ईश्वर चन्द्र विद्या सागर अभाव और निर्धनता के बीच पढ़ते पढ़ते 50 रुपये मासिक के नौकर हो गये। उनकी सफलता पर उनके अनेक संबंधी उन्हें आशीर्वाद देने पहुँचे, बोले - “ भगवान की दया से तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो गये। आप आराम से रहो और चैन से जीवन बिताओ। ” ईश्वरचन्द्र जी के नेत्र भर आये, बोले - “ आप ने यह आशीर्वाद दिया या अभिशाप ? जिस अध्यवसाय के बल पर मैं उस भीषण परिस्थिति से निकल कर आया हूँ उसे ही त्यागकर मुझे अकर्मण्य बनने की सलाह दे रहें है। आपको कहना तो यह चाहिए था कि जिस गरीबी और अभाव का कष्ट तुमने स्वतः अनुभव किया हैं, परिस्थितियाँ बदलने पर उसे भुला मत देना। अपने श्रम और साहस से अभावग्रस्तों के अवरुद्ध मार्ग साफ करना। जिन्हें जीवन में कुछ आभास ही नहीं, वे उपेक्षा बरतें, ऐश में भूले रहें, तो भूले रहें, मैं कैसे यह अपराध कर सकता हूँ। “ तथ्य बतलाते हैं कि उन्होंने अपने जीवन में इस सिद्धाँत का पूर्ण तत्परता से निर्वाह किया। अगणित अभावग्रस्तों के लिए प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से देवदूत की तरह आगे आते रहे। सच्चे अर्थों में उन्होंने परमार्थी जीवन जिया।
वस्तुतः जीवन उतना ही सार्थक है जितना परहितार्थ नियोजित होता है। राजा शतायुघ प्रजा निरिक्षण के लिए निकलें। एक झोपड़ी में जराजीर्ण वयोवृद्ध दीखा। राजा रुक गये। कौतूहल वश पूछा - आपकी आयु कितनी है ? देखने में शतायु की परिधि तक पहुँचे दीखते थे। वृद्ध ने झुकी गर्दन उठायी और कहा- “ मात्र पाँच वर्ष “ राजा को विश्वास न हुआ तो फिर से पूछा, तो सही उत्तर मिला। वृद्ध ने कहा -” पिछला जीवन तो पशु प्रयोजनों में निरर्थक ही चला गया। पाँच वर्ष पूर्व ज्ञान उपजा और तभी से मैं परमार्थ प्रयोजन में लगा। सार्थक आयु तो तभी गिनता हूँ।