क्या बिना नारी के पुरुष का विकास सम्भव है ?

January 1996

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न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानाडे का विवाह एक अशिक्षित कन्या से किया जाने लगा। कोई और पढ़ा लिखा व्यक्ति होता तो शायद ऐसा नहीं होने देता, परन्तु उन्होंने अपूर्व आदर्श निष्ठा का परिचय दिया। उन्होंने अपनी पत्नी के प्रति प्रेम की कोई कमी नहीं आने दी। सच्चे प्यार की परख त्याग और बलिदान है। रानाडे ने संकल्प लिया था कि मैं स्वयं ही अपनी पत्नी को शिक्षित बनाऊँगा और वे अपने संकल्प को पूरा करने में जुट गये। सायंकाल अवकाश के समय नियमित रूप से वे अपनी पत्नी रमाबाई को पढ़ाने लगे। उधर परिवार की अंधविश्वासी महिलाओं को यह अच्छा नहीं लगा। रानाडे और रमाबाई दोनों को व्यंग बाण सहने पड़ते, परन्तु उनकी परवाह किये बिना दोनों अपने कार्य में जुटे रहे।

रानाडे के प्रयासों से रमाबाई को निष्ठा और श्रम के सत्परिणाम शीघ्र ही सामने आये और वे कुछ ही दिनों में अंग्रेजी और मराठी भाषा पर अधिकार पा गयी। घर का हिसाब किताब, रिश्तेदारों से पत्र व्यवहार, आगन्तुक अतिथियों का आदर सत्कार और शिष्ट व्यवहार आदि सभी कार्य सफलतापूर्वक करने लगी। रानाडे के उदार दृष्टिकोण और सूझबूझ की जब भी मित्रों ने प्रशंसा की तो वे मुस्कुरा कर कहते- “भाई, मैंने इसमें कौन सा महान कार्य किया है। अपनी पत्नी का विकास मेरे ही विकास का प्रश्न था। मैं सभी विद्याओं में कितना ही निष्णात क्यों न होऊँ, यदि मेरी पत्नी निरक्षर और अनपढ़ ही रहती तो सारा संसार का विकास अधूरा ही रह जाता। ”

आज स्थिति उसके विपरीत ही नहीं बहुत कुछ भिन्न भी है। पढ़ा लिखा और कुलीन युवक अच्छी शिक्षित और सभ्य पत्नी चाहता है। संयोगवश उच्च शिक्षित कन्या मिल भी जाती हैं तो लड़के की पढ़ाई लिखाई का खर्च, हर्जाना दहेज के रूप में लम्बी चौड़ी रकम लेकर वसूल करना चाहते हैं। इसीलिए अभिभावक अपनी पुत्री को ज्यादा पढ़ाने लिखाने से घबराते हैं और पढ़ लिखा देते हैं तो उनके योग्य वर का मूल्य नहीं पाते। नारी शिक्षा की दृष्टि से पिछड़ी है इसका यह बहुत बड़ा कारण है। शैक्षणिक स्त्र से ही नहीं सामाजिक और पारिवारिक जीवन में भी स्त्री बहुत पिछड़ी हुई है।

नारियाँ अपना उद्धार स्वयं करें। यह बात ठीक है, परन्तु उनकी बहुत बड़ी जिम्मेदारी पुरुषों पर है। स्त्रियों का पिछड़ा रहना स्वयं पुरुष वर्ग के लिए कम घातक नहीं है। स्त्री पुरुष को गाड़ी के दो पहिये कहा गया है। एक पहिया छोटा या टूटा होगा तो दूसरा किसी हालत में आगे नहीं बढ़ सकता। समाज नारी पुरुष के युग्म से बनता है। यह कदापि संभव नहीं कि युग्म का एक पक्ष तो पिछड़ा रहें और दूसरा उन्नति करता जाये। नारी पुरुष का सामाजिक विकास के लिए समान महत्व है।

तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो नारी की महत्ता पुरुष से बढ़कर है। सृष्टिक्रम सुचारु रूप से चलने में पुरुष को एक सामान्य हेतु है, शेष सारा उत्तरदायित्व और संभावनाएँ नारी की सामर्थ्य पर ही निर्भर है।

सम्मान धारण करने से लेकर उसे जन्म देने, उचित पालन पोषा करने, घर बसाने, व्यवस्था आदि चलाने का दायित्व नारी पर ही है। पुरुष तो अपने आप में एक उच्छृंखल इकाई है। कुंवारे, अविवाहित और विदुर लोगों की गृह व्यवस्था देखकर इस तथ्य की वास्तविकता से सहज ही परिचित हुआ जा सकता है एकाकी पुरुष का, स्त्री रहित परिवार सुव्यवस्था, शृंखला आदि अनेक दृष्टि से बिखरा हुआ पाया जायेगा। परिवार सुव्यवस्थित तभी होता है जब कोई स्त्री धर्म पत्नी बनकर घर में प्रवेश करती है।

समाज व्यवस्था कहने मात्र के लिए पुरुष प्रधान है। इसकी मूल इकाई परिवार का जीवन और आस्तित्व स्त्री, माता, पत्नी के कारण ही है। संसदीय जनतंत्र शासन व्यवस्था में जो स्थान राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का होता है, परिवार में वही स्थान पुरुष और स्त्री का होता है। शासन व्यवस्था का सूत्रधार प्रधान मंत्री हैं, राष्ट्रपति तो नाम मात्र का सर्वोसर्वा हैं,। यों भी गृह व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने का अधिकाँश उत्तरदायित्व नारी पर है। पुरुष तो कमाता भर है। किस काम में कितना खर्च होना है इसका नियोजन एवं निर्धारण गृहिणी ही कुशलता पूर्वक कर सकती है। कमाना जितना आसान हैं, समझदारी से खर्च करना उतना सरल नहीं है। इस प्रकार व्यवस्था की दृष्टि से भी नारी की महत्ता पुरुष की अपेक्षा कही अधिक है। किन्तु कितने खेद की बात है कि नारी को जितना सम्मान चाहिए था वह तो दूर उलटा उसे हेय, गिरी हुई और छोटी निगाह से देखा जाता है। जब जब जिस समाज और जिस जाति की नारी को समुचित स्थान और महत्व दिया गया, उसके शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक विकास की व्यवस्था रखी गई है, तब तब उसे समाज और वे जातियाँ संसार में समुन्नत होकर आगे बढ़ी हैं तथा जब जब उसे उचित स्थान से पदच्युत कर उसकी अवमानना जिस जाति ने की वैसे वैसे उसका निश्चित रूप में पतन हुआ है।

भारत के गौरव शील अतीत के निर्माण में नारी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। नारी जननी हैं, माँ हैं इसलिए संतान के पालन -पोषण से लेकर उसके व्यक्तित्व के गठन तक का श्रेय उसी को है। संतान का अच्छा या बुरा होना प्राच्य संस्कृति की मान्यताओं के अनुसार माँ की मर्यादा के साथ जुड़ हुआ था। राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, शिवाजी, प्रताप, अशोक, विक्रमादित्य, सुभाष गाँधी नेहरू जैसे महामानवों का उद्भव और पालन माँ की ही छत्रछाया में हुआ था। आज भी मनुष्य जीवन में माँ का स्थान वही है। पिता के प्यार और संरक्षण का प्रभाव संतान पर उतना नहीं पड़ता जितना की माँ की ममता और लाड़ -प्यार की कमी का। माँ के आँचल की छाया जिस पुरुष को नहीं मिली, उसने जीवन में आगे चलकर कोई बड़ा कार्य किया हो, ऐसी विभूतियाँ अपवाद स्वरूप ही मिलती है। लेकिन व्यक्तित्व के गठन से लेकर समाज, सभ्यता और संस्कृति के निर्माण का दायित्व नारी तभी निभा सकती हैं जबकि उसे स्वयं के विकास का अवसर मिला हो।

सुसंस्कृत माता ही विकास शील संतान को जन्म दे सकती है। जो माँ सभ्यता, जीवन और देश काल के अनुसार स्वयं ही पिछड़ी हो उससे उन्नत संतान की आशा कैसे की जा सकती है ? प्राचीन काल में भारतीय नारी को विकास के अवसर ही नहीं मिले थे, वरन् समाज में भी उनका बहुत ऊँचा स्थान था। शिक्षण व्यवस्था में साथ देने और सामाजिक गतिविधियों तथा आयोजनों में भाग लेने की सुविधाएँ उसे प्राप्त थी। जब तक समाज में नारी का स्थान ऊँचा और बराबर रहा भारतीय संस्कृति अपने विकास की चर्म सीमा को छूती रही। उस नारी ने नर - नारायणों को जन्म दिया, भारत भूमि 33 करोड़ देवताओं की पवित्र भूमि कहलायी। कायातंत्र में एक एक कर जैसे जैसे कई प्रतिबंध नारी जाति पर लगाये जाते रहे, हमारा पौरुष, साहस, वीरता धर्म और संस्कृति निरन्तर क्षीण होने लगे। यहाँ तक कि हम अपने जन्म सिद्ध अधिकार स्वतंत्रता को भी खो बैठे।

इस पराधीनता के खिलाफ भी सर्वप्रथम आवाज उठाने वाली नारी ही थी। पुरुषों ने तो आत्मसम्मान, स्वाभिमान लगभग खो सा दिया था। कुछ जागृत माताओं के लाड़लों ने स्वतंत्रता संग्राम की योजना बनाई।

सन् 1857 की 31 मई को एक साथ सभी स्थानों पर विद्रोह की आग भड़कने वाली थी, किन्तु उसके 21 दिन पूर्व ही मेरठ की छावनी के सैनिकों ने क्राँति का झंडा ऊँचा कर दिया।

दुर्भाग्य से इस छावनी में 85 लोगों ने ही भाग लिया। सामूहिक असहयोग के अभाव में सभी क्राँतिकारी सैनिक पकड़े गये। उन्हें सज हुई

जो अपने साथियों का सहयोग नहीं दे पाये थे वे जब मेरठ शहर आये तो उनका अद्भुत स्वागत किया उन्हीं की गृहणियों ने नारियों के एक जत्थे ने उन्हें चूड़ियाँ दिखाई और कहाँ-”तुम्हारे भाई इस तरह अपमानित हुए है और तुम चुपचाप हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे।

अब क्या मुँह लेकर आये हो हमारे सामने। धिक्कार है तुम्हारे पुरुषत्व पर। लो यह चूड़ियाँ पहनो और अपने हथियार हमें दे दो। हम अंग्रेजों से लड़ेंगे। इस तीव्र भर्त्सना से आहत सैनिक वापस लौट गये और रातों रात मेरठ एक ही दिन में स्वतंत्र हो गया। इस स्वतंत्रता संग्राम में नारी ने साहस और प्राण ही नहीं फूँके, स्वयं भी भाग लिया और वीरता तथा शौर्य का परिचय दिया। रानी लक्ष्मी बाई, बेगम जीनत महल, अजीजन आदि सैकड़ों महिलाओं ने लड़ाई में भाग लिया। योगीराज अरविन्द की तो मान्यता ही थी कि “ भारत मुक्ति आँदोलन मातृ शक्ति के कारण ही सफल हुआ। जब भी इतिहास की करवट बदली है, समाज और राष्ट्र में बड़े परिवर्तन आये हैं। उनकी पृष्ठ भूमि में महिलाओं का ही हाथ रहा है।

यह कहना अनुचित नहीं होगा कि पुरुष जाति का आस्तित्व नारी के कारण ही सुरक्षित रहा है। पुरुष वर्ग नारी को प्रतिबंधित कर, अपने मिथ्या अहं को भले ही पोषित करें, पर उनमें उनकी ही अपार हानि है। पुरुष आततायी नहीं आत्मघाती सिद्ध हो रहा है। राष्ट्र की जननी, पुरुष की सहयोगिनी, सहचरी और अनुवर्ती को दासी और पशुओं से भी बदतर बनाकर उसका अपना क्या हित होगा ? जिसके सहारे ऊँचा उठा जा सकता था, उसे ही तोड़कर क्या पाया जा सकता है ? जिस डाली पर बैठे हो, उसे काटने की वज्र मूर्खता हम ही तो कर रहें है। मनुष्य जाति का विकास और उन्नति नारी के बलबूते ही संभव हुई है। उसे ही पतन के गर्त में ढकेलना वज्र मूर्खता का ही प्रमाण है।

नारी वर्ग के पिछड़ापन का मूल कारण है अशिक्षा। घर की चार दीवारों में कैद नारी असभ्य, अपंग और अयोग्य ही बनी रहेगी। उसकी जड़ हुई चेतना, समाज एवं राष्ट्र के लिए उसकी सारी उपादेयता को नष्ट करके ही छोड़ेगी। अज्ञान और पुरुष के प्रतिबंधों से उसे कायर और भीरु बना दिया। घर में अकेले रहते हुए भी वह कितनी दबी दबी है, मानो उस पर अभी भी कोई विपत्ति आने वाली है, जिससे वह आत्म रक्षा नहीं कर पायेगी और जब वास्तव में ही कोई आपत्ति आती है तो उसका सामना करने तथा प्रतिकार करने की अपेक्षा काँपने या रोने लगती है।

किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में आपदाओं और आपत्तियों का विरोध तथा संघर्ष करने का न तो उसका साहस रहता है, न बुद्धि। इस स्थिति के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है-पुरुष। वस्तु स्थिति को समझकर स्वयं के हित में ही सही अपनी संतानों का भला करने के लिए ही सही -पुरुषों को चाहिए कि नारी को इस दयनीय स्थिति से उबारें।

उन्हें सर्वप्रथम अशिक्षा एवं अज्ञान के अंधकार से निकालना होगा, शिक्षा दीक्षा के संबंध में उदार एवं सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाना पड़ेगा। नारी का उद्धार स्वयं। नारी ही कर सकती है - यह कहकर अपने उत्तरदायित्व कम नहीं किये जा सकते। इसके लिए तो स्वयं में भी बड़ा परिश्रम तथा प्रयास करना पड़ेगा अन्यथा पुरुष जाति का आस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा।


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