गुरुदीक्षा एवं दक्षिणा का मर्म

January 1996

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मनुष्य सामाजिक प्राणी है। एकाकी स्थिति में तो वह वन मानुष की तरह ही जीवित रह सकता है, प्रगति नहीं कर सकता। अन्य प्राणी तो जन्म से कुछ समय बाद ही अपने प्रयत्न से आहार लेने लगते हैं, पर मनुष्य के बालक को कई वर्षों तक अभिभावकों के अनुदान पर आश्रित रहना पड़ता है। शिक्षा के लिए अध्यापक का, दांपत्य जीवन के लिए ससुराल का, अरोग्य के लिए चिकित्सक का, आजीविका के लिए दफ्तर कारखानों का व्यापार के लिए उत्पादक एवं ग्राहक का सहारा लेना पड़ता है। यदि यह आधार न मिले तो मनुष्य को सोचने, बोलने, तथा सभ्य आचरण करने तक की विधि विदित न हो सके और भेड़ियों द्वारा पाले गये’ ‘रामू ‘ बालक की तरह सर्वथा पशु तुल्य स्थिति में रहना पड़े। आदान प्रदान की पद्धति अपनाकर ही मनुष्य प्रगति कर सका है। उसकी भावी प्रगति का आधार भी पारस्परिक सहयोग एवं अनुदान प्रतिदान पर निर्भर है।

आत्मिक क्षेत्र में यह नियम और भी लागू होता है। आत्मिक प्रगति के लिए उदारमना, तप, संपदा, के धनी, प्राणवान, मार्गदर्शक की आवश्यकता पड़ती है, जो न केवल शिष्य की आवश्यकता, कठिनाई, समस्या की गहराई में घुसकर समझें और उसका समाधान बतायें वरन् आवश्यकता पड़ने पर अपनी तप सम्पदा का एक अंश देकर उसे पार करें, उबारें। आत्मिक क्षेत्र में ऐसी सहायता की आवश्यकता पड़ती ही है।

धरती की उर्वरता कितनी ही क्यों न हो, हरियाली उगाने के लिए उसे पानी का आश्रय चाहिए। धातु कितनी भी मूल्यवान क्यों न हो, उसे उपयोगी उपकरण या आभूषण के रूप में बदलने के लिए धातु विशेषज्ञों द्वारा शोधे जाने एवं ढालने की आवश्यकता पड़ती है। हीरा, खरादी के हाथ की कुशलता का लाभ लेकर ही चमकता और बहुमूल्य बनता है। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए गुरु शिष्य परम्परा का महत्व माना गया है। भटकाव से बचने के लिए मार्गदर्शक चाहिए और प्रगति के अभीष्ट साधनों का अभाव पूरा कर सकने के लिए उपयुक्त सहयोगी। ऐसे सुयोग न बन सके तो यह कहना कठिन है कि एकाकी प्रयास से कौन, कितने समय कितनी प्रगति कर सकेगा ?

विवेकानन्द को रामकृष्ण परमहंस का, चन्द्रगुप्त को चाणक्य का, शिवा जी को समर्थ गुरु राम दास का, विनोबा को गाँधी का आश्रय मिला। इस छत्र छाया के बिना एकाकी पुरुषार्थ के बूते, कदाचित इतने ऊँचे उठ नहीं पाते, जितने कि उठ गये। संसार के महामानवों के पीछे ज्ञात या अज्ञात रूप से कोई न कोई अज्ञात सता उन्हें ऊँचा उठाने व आगे बढ़ाने में सहयोग करती रही है। दुर्बल रीढ़ वाली बेले भी पेड़ के सहारे ऊँची उठती और उतनी ही ऊँचाई तक जा पहुँचती है। उड़ाने वाले की कुशलता पतंग को आकाश में उड़ाती है। बाजीगर कठपुतली को जीवितों जैसी कला अभिनय दिखाने का श्रेय दिलाता है। बुद्ध के अनुग्रह से अंगुलिमाल, अम्बपाली जैसे पिछड़े हुए और आनन्द, कुमारजीव जैसे सामान्य स्तर के व्यक्ति, विश्व विख्यात बने थे। बड़ों की बात छोड़ दे तो भी सामान्य विकास क्रम में अपने से अधिक समर्थ का सहयोग चाहिए ही। माता बालक की सुरक्षा एवं सहायता में हर घड़ी लगी रहती है और पिता उसके लिए निर्वाह एवं प्रगति के साधन जुटाने में दत्त चित्त रहता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में यह दोनों ही कार्य एक ‘गुरु ‘ को करने पड़ते हैं। बिना उपयुक्त मार्गदर्शक के भी कुछ लोग एकलव्य की तरह मात्र अपनी निष्ठा के बल पर उच्चस्तरीय प्रगति कर लेते हैं, पर वह अपवाद है। सामान्य नियम तो वही है जो कृष्ण ने संदीपन का, राम ने विश्वामित्र का, और पाण्डवों को द्रोणाचार्य का आश्रय लेकर अपनाया।

प्रज्ञा युग निकट है और इसमें महाप्रज्ञा गायत्री, युगशक्ति के रूप में उभर रही है। उसका आश्रय लेने वाले सामयिक विपत्तियों से जूझने और उज्ज्वल भविष्य की भूमिका बनाने के अन्य सभी समुदायों की तुलना में अधिक समर्थ रहेंगे।

जागृत आत्माओं को इन दिनों आत्म कल्याण एवं लोकमंगल दोनों मोर्चे सँभालने पड़ेंगे। इसके लिए उनकी निजी शक्ति पर्याप्त नहीं।

उन्हें अतिरिक्त अनुदान चाहिए। शुद्ध मोर्चों पर अकेला सिपाही नहीं लड़ता। उसके लिए आवश्यक साधन जुटाने में समर्थ सरकार पीठ पर रहती है॥ ऐसे अनुदान अदृश्य दैवी अनुग्रह की तरह प्रत्यक्ष, गुरु दीक्षा के माध्यम से उपलब्ध किये जा सकते हैं। युग निर्माण के सूत्र संचालकों का उदाहरण इसी प्रकार का है। उनमें सत्प्रयोजनों के लिए उपयोग की शर्त पर अजस्र अनुदान मिलने का सनातन नियम पूरा होने की बात प्रत्यक्ष देखी और जानी परखी जा सकती है।

साधक की श्रद्धा के साथ गुरु के सामर्थ्य को जोड़ने की प्रक्रिया को गुरु दक्षिणा कहा जाता है। जब गुरु की सामर्थ्य के प्रति आस्थावान होकर शिष्य उसका लाभ लेने के श्रद्धा भरे संकल्प के साथ कटिबद्ध होता है, तब दीक्षा की पृष्ठ भूमि बनती है। दीक्षा कृत्य पौधों के लिए विकसित वृक्ष की कलम बाँधने जितना ही महत्व रखता है। यदि उस आरोपित टहनी में वह पौधा अपने रस का प्रवाह कर सके तो ही वह टहनी अपना कमाल दिखा सकती है। अन्यथा नहीं। पौष्टिक आहार से शरीर पुष्ट होता है, पर उसके लिए आहार का पेट में पहुँचना भर पर्याप्त नहीं। पेट अपने पाचक रस उसमें मिलायें, उसका रस खींचे, रक्त तक पहुँचाये, तब बात बनती है। यज्ञ की श्रेष्ठ सामग्री हवन करने से वातावरण का शोधन पोषण होता है। यह यज्ञ कुण्ड कीर अग्नि उस हव्य को अपनी ऊष्मा से वशीभूत करें तभी वह प्रक्रिया सधती है। इसी प्रकार गुरु का प्राणदान पाकर शिष्य जब उसके साथ अपनी श्रद्धा भरा समर्पण जोड़ता है, तभी वाँछित सफलता हाथ लगती है। दीक्षा की सार्थकता, सफलता एवं निरर्थकता निष्फलता का मर्म यही है।

दीक्षा की सार्थकता प्रदान करने वाली इस श्रद्धा प्रक्रिया को ‘दक्षिणा’ कहा जाता है। जिसे पौधे में कलम लगाई जाती है उस पौधे को अपने रस का एक अंश उस टहनी को संचारित करता होता है गुरु द्वारा आरोपित प्राण को विकसित करने के लिए अपने समय, साधन एवं पुरुषार्थ निश्चित अंश श्रद्धा पूर्वक नियमित रूप से गुरु के निर्देशानुसार खर्च करना पड़ता है। यही दक्षिणा है जो दीक्षा को सार्थक बनाती है। गुरु द्वारा दीक्षा और शिष्य दक्षिणा देने का क्रम इसीलिए परस्पर पूरक अनिवार्य प्रतिक्रियाओं के रूप में प्रतिपादित किया जाता है।

बीज को वृक्ष बनाना हो तो खाद पानी की आवश्यकता पड़ेगी ही। अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए ईंधन चाहिए। आहार को हजम करने में पेट का पाचक रस चाहिए। वर्षा का लाभ उर्वरा भूमि को ही मिलता है। औषधि उसी पर काम करती है, जिसमें जीवन शक्ति विद्यमान है। पारस मात्र लोहे को ही स्वर्ण बनाता है, हर धातु को नहीं। इसी प्रकार समर्थ गुरु की दीक्षा का प्रतिफल तो निश्चित रूप से उत्पन्न होता है, पर वह एकांगी होने पर संभव नहीं। इसमें गुरु की समर्थता और शिष्य की पात्रता समान रूप से आवश्यक है। एक हाथ से ताली कहाँ बजती हैं ? आंखें होने पर ही दृश्य दीखते हैं, कान काम करें तो शब्द सुनाई पड़ेंगे। मस्तिष्क ठीक हो तो प्रशिक्षण की उपयोगिता है। शिष्य के अनुदान और गुरु का अनुग्रह समान रूप से मिलने पर ही चमत्कारी प्रतिफल उपलब्ध होते हैं। इसलिए गुरु दीक्षा की पूरक गुरु दक्षिणा बताई गयी है। सच्ची आत्मिक प्रगति के लिए गाड़ी के यह दोनों पहिये समान रूप से गतिशील होने चाहिए। गुरु दक्षिणा के निम्न स्वरूप है-

1. मंत्र दीक्षा अर्थात् निर्धारण और अनुशासन 2-प्राण दीक्षा भूमि में बीज वपन, गर्भ धारण, पेड़ में कलम का नियोजन, दो प्राणों का आंशिक एकीकरण, 3- ब्रह्म दीक्षा समर्पण, विलय विसर्जन, शरणागति, एकात्म, अद्वैत। दो शरीर का एक प्राण प्रयोजन में परिणित। गायत्री महा विज्ञान के तृतीय खण्ड में इनकी विस्तृत चर्चा है।

गुरू दक्षिणा के तीन पक्ष है-

साधना की भाव भरी तत्परता, उत्कृष्ट जीवन एवं उदार व्यवहार में अनवरत प्रगति ( 3) सत्प्रवृत्ति संवर्धन के निमित्त अनुकरणीय अंश दान। आज जिनकी जो स्थिति है उसकी तुलना में कुछ करने, कुछ बड़े एवं आदर्शवादी साहसिक कदम उठाने का निश्चय करना ही गुरु दक्षिणा का प्रारूप है। कौन क्या करेगा ? इसका निर्धारण उसे स्वयं ही करना चाहिए और जो सोचा हो उसे गुरु दक्षिणा के रूप में संकल्प पूर्वक घोषित करना चाहिए।

दीक्षा के ग्रहण कर्ताओं से महायज्ञ महादेव की अपेक्षा हैं, कि वे नव निर्माण अभियान को सफल बनाने के लिए अपना अंश दान अब की अपेक्षा उतना बढ़ा दें जितना कि अधिकतम संभव हो। आज मनुष्यता जीवन मरण के झूले में झूलती है।

विभीषिकाओं से जूझने और उज्ज्वल भविष्य का शिलान्यास करने का ठीक यही समय है। इस महान प्रयोजन की पूर्ति के लिए प्रज्ञा पुत्रों का अधिकतम अंशदान चाहिए। वे अपने समय का, साधनों का जितना अंश दे सके, उनमें अधिकाधिक उदारता बरतें। कृपणता को आगे न आने दें।

पू0 गुरुदेव द्वारा युग सृजन में संलग्न रहने वाली शक्ति हिमालय के उच्च केंद्रों में आती है वे उसका निर्धारण निर्देश के अनुरूप वितरण करते रहते हैं। (1) असंख्यों की सेवा साधना के बदले कमाया हुआ कैलाश पर्वत जितना पुण्य (2) अंतरंग और बहिरंग की कठोर तितीक्षाओं द्वारा अर्जित मान सरोवर जैसी तपश्चर्या ( 3) अजस्र आत्मीयता से हृदयाकाश में लबालब भरी हुई भक्ति भावना करुणाई आत्मीयता। इन तीनों वैभव का अधिकाँश उपयोग वे दीक्षा प्राप्त आत्मीय जनों को सुखी समुन्नत बनाने के लिए करते हैं। इस अनुदान से असंख्यों का कायाकल्प जैसी परिवर्तित मनःस्थिति और परिस्थिति का सर्वोत्तम लाभ हुआ है। यह मेघ वर्षा भूतकाल में किस प्रकार बरसी और कितनों ने कितना लाभ उठाया यह सर्व विदित है। भविष्य में वे बादल और भी सघन होते जा रहें है और घनघोर घटाटोप वर्षा की तैयारी में संलग्न है। दीक्षा प्राप्त आत्मीय जनों को उन अनुदानों का विशिष्ट लाभ मिलने जा रहा है। किन्तु इस क्षण को एक पल के लिए भी विस्मृत न किया जाना चाहिए कि चट्टान पर मुसलाधार वर्षा होने पर भी नयी हरियाली का कोई चिन्ह प्रकट नहीं होता। जहाँ लोलुपता ही दीक्षा का कारण बनी है और श्रद्धा उमंगने का कोई चिन्ह प्रकट न हो तो सशक्त दीक्षा भी अपना सिर धुनती हुई, असफलता स्वीकार करती हुई वापस लौटेगी। निष्ठुरता और कृपणता की चट्टानें टस से मस न हो तो समझना चाहिए कि दीक्षा और दक्षिणा के उभयपक्षीय संयोग से चलने वाले सशक्त विद्युत प्रवाह का आधार ही समाप्त हो गया। ऐसी दीक्षाएँ विडम्बना मात्र बनकर रह जाती है। भले ही वह किसी सशक्त द्वारा दी गयी क्यों न हों।

अपने कुटुम्बियों में एक और सदस्य को सम्मिलित करें। वह है गुरुदेव का प्राण प्रिय प्रज्ञा अभियान गायत्री परिवार ‘युग निर्माण मिशन हर कुटुम्बी के लिए समय और साधन लगाने पड़ते हैं। इस नये कुटुम्बी का भी उसी अनुपात में भरण पोषण करें। अधिक न सही तो कम भी न मानें। उसकी प्रगति के लिए जो सोचते हैं, उससे कम प्रज्ञा अभियान की प्रगति के संबंध में भी न सोंचे। उनमें से प्रत्येक पर जो खर्च करते हैं, उससे कम पू0 गुरुदेव के प्राण चेतना का परिपोषण करने पर भी न करें। समय सृजनात्मक प्रवृत्तियों के संवर्धन में लगायें। अपने क्षेत्र में नवजागरण का आलोक वितरण करने के लिए जन संपर्क स्थापित करें। महीने के एक दिन की आजीविका, न्यूनतम बीस पैसा अथवा जो संभव हो, नियमित रूप से शाँतिकुँज भेजे, ताकि नवसृजन में जुटे हुए युग शिल्पियों के निर्वाह, मार्ग व्यय आदि की आवश्यकताओं को उस अनुदान से पूरा किया जा सके।

मीरा ने पत्थर को जीवंत ‘ गिरधर गोपाल ‘ बनाया था। रामकृष्ण परमहंस की काली अपना प्रत्यक्ष परिचय देती थी। एकलव्य के द्रोणाचार्य ने चमत्कार दिखायें थे। प्राण दीक्षितों की शिक्षा अपने जीवंत होने का प्रमाण, भाव भरी गुरु दक्षिणा के माध्यम से देगी तो निश्चय ही तो वह अनुदान असंख्य गुने वरदान लेकर वापस लौटेगा। आध्यात्मिक प्रगति में अनुदारता की असफलता का प्रधान अनुरोध बनकर अड़ी रहती है। दीक्षितों को यह बाधा हटाने में समर्थ होना चाहिए।


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