कोई आदमी यदि कमरे में भीतर हो ओर खिड़की दरवाजे सभी बन्द हो तो वह बाहरी दृश्यावलियों से एक प्रकार से वंचित रह जाता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कुछ समय के लिए बाहरी दुनिया से वह अलग पड़ जायेगा और उसका सारा संसार कमरे तक ही सिमट कर रह जायेगा किन्तु जो कोठरी के वातायन खुले रखते हैं, वह चाहे जब भी बाहरी दृश्य के रसपान का आनन्द ले सकते हैं, यह पूर्णतः उनकी अपनी मर्जी पर निर्भर है।
यह पृथ्वी भी एक विशाल कमरे की तरह है। उसमें रहते हुए हम उसके चित्र विचित्र दृश्यों का अवलोकन करते रहते हैं। उसकी पर्वत शृंखलायें मनोहारी आनन्द की अनुभूति कराती है तो सरोवर और सागर अपनी उद्याम ऊर्मियों से तन मन को सराबोर कर देते हैं। कही वन्य प्रान्तों की छटा तो कही धान्यों की शस्य श्यामल भूमि, कही उजाड़ प्रदेश तो कही राजस्थानी इलाके का विस्तृत वीरान क्षेत्र। यह सभी अपने अपने ढंग से मानवी मन को लुभाते रहते हैं, पर जिन क्षेत्रों ने मनुष्यों को सर्वाधिक आकर्षित किया हैं, वक अजीबोगरीब अनुभूतियों से भरे पड़े है। सामान्य स्थानों एवं सामान्य घटनाओं की तरह उनकी सामान्य चर्चा नहीं हो सकती। वे असाधारण कोटि में गिने जाने योग्य भू भाग है पृथ्वी रूपी विशाल भवन के ‘कपाट’ उन्हें कहा जा सकता है। ‘कपाट’ इसलिए क्योंकि उन उन जगहों पर पहुँचकर व्यक्ति ऐसा आलौकिक अनुभव करने लगता है, मानों वह किसी अन्य लोक में आ गया हों।
उदाहरण के लिए उस घटना का उल्लेख किया जा सकता है जो 5 अगस्त 1980 को लैरी कुश्चे नामक ऐ अंग्रेज युवक के साथ घटित हुई।
कुश्चे डैसीबरी इंग्लैण्ड स्थिति अपने खेत में काम कर रहा था। चार घण्टे लगातार श्रम से वह कुछ थक सा गया। आंखें बन्द कर ली और थकान को मिटाने के लिए शरीर को शिथिल की लिया। दस मिनट तक वह उसी अवस्था में बैठा रहा। शिथिलीकरण से उसे राहत महसूस हुई तो उसने पुनः कार्य प्रारम्भ करने की नीयत से उसने आँखें खोली, पर यह क्या ? वहाँ एक दृश्य बदला हुआ था। वहाँ न कोई खेत, नकोई ट्रैक्टर। किसी मुहल्ले के निकट स्वयँ को बैठा हुआ पाया। वह हैरान तो इस बात से था कि दस मिनट तक तो वह अपने खेत पर बैठा रहा, फिर बैठे बैठे इस रिहाइशी और अज्ञात इलाके में कैसे पहुँच गया ? जो बात उसे सबसे अधिक आश्चर्य चकित कर रही थी, वह भी वहाँ के निवासियों का विचित्र व्यवहार। वे सभी तो आपस में बातें करते तो प्रतीत होते थे, पर कुश्चे को उनकी बात चीत बिल्कुल सुनाई नहीं पड़ रही थी। होठ हिलते तो दृश्यमान हो रहे थे, पर वाणी मानो अनिर्वचनीय बनी हुई थी। वह उनसे बोलना, बात चीत करना चाह रहा था, किन्तु उन्हें उसकी तनिक भी चिंता नहीं थी। लोग बगल से गुजर जाते थे किन्तु फिर भी उसकी तीव्र आवाज उनको कर्णगोचर नहीं हो रही थी, जैसे वे सब के सब बहरे हों। वह अवाक् था, तभी अचानक उसकी दृष्टि उनके लिवाज पर पड़ी। कुश्चे सोचने लगा कि वर्तमान इंग्लैंड में तो इस प्रकार के पोशाक प्रचलित है नहीं तो वह किसी दूसरी सभ्यता और संस्कृति के लोगों के मध्य आ पहुँचा है ? कदाचित ऐसा ही हो। शायद उसके प्रश्नों का उत्तर अभी तक किसी ने नहीं दिया। संभव हैं, वह उसकी समझ के परे हो, पर उसकी वार्तालाप क्यों नहीं सुनाई पड़ती ? कुश्चे की बुद्धि इस संबंध में तनिक भी काम नहीं कर रही थी। आँखों का धोखा तो नहीं ? अंतर्मन ने प्रश्न किया और उसने उनकी परीक्षा करनी चाही। आँखों को अनेक बार मला मुलमुलाया, पर दृश्य यथावत् था। वह परेशान हो उठा और उठकर चलने लगा। तभी चार डग ही आगे बढ़ा था कि सब कुछ आँखों से ओझल हो गया, जैसे स्वप्न देख रहा हो। वह हड़बड़ाया और रुका, क्योंकि सामने ट्रैक्टर था,। उससे टकराते टकराते बचा। चारों ओर नजर दौड़ाई तो स्वयँ अपने ही खेत में पाया। वह हतप्रभ होकर कुछ क्षण विचार करता रहा और पुनः अपने काम में जुट पड़ा, पर इस समय भी उसका मन ऊहापोह से बिल्कुल मुक्त नहीं था। शाम को घर आकर इस घटना की चर्चा उसने अपने पड़ोसियों से की तो सभी ने उसको सनकी समझने पर समीप के एक इतिहासवेत्ता को जो इसकी सूचना मिली तो विस्तृत वार्ता के लिए उस कृषक के पास पहुँचा। बातों बातों में किसान ने दृश्य में देखे गये लोगों की वेशभूषा का उल्लेया किया तो प्रोफेसर के नेत्र चमके। उसने समझ लिया कि दृष्टि भ्रम नहीं, वरन् विगत ‘गमन’ की घटना है। बाद में उसे इतिहास विद् ने बताया कि उक्त प्रकार के पहनावे आज से दो सौ वर्ष पूर्व इंग्लैण्ड में आम थे।
विशेषज्ञ बताते हैं कि इंग्लैण्ड के उत्तरी चेशायर का ‘हेल्सबाई’ नामक पहाड़ी क्षेत्र ऐसी घटना के लिए प्रख्यात है। उनके अनुसार यह पर्वतीय इलाका एक ऐसे भूखण्ड से घिरा है, जिसे रहस्यवादियों की दृष्टि में पृथ्वी का ‘झरोखा” अथवा सूक्ष्म जगत का ‘ द्वार’ कहना अत्युक्ति होगा। चमत्कृतियों से भरे इस भू भाग का सही सही अवस्थान वैरिंग्टन और रनकाँर्न नामक जगहों के दक्षिण में डैरेसबरी एवं प्रिस्टन ब्रूक के मध्य है। जानकारी के अनुसार यह खण्ड देखने में एकदम सामान्य और शान्त प्रतीत होता है, किन्तु सर्दियों में अपने चित्र विचित्र घटना प्रसंगों के कारण उल्लेखनीय बना हुआ है।
समीपवर्ती लोगों का कहना है कि इस प्रदेश में आकर विगत काल खण्डों में प्रवेश कर जाना कोई अनहोनी बात नहीं। ऐसी प्रतीतियाँ तो यदा कदा होती ही रहती हैं, पर यहाँ से संबंधित सर्वमान्य घटना ‘भटकाव’ की है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई आलौकिक शक्ति मनुष्य की सामान्य गतिविधियों से खिलवाड़ कर रही हैं और उसे पल भर में कहाँ से कहाँ पहुँचा देती है। ऐसे अनेकानेक प्रकरणों से यह द्रष्टव्य है।
एक रात मैरगोट ग्रे नामक एक मोटर साइकिल सवार उत्तर की ओर डैरसबरी की दिशा में बढ़ा चला आ रहा था। अकस्मात उसने अपने सिर के ऊपर एक मंण्डलाकर प्रकाश को मँडराते देखा और एक तीक्ष्ण मोड़ पर आकर गाड़ी रोक दी। स्थान कुछ अजीब सा प्रतीत हुआ तो उसने पूछताछ की। विदित हुआ कि कई मील दूर चेस्टर के निकट हैं, जबकि वह चला डैरेसबरी के लिए था, फिर वह भिन्न दिशा में चेस्टर के निकट कैसे पहुँच गया ? उसकी समझ से परे था।
एक अन्य प्रसंग में डा. सुसान ब्लैकमोर नामक एक मूर्धन्य अंग्रेज मनोविज्ञानी एक शाम अपनी कार से डैरसबरी मार्ग से होकर गुजर रहें थे। अभी उनने डैरसबरी पार ही किया था कि मार्ग भटकाव सा प्रतीत हुआ। , कार रोकी तो ज्ञात हुआ कि वह डैरसबरी से 34 मील उत्तर लंकाशायर में प्रिस्टन के पास है। वह निमिष मात्र से इतनी दूर कैसे पहुँच गये, इसका समाधान उनकी मनोवैज्ञानिक बुद्धि भी नहीं सुझा सकी।
ऐसे ही घटनाक्रम प्रिस्टन ब्रूक में भी देखे जाते रहें है। अभी पिछले ही दिनों वहाँ कुछ भीमकाय दैत्य के दृष्टिगोचर होने की चर्चा जोरों पर थी। उनके अतिरिक्त अंतर्ग्रही यात्रियों द्वारा दो उपकरणों का उल्लेख भी होता रहा है। रात्रिकाल में अनूठी तीक्ष्ण आवाजें सुनी जाती रही है।
ठसके अलावा तिमिराच्छन्न आकाश में विलक्षण प्रकाश दिखाई पड़ना, उड़न तश्तरियां मंडराना, खड़ी फसलों के मध्य सुन्दर वृत्ताकार आकृतियाँ बन जाना यह सब वहाँ की सामान्य घटनाएँ हैं, जो आये दिन घटती रहती है। डैरेसबरी और प्रिस्टन से संबंधित इन सभी विचित्रताओं का जिक्र पाटर हाँग एवं जेनी रैण्डल्स ने अपनी चर्चित कृत्रिम ‘मिस्ट्रिल ऑफ दि मर्सी वैली ‘ में विस्तार पूर्वक किया है।
जेनीरैण्डल्स ने ‘ दि पेनाइन यू. एफ. ओ. मिस्ट्रा’ नामक अपने एक ग्रंथ में ‘ पैनाइन पहाड़ी ‘ नामक ऐसे ही रहस्यमय क्षेत्र से संबंधित महत्वपूर्ण वृत्तांत का वर्णन किया है।
प्रसंग जनवरी 1978 का है। एक दिन चार मछुआरे वीवर नदी में मछली पकड़ रहे थे, तभी उनकी दृष्टि समीप के एक घण्टीनुमा आकृति पर पड़ी। संरचना न तो बहुत बड़ी थी और न ही बहुत छोटी ही। उस मध्यम आकार प्रकार वाली विचित्र आकृति को इससे पूर्व वहाँ उनने कभी नहीं देखा था, अतः वह क्या हैं ? इसे जानने के लिए उत्सुकतावश ध्यानपूर्वक देखने लगे। थोड़ी ही देर में उसके भीतर से कई प्राणी बाहर आते दिखाई पड़े। वे सामने पड़े एक निश्चेष्ट जन्तु को एक बड़े पिंजड़े में रखने का प्रयास कर रहे थे। कार्य सफल होने के उपरान्त सभी उसी घ्ण्टीनुमा आकृति में प्रवेश कर देखते देखते अदृश्य हो गये।
जिस स्थान पर यह प्रसंग है, वह भूभाग स्थानीय जनता में ‘ शैतान का बगीचा ‘ के नाम से प्रसिद्ध है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि इस प्रकार के विचित्र अनुभूतियों और दृश्यावलियों क्षेत्र केवल स्थल भाग पर ही सीमित नहीं, वरन् जलीय प्रदेशों में भी कई ऐसे केन्द्र है, जिनके आस पास के जलीय क्षेत्र अथवा ऊपर के आकाशीय क्षेत्र में पहुँचकर व्यक्ति स्वयँ को एक दूसरी ही दुनिया में मौजूद अनुभव करने लगता है। यहाँ न तो आकाश दृष्टिगोचर होता है, न धरती, न जल। सब कुछ विलक्षण प्रतीत होता है और यान भटकाव जैसी स्थिति आ जाती है।
एक ऐसा ही अनोखा अनुभव ‘नासा ‘ के वायुयान इंजीनियर मार्टिन कैडिन को तब हुआ, जब वे फलोरिडा से यूरोप की हवाई यात्रा कर रहें थे। अपना संस्मरण लिखते हुए वे कहते हैं कि अचानक यान का कण्ट्रोल रूम से संपर्क टूट गया। यद्यपि उसमें अभी अभी ही करोड़ों की लागत से निर्मित एक अति संवेदनशील, उच्चस्तरीय एवं परिष्कृत सूचना संपर्क यंत्र स्थापित किया गया था। सभी सवार स्वयँ को एक ऐसे आकाशीय प्रवेश में पा रहें थे, जहाँ न स्वाभाविक नभमण्डल था, न क्षितिज। घंटों तक उनका हवाई जहाज एक भूरे से गगन में भटकाव की स्थिति में मँडरा रहा था। फिर अचानक यान स्वच्छ नीले आकाश में निकल पड़ा। इसी के साथ रेडियो संपर्क पुनः स्थापित हो गया। इस प्रकार की अद्भुतताओं का अध्ययन करने वाले शोधकर्मियों का कहना है कि ऐसे विलक्षण वृत, जल, थल, नभ तीनों ही क्षेत्रों में हो सकते हैं। और उन तीनों ही वातावरण में मनुष्य एक जैसी प्रतीति प्राप्त कर सकते हैं। ऐसी अनुभूतियाँ उन स्थानों पर क्यों होती हैं ? इस संबंध में विज्ञानवेत्ताओं का कहना हैं कि वहाँ कुछ विशिष्ट कारणों से विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा संघनित होती है। जब कोई भी व्यक्ति उस ऊर्जा क्षेत्र से होकर गुजरता है तो वह सामान्य चेतना के ऊपर की एक विशेष भूमि में पहुँच जाता है। यही वह अवस्था है जहाँ असाधारण घटित होती है। अनुसंधान कर्ताओं ने इस अवस्था का नाम ‘ओ जेड ‘ फैक्टर रखा है। ब्रिटिश वैज्ञानिक पॉल डेवेरोक्स ने अपने सहयोगी डेविड क्लार्क, एण्डी रावर्टस एवं विश्व विख्यात भूगर्भशास्त्री डॉ0 पाल मैककर्टनी के साथ मिलकर एक पुस्तक लिखी है। -’ अर्थलाइट रिवलेशन ‘ उक्त पुस्तक में विद्वान लेखकों ने ‘ ओ दृजेड दृकारक ‘ की संभावनाओं पर विस्तृत चर्चा की है और लिखा है कि जिन जिन भूभागों में पृथ्वी की आँतरिक सक्रियता बढ़ी चढ़ी रहती है उन्हीं भूखण्डों में अधिकाधिक आलौकिकताएँ घटती देखी गयी है।
निश्चय ही स्थानों की सक्रियता निष्क्रियता की अनुभूतियों से गहरा संबंध है। अध्यात्म विज्ञान की भी ऐसी ही मान्यता है कि जो भूमि संस्कारवान और परिष्कृत चेतना संपन्न होगी, वहाँ की अनुभूतियाँ भी उच्चस्तरीय होती है। इसके विपरीत कुसंस्कारी स्थलों में दुश्चिंतनों और दुरितों का बाहुल्य देखा गया है। इतना ही नहीं उन उन स्थानों पर सक्रियता इतनी प्रबल होती हैं कि प्रत्यक्ष आचरण भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसी निष्क्रिय और निश्चेत जमीन भी होती है जो आदमी पर किसी प्रकार का कोई प्रभाव छोड़ देने में असमर्थ होती है। विज्ञानियों के अनुसार ये वे स्थान हैं, जहाँ पर विशिष्ट स्तर की ऊर्जा का जमाव नहीं होता। अतएव सामान्य रूप से मानवी चेतना पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
इस प्रकार अध्यात्मविद्या के आचार्यों ने भूमि की प्रकृति के आधार के हिसाब से उनकी दो श्रेणियाँ निर्धारित की है। प्रथम में वे स्थान आते हैं, जहाँ सामान्य चेतना अनायास अथवा अल्प प्रयास से ही उच्च भूमिका में प्रतिष्ठित हो जाती है। हिमालय, देवालय, तपस्थलियाँ आदि ऐसे ही केन्द्र हैं जहाँ चेतना को ऊर्ध्वगामी बनने में सहायता मिलती है। यह केवल कहने सुनने भर की बात नहीं, वरन् इसकी सच्चाई उन केन्द्रों पर जाकर देखी परखी जा सकती है। कहा जाता है कि स्वाधीनता संग्राम के दिनों श्री अरविंद अलीपुर जेल की जिस काल कोठरी में बंद थे, वहाँ श्रीकृष्ण के निर्देश पर वे योगाभ्यास करने लगे और स्वल्पकाल में ही ध्यान के उच्च सोपान पर प्रतिष्ठित हो गये। वहाँ से उनके छूटने के बाद उस ‘सेल’ ( कोठरी ) में एक अन्य खूंखार कैदी को रखा गया, तो उसकी चेतना उस पूर्व के दिव्यता के प्रभाव से स्वयमेव ऊर्ध्वगामी बनने लगती। चूँकि वह इन अध्यात्मिक क्रियाओं से बिल्कुल अनभिज्ञ था, अतः भयभीत हो उठा और उसने प्रेत पिशाच का कोई उपद्रव मानकर अधिकारियों से किसी अन्य कमरे में स्थानान्तरित करने का आग्रह करने लगा। बाद में उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली गयी। इसका उल्लेख स्वयँ श्री अरविंद ने अपनी एक पुस्तक ‘कारावास’ की कहानी में किया है।
अलकनन्दा का वर्तमान उद्गम जहाँ हैं, बताया जाता है कि वही क्षेत्र प्राचीन जमाने में अलकापुरी के नाम से प्रसिद्ध था। कुबेर की राजधानी यही थी। पुराणों में अलकापुरी की विशिष्टता का जो महात्म्य बतलाया गया हैं, वह इन दिनों भी यथावत देखा जा सकता है। उसकी पहचान की महिमा का बखान करते हुए पुराणकारों ने लिखा है कि यदि कोई व्यक्ति भूमिष्ठ होकर उसकी मिट्टी को जोर जोर से सूँघे, तो तत्काल ही व्यक्ति समाधि के गहरे स्तर में प्रवेश कर जाता है। कुछ वर्ष पूर्व एक संदेशवादी को इस पर शंका हुई, तो उसने इसकी परीक्षा करनी चाही। ऐसा करते ही वह गहरी सुषुप्ति की स्थिति में पहुँच गया और लगभग सात घंटे पश्चात ही पुनः सामान्य स्थिति में लौट सका।
दूसरे वर्ग में उन जगहों को सम्मिलित किया गया हैं, जहाँ कुकर्मों, कुकृत्यों के अतिरेक है। ऐसे केंद्र अधोगामी चेतना से प्रभावित रहते हैं और आगंतुकों को भी वैसा ही व्यवहार करने के लिए प्रेरित करते हैं। मरघट ऐसा ही स्थल है। उसके अपने प्रकार की एक विशिष्ट ऊर्जा होती है। अघोरी इसी ऊर्जा का उपयोग कर विभिन्न प्रकार के अभिचार, कृत्या, घात, मूँठ जैसी ताँत्रिक क्रियाओं को संपन्न करते हैं। चूँकि यहाँ की चेतना निम्न स्तरीय है, अस्तु इसमें दूसरों को सताने, डराने, धमकाने और मारने जैसे प्रायोजन सरलता से सिद्ध होते हैं।
इस प्रकार हर स्थल की अपनी प्रकृति के अनुरूप भली बुरी निजी शक्ति होती हैं। इसे अध्यात्म और विज्ञान दोनों रूप से स्वीकारते हैं। बुरी शक्ति का प्रयोग बुरे कामों में भी किया जा सकता है और उससे कुछ सीमा तक लोगों की भलाई भी की जा सकती है। जहर का प्रयोग किसी की जान लेने में भी होता है और उसी से साँपों के विष को निष्प्रभावी भी बनाया जा सकता है। आग भोजन भी पकाती हैं, पर उसकी चिंगारी अग्निकाण्ड रचकर सर्वनाश पल में प्रस्तुत कर देती है। यह तो व्यक्ति की निजी समझ पर निर्भर हैं कि वह उसका कैसा उपयोग करें। अध्यात्म ने इस संबंध में अपनी प्रमाणिकता सिद्ध कर दी। उसमें शक्ति के सृजनात्मक प्रयोग को ही स्वीकारा और अपनाया गया है। अब विज्ञान की बारी है कि धरती पर बिखरे विभिन्न ऊर्जा केंद्रों का सदुपयोग कैसे करें ? यदि वह ऐसा कर सका और मानवी चेतना को समुन्नत बनाने में इनकी मदद ले सका तो ही वास्तविक अर्थों में इन्हें दूसरे विश्व का ‘प्रवेश द्वार ‘ कहा जा सकेगा और समय समय पर तभी हम अपनी इच्छा और अभिरुचि के अनुसार इनसे किन्हीं अन्य लोक की दर्शन झाँकी कर सकें