करें विश्राम, जुटें लोक-मंगल में अविराम

January 1996

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एक डबल सेट पम्प एक दिन 3250 गैलन पानी फेंकता है, किंतु उसे दिन भर बिना एक आध घण्टा विश्राम किये चलाये रखा जाय तो मशीन इतनी गर्म हो जायेगी कि उसके जल उठने या फट जाने का संकट उत्पन्न हो उठेगा। इसलिए मशीन वाले लोग उसे दिन में एक- दो घंटे विश्राम दे लेते हैं। तेल और ग्रीस की नियमित व्यवस्था के बाद भी विश्राम मशीन के लिए आवश्यक है, उसके बिना उसका थोड़े दिन भी अच्छा तरह चल लेना संभव नहीं।

उदाहरण यह बताता है कि विश्राम भी जीवन की आवश्यकता है, उससे एक नयी ताजगी मिलती है। किन्तु भगवान ने मनुष्य शरीर को क्षमताएँ दी है, वह बताती है कि यदि मनुष्य संपूर्ण जीवन अविराम काम करता रहे तो भी उसे शक्ति की कमी न रहेगी, विश्राम केवल स्थूल पदार्थों के लिए आवश्यक है अर्थात् शरीर यदि आराम करना चाहता है तो उसे कुछ विश्राम दिया भी जा सकता है। पर मानसिक और आत्मिक शक्तियों से तो मनुष्य निद्रा में भी काम कर सकता है।

हमारे शरीर में हृदय एक ऐसा ही स्रोत है जो जीवन भर एक पल भी बिना विश्राम किए काम करता रहता है। भगवान राम के सामने एक ही उद्देश्य था, आसुरी शक्तियों का दमन तो वे आजीवन उसी में लगे रहे। बुद्ध का निश्चय था, दलित समाज को हिंसा और भाग्य वाद के कुत्सित जाल से निकालना, उसके लिए वह एक क्षण विश्राम किये बिना काम करते रहे, तभी उन्हें एक आदर्श लोक सेवक होने का यश मिला। जगद्गुरु शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानन्द ने भारतीय धर्म और संस्कृति को नया जीवन देने का ही काम किया। पर आजीवन उसी में जुटे रहे तब उल्लेखनीय उपलब्धि प्राप्त कर सकें। हृदय भी ऐसा एक उदाहरण है जो जीवन भर 6 लीटर रक्त सारे शरीर में दौड़ाता रहता है। अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए वह एक सेकेण्ड की नींद तक नहीं लेता। विश्राम तो उसके लिए मृत्यु ही है। अपनी इस सक्रियता के कारण ही वह शरीर, मस्तिष्क और मनुष्य रूप में आत्मा के विकास में सहायक होता है।

वाटर वर्क्स यूँ सारे शहर को पानी देता है पर किसे, कब, कितना पानी दिया जाय, उसमें इस तरह की विवेक बुद्धि नहीं, ऐसा भी प्रबंध नहीं कि अशुद्ध हुए जल को फिर से शुद्ध बनाकर जल संकट को बनायें रखने में समर्थ हो। हृदय दिन रात काम करता है। और सबकी आवश्यकताएँ पूरी करता है। यह चार भागों में विभक्त होता है, ऊपर के दो कोष्ठ ‘आरिकल्स ‘और नीचे के वेन्ट्रिकल्स ‘ कहे जाते हैं। दाहिने हाथ का एक आरिकल्स और एक वेन्ट्रिकल्स में अशुद्धि रक्त का विभाग है, जो बायीं ओर दोनों कोष्ठकों में शुद्ध रक्त का विभाग है। दोनों ही पिता माता की संतान की तरह अच्छे बुरे का ख्याल किये बिना काम करते रहते हैं। मनुष्यों की तरह सुवर्ण और अछूत का भेदभाव यहाँ नहीं रहता।

ऐसा भी नहीं किया कि पास असीमित रक्त हो, किसी की आवश्यकता ही पूर्ण न हो। हृदय एक धार्मिक साम्यवाद का प्रतीक है, जहाँ से वितरण असमान तो होता है पर वह आवश्यकता के अनुसार वितरण जिसका जैसा काम के अनुसार इनाम का प्रबंध रहता है। अपने वाल्व सिस्टम और दबाव नियंत्रण के द्वारा उचित मात्रा में सबको रक्त पहुँचाता है। यह दोनों यंत्र बताते रहते है कि कहाँ कितने रक्त की आवश्यकता है, फिर उतनी ही रक्त वहाँ पहुँचता

है।

आपातकालीन व्यवस्था भी रहती है, कभी कही कोई स्थान कट जाता है, या चोट लग जाती हैं तो हृदय अपनी कुछ विशेष धमनियों को चलाकर उस स्थान में पहले से ही अधिक मात्रा में तब तक रक्त पहुँचता रहेगा जब तक उतने रक्त की आवश्यकता बनी रहेगी। पूँजी एकत्रित करने का प्रयत्न करने वाला शरीर का प्रत्येक अंग दूषित हो जाता है इसलिए हृदय अधिकार से अधिक रक्त किसी को नहीं देता।

मस्तिष्क सारे जीवन का केन्द्र बिन्दु, प्राण और उसे, शुद्धतम रक्त की आवश्यकता होती है। हृदय उसे शुद्ध से शुद्ध रक्त देता है। हाथ दिन भर काम करते हैं उन्हें गर्म और ताजा रक्त, जिसे कम से कम जरूरत उसे कम और अनन्त में उसके गन्दे किये गये रक्त को स्वयं ले लेने की महानता। खराब रक्त को पुनः शुद्ध करके शरीर में लौटा देने की तपश्चर्या हृदय ही कर सकता है। इसीलिए भगवान ने उसे निरन्तर काम कर सकने और लम्बे आयुष्य के उपभोग की आयुष्य दी है।

हृदय प्रति मिनट में 72 बार धड़कता है। एक वर्ष के बच्चे में वह 120 बार धड़कता है। हम कभी कोई भयानक दुश्य देखते हैं तो हृदय अपनी धड़कन बढ़ाकर ऐसी व्यवस्था करता है कि भय

के कारण उत्पन्न स्थिति विस्फोटक न होने पाये।

यह एक विचित्र यंत्र हैं, जहाँ पर हजारों नस नाड़ियाँ शुद्ध रक्त शरीर के प्रत्येक भाग में ले जाती है। और अशुद्ध खून दिल में ले जाती है। यही रक्त शुद्ध फेफड़ों में भेजकर शुद्ध करा लेता है और फिर शरीर को बाँट देता है। साढ़े चार इंच लम्बे, साढ़े तीन इंच चौड़े और ढाई इंच मोटे इस रुधिर परिवाहक को कोरोनरी नामक बारीक धमनी रक्त देती है। कोरोनरी धमनी एवं वासा वासोरम को वहाँ से जीवन मिलता है, यह शरीर शास्त्रियों को ज्ञात नहीं। लोक सेवा का उत्तरदायित्व जो हृदय के समान निष्ठापूर्वक निभाते हैं। उन्हें भी ऐसी ही अदृश्य सहायता मिलती है।

विचारशील चेतन प्राणी स्थूल जगत की योजनाओं से भिन्न है, उन्हें तो हृदय की तरह अविराम काम ही करता रहना चाहिए ताकि समाज व्यवस्था बिगड़ने न पायें। जो लोग अपने आप की चिंता किये बिना ऐसी लोक सेवा में उत्सर्ग होता है, उन्हें शक्ति और साधनों का हृदय के समान कभी अभाव नहीं रहता।


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