। ‘लेंज ‘ अर्थात् रहस्यमयी सूक्ष्म ऊर्जा प्रवाह की खोज सर्वप्रथम अल्फ्रेड वोटकीन्स ने की थी। इससे पूर्व दन्त कथाओं में वर्णित कई चमत्कारी स्थानों का अन्वेषण सगुयिने डाउजर अर्थात् सगुनक दण्ड के माध्यम से तथा पृथ्वी की रहस्यमयी परतों के अनुसंधानकर्ता परम्परागत ढंग से करके यह प्रतिस्थापित कर चुके थे कि ग्लेस्नबरी, स्टोनहेज, एवबरी आदि प्राचीन स्थानों में पाये जाने वालेभीमकाय विशाल खण्डों मेगालिथक में एक विशेष प्रकार की ऊर्जा पायी जाती है, पर उसे विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा नहीं कहा जा सकता। यह कोई विशिष्ट प्रकार की ऊर्जा है जिसे जाना नहीं जा सका है। वोटकीन्स ने कोई 470 स्थानों में इस प्रकार की ऊर्जा स्रोत ढूंढ़ निकाले थे। उनके अनुसार कई ऐसे ऊर्जा मार्ग भी हैं जो बीस मील से लेकर सैकड़ों मील तक फैलें हुए है। इस मार्ग में ही अधिकाँश मेगालिथक विशाल खण्ड खड़े हुए है जिनके बारे में रहस्यमय दन्त कथायें प्राचीन काल से जुड़ी हुई है कि वे अदृश्य जीवधारियों से संबंधित है तथा अभौतिक ऊर्जा से जुड़ी होने के कारण वे उड़ भी सकती है। इनको स्पर्श आदि करने से विभिन्न रंगों का शमन हो सकता है आदि।

विज्ञानवेत्ताओं ने इस संदर्भ में गहन छानबीन की है और पाया है कि उक्त बातें कुछ हद तक सही है। टोमस ग्रेइव्स ने अपनी पुस्तक ‘ नीडिल्स ऑफ स्टोन ‘ में बताया है कि आल्पस नगर में स्थित संत स्फिटन के गिरिजाघर की दीवार में लगे हुए एक तीन फीट ऊँचे पत्थर में इस प्रकार की ऊर्जा तरंगें निकलती हैं कि इसी तरह पृथ्वी के कुछ क्षेत्रों में स्पन्दनशील ऊर्जा निकलती है जिसमें ज्वार- भाटे की तरह ‘पॉजिटिव’ एवं ‘निगेटिव ‘ पोलैरिटी तो है पर उन्हें विद्युत चुम्बकीय नहीं माना जा सकता। इस ऊर्जा प्रवाह की प्रमुख विशेषता यह है कि उसकी मानवी मन की प्रक्रिया होती है और यह उसके क्रिया कलापों को प्रभावित करती है।

भावुक प्रकृति के लोगों के लिए तो प्रकृति के हर रहस्य तो भगवान की लीला है। उन्हें डाउजर आदि परम्परागत माध्यमों से मिली जानकारी से भी संतोष हो सकता है। लेकिन विज्ञान के इस युग में प्रत्यक्षवादियों को तो तभी संतोष हो सकता है जब उनकी पुष्टि वैज्ञानिक उपकरणों के माध्यम से हो। इस संबंध में प्रकृति की अनबूझ पहेलियों समझाने के लिए इंग्लैण्ड में ‘ दो ड्रैगन प्र्रोजेक्ट ‘ के वैज्ञानिक ने कदम बढ़ायें। लेहर्न्टस पत्रिका के अनुसार मूर्धन्य प्राणिवेटा जीन बरनाट ने इस संबंध में गहन अनुसंधान किया है। पिछले दिनों अपने एक विद्यार्थी के साथ जब वे क्रीकोवेल मेगालिथ नामक शैलखड के पास बैठे चमगादड़ों की प्रतीक्षा कर रहें थे कि अचानक अल्ट्रा साउन्ड डीअक्टर की सुई हिलने लगी। इस घटना से पता चला कि सभी मेगालिथ इस प्रकार की श्रवणातीत ध्वनि तरंगें उत्पन्न करते हैं। इसके पश्चात वे रोल राइट्स स्टोन के क्षेत्र में गये जहाँ प्रोजेक्ट का प्रमुख कार्यालय था। उन्होंने पाया कि शिलाखण्ड से दिन की अपेक्षा सुबह ज्यादा ऊर्जा तरंगें निकलती है। इसके बाद उन्होंने जहाँ कहीं भी मेगालिथ शिलाखण्ड थे सभी जगह परीक्षण किये और उक्त धारणा की पुष्टि की। प्रोजेक्ट के प्रमुख डॉ0 जी. बी. रोबीन्स ने भी उक्त तथ्य की पुष्टि करने के लिए कोसलरीग, विरल शायर में एवबरी आदि स्थानों का भ्रमण किया और प्रातः कालीन सूर्योदय बेला में अनेकों परीक्षण किये। पीछे विशाल खण्डों से निकलने वाली श्रवणातीत ध्वनि तरंगों की प्रमाणिकता की जाँच अन्यान्य वैज्ञानिक ने भी की और सही पाया। उनका निष्कर्ष है कि इन ऊर्जा तरंगों के कारण ही व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक रोग युक्त होते हैं। इतने पर भी इस रहस्य पर अभी पर्दा ही पड़ा हुआ है, कि केवल उन्हीं पत्थरों से ही ऊर्जा क्यों निकलती है और वह भी सुबह। इस तरह के कितने ही रहस्य है, जिन्हें पृथ्वी अपने गर्भ में छिपाये बैठी है। उस पर विज्ञान यह कहता है कि हमने सब जान लिया है। है न यह हास्यास्पद कथन ॥ समझने के लिए यह सारा जीवन ही मिला है। हम अनुसंधान वृत्ति जारी रखें, चेतना की गहराइयों में प्रवेश करने के लिए आध्यात्मिक आश्रयों का सहारा ले, तो अनेकानेक रहस्योद्घाटन स्वतः होते चले जायेंगे।


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