सेवाधर्म के मार्ग में बाधाएँ और भटकाव

January 1996

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विगत छह अंकों से लोकसेवा के क्षेत्र में प्रवेश करने वाले हर इच्छुक परिजन लोक नेतृत्त्व के क्षेत्र में आगे आने वाले हर व्यक्ति के लिए परम पूज्य गुरुदेव द्वारा लिखी गयी आचार संहिता के अंतर्गत लेखा मालाएँ प्रकाशित की जा रही है। प्रत्येक में कूट कूट कर वे सू.त्र भरे गये हैं, जिनसे एक आदर्श कार्यकर्त्ता के निमार्ण का कच्चा माल कैसे तैयार हो, यह मार्गदर्शन मिलता है। समाज सेवा का क्षेत्र हो अथवा धर्मतंत्र से जन मानस के परिष्कार का, प्रत्येक पर ये सूत्र लागू होते हैं। वसंत पर्व (24 जनवरी 96) के संदर्भ में यह सूत्र किसके लिए पठनीय है।

सेवा का महत्व और जीवन विकास के लिए उनकी अनिवार्य आवश्यकता समझ लेने के बाद सेवा धर्म की उमंग उठना स्वाभाविक है। अधिकाँश लोगों में इस तरह की उमंग उठती है। वे उस उमंग के अनुरूप सेवा मार्ग में प्रवृत्त भी होते हैं, किन्तु उस पथ पर अधिक समय तक नहीं चल पाते। इसका कारण यह है कि लोक सेवा के प्रति आवश्यक उत्साह और निष्ठा का जागरण नहीं हो पाया। कुछ लोग प्रवृत्त भी होते हैं, पर कठिनाइयाँ आती देखकर उसे झमेला समझ कर छोड़ बैठते हैं अथवा असफलता से डर कर चुप बैठ जाते हैं।

बहुत से कारण है जिनसे सेवा कार्य में संतोष जनक प्रगति नहीं हो पाती। लोग या तो गलत बातों को सही समझ कर विचलित हो जाते हैं अथवा असफलता का अहंकार उन्हें दिग्भ्रान्त कर देता है। इन सब बाधाओं और भटकाव की परिस्थितियों को पहले से जान समझ कर चला जाय, सेवा धर्म का निर्वाह पालन किया जा सकता है। होता यह भी है कि सेवा धर्म अपना लेने के बाद उसे अपना जीवन लक्ष्य बनाने और साधना स्तर पर करने में भूल हो जाती है। भूले स्वभावगत हों या परिस्थितियों के कारण, लोक सेवी को अपने साधना पथ से दूर हटाती है।

हमें यह तथ्य स्मरण रखना चाहिए कि मार्ग दर्शक बनना हो तो नेतृत्व का कौशल नहीं चरित्र चाहिए। प्राचीनकाल में लोकमानस के परिष्कार का महान कार्य जो लोग हाथ में लेते थे वे कार्य क्षेत्र में प्रवेश करने से पूर्व ब्राह्मणों जैसी संयमशीलता और साधु जैसी उदार आत्मियता का अभ्यास करते थे। इस परीक्षा में वे इतनी ऊँची कक्षा उत्तीर्ण करते थे, उसी अनुपात में उनकी सेवा साधना सफल होती थी। यदि सच्चे मन से उच्चस्तरीय दृष्टिकोण लेकर सेवा धर्म अपनाया जाय, तो उसका परिणाम लोकमंगल से अधिक आत्मोत्कर्ष के रूप में उपलब्ध हो ता है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए प्रज्ञा परिजनों को युगशिल्पी की भूमिका निभाने के लिए अग्रसर होते समय इस बात को गिरह बाँध कर रखना है कि उन्हें अपने स्तर के व्यक्तित्व की दृष्टि से सामान्य लोगों की तुलना में कहीं ऊँचा उठकर रहना है।

इसके लिए क्या करना होगा ?इस संबंध में प्रत्यक्ष कर्तव्य उतना नहीं है जितना कि दृष्टिकोण में परिवर्तन करने का प्रबल अभ्यास अपनाना। सर्वविदित है कि लोभ मोह के भव -बंधन आदर्शवादिता के आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने वाले के लिए हथकड़ी -बेड़ी जैसे अवरोध उत्पन्न करते हैं। लालची, संग्रही, विलासी व्यक्ति को लोभ लिप्सा इस कदर जकड़े रहती हैं कि उसे परमार्थ में कोई रस नहीं आता। अपनी तराजू अपने बाटों से तौलने पर उसे स्वार्थ वजनदार प्रतीत होता है और परमार्थ हल्का। इसलिए लालच की राई-रत्ती कमी पड़ते ही वह परमार्थ से हाथ खींच लेता है और कुछ आडंबर करता भी है तो उतना ही जिससे कम खर्च में लोकसेवी पुण्यात्मा की अधिक ख्याति खरीदी जा सके। इसमें भी वे तौलते रहते हैं कि कितना गंवाया और कितना कमाया।

दूसरा अवरोध हैं-व्यामोह। शरीर और परिवार के साथ अत्यधिक ममता जोड़ने वाले उन्हें प्रसन्न रखने के लिए उचित अनुचित कुछ भी करते रहते हैं। उन्हें यह छोटी परिधि लोक - परलोक सभी से बढ़कर प्रतीत होती है और उसी के निमित्त कोल्हू की तरह पिघलते रहते हैं। परिवार का उत्तरदायित्व निभाना, परिजनों के प्रति कर्तव्य पालन करना एक बात है और उन्हें सुविधा से लाद लादकर अनुचित दुलार से व्यक्तित्व की दृष्टि से हेय हीन बना देना सर्वथा दूसरी। मोहग्रस्त लोग दूसरे को अपनाते हैं और पहले की ओर से आंखें बन्द किये रहते हैं।

इसके लिए कभी रोका झिड़का जाय कि उन पर अशर्फियाँ लुटाते रहने की तुलना में कही अधिक हित इसमें हैं कि वे श्रेष्ठ चिंतन देने का प्रयास करें, मात्र लाड़ दुलार न दे तो कोई मुहान्ध सुनता नहीं। पर कहे कौन किससे ? ज्ञान वैराग्य में कथा कहते रहने वाले ही जब श्रोता भक्त जनों से भी अधिक गये गुजरे सिद्ध होते हो तो सत्य वचन महाराज की विडम्बना ही सिर हिलाती रहेगी।

परिवार पोषण किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए, क्योंकि नयी दृष्टि से देखने से इस परिवार के कितने ही सदस्य ऐसे होते हैं, जिनमें आर्थिक स्वावलंबन की ही नहीं दूसरों को सहारा देने की क्षमता भी है किन्तु उन्हें मोहवश अपनी नाक काटने के बहाने अपंग अपाहिज बनाकर रखा गया है। एक कमाऊ व्यक्ति ही मरता खपता रहता है। दूसरे समर्थ होते हुए भी, असमर्थों की बिरादरी में आलसी, प्रमादी बनें बैठे रहते हैं। इस प्रकार फिजूल खर्ची की आदतें जब अभ्यास में आ जाती है तो खर्च का ढोल इतना भारी हो जाता है कि उसे भी परिपोषण की संज्ञा मिलती है। वस्तुतः यह होता परिवार पोषण भर है। पोषण सरल है, पोषण अति कठिन है। पुत्रवधू की गोद से छीन छीनकर पोते -पोतियों को कंधे पर लादे फिरने वाले बुड्ढों की भी कमी नहीं। कमाऊ लड़कों के गुलछर्रे उड़ाने में कोई कमी न रहने पर भी बुड्ढा जब उन्हीं के हाथ में पेंशन थमाता जाता है तो उनकी दयालुता देखते ही बनती है। जीवन भर की कमाई का बँटवारा जब समर्थ बेटों की हिस्सेदारी के रूप में कर दिया जाता है तो प्रतीत होता है कि घिनौना व्यामोह जिस प्रकार औचित्य एवं प्रचलन का लबादा ओढ़कर अपने को निर्दोष सिद्ध करता है।

इस चक्रव्यूह में कुछ थोड़े से घेरे ही यहाँ उजागर किये हैं। ऐसे ऐसे और भी अनेकों है। जिनमें आये दिन बच्चे जनने, उस पर खुशी मनाने और सिर पर पर्वतों जैसा बोझ चढ़ाते चलने की भी एक बात सम्मिलित की जा सकती है। इस मोह ग्रस्तता को परमार्थ पथ पर अड़ा हुआ भारी चट्टान कह सकते हैं। लोभ को प्रथम नम्बर दिया जाता है, मोह को दूसरा, पर अभी यह तय किया जाना है कि इसमें से कौन द्वितीय है। वस्तुतः यह रावण, अहिरावण जैसे सगे भाई ही प्रतीत होते हैं।

आत्मकल्याण और लोककल्याण की साधना में ऐसा कुछ नहीं, जिसके लिए शरीर निर्वाह एवं पारिवारिक उत्तरदायित्व निभाने में कोई बाधा पड़ती हो। मात्र लोभ और मोह का मद्यपों जैसा अतिपाद ही एक मात्र अवरोध है जो वस्तुतः तिनके जैसा हल्का होते हुए भी पर्वत जैसा भारी बनकर दिग्भ्रांतों के मनः क्षेत्र पर भूत पिशाच की तरह चढ़ बैठता है और भली चंगी परिस्थिति होते हुए भी नारकीय उत्पीड़कों की तरह निरंतर संत्रस्त करता रहता है।

किन्तु बात इतनी ही छोटी नहीं। इस मार्ग पर एक और बड़ा अवरोध अर्हता का है। यह परोक्ष होती है। न अपनी पकड़ में आती है, न दूसरों को समझ में। इसलिए उसकी उखाड़ पछाड़ ही नहीं होती। फलतः मजे में अपने कोंतर में बैठी पोषण पाती है, जोंक की तरह मोटी होती रहती है। इनकी विनाश लीला इतनी बड़ी है कि जिसकी तुलना में लोभ मोह से होने वाली हानि का नगण्य जितना ठहराया जाता है। अर्हता बड़प्पन पाने की आकाँक्षा को कहते हैं। दूसरों की तुलना में अपने को अधिक महत्व, गौरव, श्रेय, पद, सम्मान मिलना चाहिए। यही है अर्हता की आकाँक्षा। इस जादूगरनी द्वारा लोगों को चित्र विचित्र विडम्बनाएँ रचते देखा जा सकती है। केश, वस्त्र, आभूषण सौंदर्य प्रसाधनों की इन दिनों धूम है। फैशन के नाम पर कितना धन और कितना समय नष्ट होता है। उसे शरीर सज्जा की रुचि रखने वाले सभी जानते हैं। उस महंगे जंजाल को इसलिए रचना पड़ता है कि अर्हता अपने को सुन्दर, युवा, आकर्षक, सभ्य, अमीर, सिद्ध करने के लिए लबादे को ओढ़कर वस्तु स्थिति से भिन्न प्रकार का प्रदर्शन करने को बाधित करती है। इसके लिए ठाठ -बाट का नम्बर आता है।

इसमें अमीरों का प्रदर्शन हैं। निवास, फर्नीचर, वाहन, नौकर तथा विलासिता के उपकरणों का सरंजाम जुटाने तथा रख रखाव में इतना धन तथा मनोयोग लगता है, जो वास्तविक आवश्यकता की तुलना में अनेक गुना महँगा होता है। बात बात पर फिजूल खर्ची उस समय की जाती है जब उसे लोग देखे और अनुमान लगाये कि वह व्यक्ति बड़ कुबेर है और अनावश्यक खर्चने से भी इसे कोई कमी नहीं पड़ती। बड़प्पन पाने की मृगतृष्णा के लोग कितने पाखण्ड रचने, धन को पानी की तरह बहाने के उपरान्त आवश्यक प्रयोजनों में किस प्रकार कटौती करते है-इसे देख कर कोई सूक्ष्मदर्शी आश्चर्य चकित ही रह सकता है। असलियत का अनुमान सहज ही लगा लिया जाता है फिर भी अर्हता का उन्माद विडम्बनाएँ रचने से बाज नहीं आता है।

यह तो सामान्य लोगों की बात हुई। अब प्रसंग उन विशिष्ट लोगों का आता है जो कि आदर्शवादी, त्यागी, अध्यात्मवादी, योगी, लोकसेवी आदि के रूप में प्रख्यात है। विश्लेषण करने पर इनके भीतर भी अर्हता चोर दरवाजे से घुसी और तानाशाह की तरह सिंहासनारूढ़ बनी बैठी दिखाई देती है। संतों के अखाड़े, धर्म, सम्प्रदाय, संस्था, संगठन आदि बड़ों की इसी प्रतिस्पर्धा में कलह के केन्द्र बने रहते हैं। उनके संचालकों में कौन बड़ा कहलायें ?एक ही संस्था के सदस्य एक ही लक्ष्य को दुहाई देने वाले इस कदर लड़ते क्यों है? इसका वास्तविक कारण सामान्य लोगों की समझ से बाहर होता है, उन्हें तो कुछ भी कह कर बहका दिया जाता है। वास्तविकता इतनी भीर होती है कि वे येन−केन प्रकारेण अपना बड़प्पन सिद्ध करना चाहते हैं। दूसरा जब आड़े आता है, तो मोहल्ले के कुत्तों की तरह अकारण एक दूसरे पर टूट पड़ते हैं। संगठनों के सर्वनाश में एक मात्र नहीं तो सर्वप्रधान कारण तो इस अर्हता सूर्पणखा को ही माना जायेगा। मनोमालिन्य और विग्रह के बहाने तो सिद्धाँत वाद की दुहाई देते हुए कुछ भी गढ़े जा सकते हैं। पर यदि भारी बाँध में दरार पड़ने के कारण ढूंढ़ने के लिए गहराई में उतरा जाय, तो प्रतीत होगा कि अर्हता कि नन्ही सी चुहिया ही दुम उठायें, मुँह मटकाती, पंजे दिखाती अपनी करतूत का करिश्मा दिखा रही है।

व्यवसाय अपने बच्चों को छोड़कर आने वालों से भी अर्हता नहीं छूटती। जिस प्रकार कोई लालची मनोभूमि का मनुष्य भिक्षा व्यवसाय करके पेट भरने पर भी लगातार कमाता जोड़ता रहता है और मरते समय चिथड़े और कुल्हाड़े में लाखों की दौलत छोड़ जाता है, उसी प्रकार लोकसेवी, अध्यात्मवादी का कलेवर बना लेने पर भी यदि अर्हता न छूटी तो पैर पुजाने के लिए अनेकानेक पाखण्ड रचाते, लोगों को ठगते उलझाते हुए उसे देखा जायेगा। आये दिन कुछ करतूतें, चमत्कारों की डींग हाँकते तथा और भी न जाने उसे क्या- क्या करते देखा जायेगा। सार्वजनिक जीवन में ऐसे लोगों का घुस पड़ना वस्तुतः संगठन के लिए एक प्रकार का अभिशाप सिद्ध होता है। वे जितना जनहित करते हैं, उसकी तुलना में हजार गुना अनहित करके रख देते हैं। इसलिए उत्कृष्टता के क्षेत्र में प्रवेश करने वालों के लिए मनीषियों ने वित्तेषणा, पुत्रेषणा और लोकेषणा की विविध एषणाओं का परित्याग करने के उपरान्त ही श्रेय मार्ग पर पैर बढ़ाने की सलाह दी है। लोकसेवी में नम्रता निरहंकारिता उत्पन्न करने के लिए प्राचीनकाल में दरवाजे दरवाजे भिक्षा माँगने के लिए जाना पड़ता था। यों घर बैठे भी भोजन मिलने का प्रबंध कठिन नहीं हैं, पर अहंकार गलाने को तो कोई न कोई स्वरूप चाहिए ही, इसके बिना साधु कैसा? ब्राह्मण कैसा? लोकसेवी कैसा?

गाँधी जी के आश्रम में निवासियों की टट्टी साफ करने, झाड़ू लगाने जैसे छोटे समझे जाने वाले कार्य परिपूर्ण श्रद्धा और तत्परता के साथ करने पड़ते थे। प्रज्ञा मिशन की परम्परा भी यही थी। प्रत्येक आश्रम वादी को श्रमदान अनिवार्यतः करना पड़ता है और उसमें नाली साफ करने और झाड़ू लगाने, कूड़ा ढोने जैसे ही काम करने पड़ते हैं।

कई व्यक्ति सोचते हैं कि हम संध्या के निर्वाह लेकर काम क्यों करें?

अपना खानें के नाम पर निर्वाह लेने वालों से श्रेष्ठ क्यों न बनें? कुछ लोग इस कारण काम ही नहीं करते। इस असमंजस के पीछे कोई सिद्धाँत काम नहीं करता है मात्र अहंकार ही उछलता है। हजार रुपये मासिक का काम करके यदि कोई सौ रुपये लेता है, तो उसके नौ सौ रुपयों का अनुदान ही हुआ। शाँतिकुँज परम्परा में हर आश्रम वादी को अन्य सभी की तरह निर्वाह आश्रम से ही लेना पड़ता है।

उसकी निजी आमदनी या पेंशन है, तो वह उसे आश्रम में दान देते रहने के लिए कहा जाता है। लोकसेवी यदि जनता से ब्राह्मणोचित निर्वाह लेता है तो वह वेतन भोगी कर्मचारी नहीं रह जाता वरन् श्रद्धासिक्त निर्वाह दक्षिणा के रूप में प्राप्त करते हुए गौरवान्वित होता है। सच्चे सेवक के लिए ऐसी नम्रता आवश्यक है।

यहाँ एक और प्रकरण ध्यान देने योग्य है। वह है ऐसे व्यक्तियों से बचना, जो कालनेमि की तरह सतत् अपना षड्यन्त्र रचने व लोकसेवी की प्रगति के मार्ग में रोड़ा बनते हैं।

इस प्रकार अनेकों तरह के व्यक्ति है कोई सत्परामर्श देकर मनोबल ऊँचा उठाने व साधना क्षेत्र के सहयोगी बनते हैं, किन्तु आज बहुतूल्य ऐसे व्यक्तियों का है जो मायावी कालनेमी की भूमिका निभाते अच्छे भले आदमी का पथ भ्रष्ट कर देते हैं। हर समाज सेवी संस्था को ऐसे कालनेमी से बचना पड़ता है। रावण के भाई कालनेमी का अपने काले कारनामों के कारण पुराण कथनों में बहुत स्थानों पर वर्णन आया है। वह त्रेता में आया था, पर काल से बँधा नहीं था। दुर्बुद्धि देने का काम वह हर युग में करता आया है। उसी ने सूर्पणखा के नाक कान काटने राम के पास भेजा, रावण को सीता हरने की सलाह दी। मरीच, कुंभकरण, मंथरा कैकेयी की बुद्धि उलटने के मूल में उसकी ही भूमिका थी उस कालनेमी की कुटिलता अभी भी है। तपस्वी, योगी, महात्मा कोई भी वेश धारण कर उसकी विक्षुब्ध जीवंत सतत् भटकती व कमजोर मनःस्थिति वाले व्यक्तियों को ढूँढ़ती रहती है युगशिल्पियों, प्रज्ञापरिजनों को लोभ, मोह, अर्हता इन तीनों के अतिरिक्त कालनेमि परम्परा के व्यक्तियों से भी सावधान रहना चाहिए।


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