महत्वाकाँक्षाएँ (Kahani)

January 1996

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एक बूढ़ा घास खोदने में सवेरे से लगा हुआ था। दिन ढलने तक वह इतनी खोद सका था, जिसे सर पर लादकर घोड़े वालों की हाट में बेचने ले जा सके। एक सुशिक्षित देर सं उस बूढ़े के प्रयास को देख रहा था। सो उसने पूछा - “ क्यों जी दिन भर परिश्रम से जो कमा सकोगे उससे किस प्रकार तुम्हारा खर्च चलेगा ? घर में तुम अकेले ही हो क्या ?”

बढ़े ने मुस्कुराते हुए कहा कि कई व्यक्ति से मेरा परिवार है। जितने की घास बिकती है, उतने से ही हम लोग व्यवस्था बनाते और काम चला लेते हैं।

युवक को आश्चर्यचकित देखकर बूढ़े ने पूछा- “ मालूम पड़ता है, कि तुमने अपनी कमाई से ज्यादा महत्वाकाँक्षाएँ संजोये रखी है। इसी से तुम्हें गरीबी में गुजारे से आश्चर्य होता है। “

युवक से तो और कुछ कहते न बन पड़ा पर अपनी झेप मिटाने के लिए कहने लगा- “ गुजारा ही तो सब कुछ नहीं है। दान पुण्य के लिए भी तो पैसा चाहिए। ”

बढ़ा हँस पड़ा। उसने कहा- “ मेरी घास में तो बच्चों का पेट ही भर पाता है, पर मैंने पड़ोसियों से माँग माँग कर एक कुँआ बनवा दिया है, जिससे सारा गाँव लाभ उठाता है। क्या दान पुण्य के लिए अपने पास कुछ न होने पर दूसरे समर्थों से सहयोग माँगकर कुछ भलाई का काम कर सकना बुरा है। “

युवक चला गया। रातभर सोचता रहा कि महत्वाकाँक्षाएँ सँजोने और उन्हीं की पूर्ति में जीवन लगा देना ही क्या एक मात्र तरीका जीवन जीने का है।


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