यह है आस्तिकता

January 1996

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“भगवान भी दुर्बलों की पुकार नहीं सुनते। ” नेत्रों से झर झर आँसू गिर रहे थे। हिचकियाँ बंध गयी थी। वह साधु के चरणों पर मस्तक रखकर फूट फूटकर रो रहा था।

“ भगवान सुनते तो है लेकिन, हम उन्हें पुकारते कहाँ हैं ? “ साधु ने स्नेह भरे स्वर से कहा। विपत्ति में भी हम भगवान का स्मरण नहीं कर पाते, कितना पतन है हमार हृदय। ”

“ लेकिन प्रभु ! वे सर्वज्ञ शक्तिमान है, दयामय कहे जाते हैं। “ उनकी वाणी में अपार वेदना थी। मेरे घर के तो सभी नित्य प्रातः-सायं पूजा करते थे। “

“ लेकिन भाई ! किसी मूर्ति पर दो बूँद जल डाल देना, दो फूल चढ़ा देना, दो चार पद्य या श्लोक सुना देना ही तो पूजा नहीं है। पूजा तो तब होती हैं, जब हम भगवान को सचमुच मानें। , साधु महाराज के स्वर में कोमलता के साथ उलाहना था।

“ तो क्या मैं भगवान को मानता नहीं ? “ उसने मस्तक उठाया। “ भगवान सर्वव्यापक हैं, यह हम सब जानते मानते हैं। “साधु ने उसी शाँति से कहा “ “ लेकिन हम झूठ बोलते हैं, दूसरों को धोखा देते हैं और अनेक पाप करते हैं। संकट में घबरा जाते हैं, कि भगवान को पुकारने का स्मरण तक नहीं रहता। “

“संकट भी संकट जैसा हो तब न। “ अपने नेत्र पोंछने जैसी भी उसमें शक्ति नहीं थी। गला रुँधने से अटक अटक कर बोल पा रहा था- “ महाप्रलय एक साथ ही सिर पर टूट पड़े तो किसका चित्त ठिकाने रहें ?कोई उस समय क्या करता है, या क्या सोच समझ कर किया जा सकता है। “

“ कोई क्या मानता है, क्या जानता है इसका इसी महासंकट में तो पता लगता है। साधु ने स्थिर गम्भीर स्वर में कहा -” एक नन्हें बच्चे को जब वह माँ से दूर हो डराकर देखो। वह जानता है कि माँ दूर है, आ नहीं सकती, किन्तु वह भागेगा पीछे, कंकड़ पत्थर मारने की सुध उसे पीछे आयेगी, वह पहले पुकारेगा माँ ! माँ ! और हम तो जानते हैं कि सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान परमात्मा हमारे पास है। हमें वह आधे क्षण के करोड़वें भाग से बचा सकता है। यदि हम हृदय से परमात्मा को माने, हम आस्तिक हो तो उसे विपत्ति में पुकारना भूल जायँ, क्या यह बन सकता है ?”

उसने नतमस्तक झुका दिया। उसका शरीर जैसे ऐंठकर शिथिल हो गया हो। उसकी वाणी खिन्न हीन, निराश, अंतिम श्वास लेते प्राणों की वाणी जैसी थी- “ परमात्मा “

जब तुम्हारे पीछे तुम्हारे महाराज खड़े हो तो भले ही तुमने उन्हें देखा नहीं, पर जान गये हो की वे तुम्हारे पीछे दबे पाँव चले आ रहे हैं कोई तुम्हें एक हजार स्वर्ण मोहरें दे तो तुम उसके लोभ को पकड़कर उस समय कोई भेद बता सकोगे ? तुम कोई भी बुराई कर सकोगे उस समय ? कोई कर्तव्य तुम्हारे सामने हो तो उसमें तुमसे ढिलाई होगी ?तुम्हारा कोई शत्रु तलवार लेकर तुम्हारे सामने आ खड़ा हो तो तुम जानते हो कि तुम क्या करोगे उस समय ?” साधु ने गम्भीरता से प्रश्न किये।

“ मेरे उदार महाराज ! “ उसने एक बार मस्तक झुकाया। या तो शोक के वेग में साधु की पूरी बात सुनी या उसका उत्तर देना उसे उचित नहीं जान पड़ा। वह केवल अंतिम प्रश्न के उत्तर में बोला- “ मेरे महाराज मुझसे कुछ दूर भी हो इतनी दूर कि मैं उन्हें पुकार सकूँ ? मुझे किसका भय ?”

“ निखिल ब्रह्माण्ड नायक - परमात्मा तुम्हारे पास है, घबराहट होती है, इसका तो यही अर्थ है कि परमात्मा हैं, और सर्वत्र हैं, इस बात का हृदय में पूरा निश्चय नहीं, साधु कहते जा रहें थे -आस्तिक पाप नहीं कर सकता, कर्तव्य में प्रमाद नहीं कर सकता, और भयभीत नहीं हो सकता। आस्तिकता की कसौटी ही है निष्पाप, कर्तव्यनिष्ठ और निर्भय होना। आस्तिक की पूजा ही यथार्थ पूजा है। ”

“महाराज ! मैं आस्तिक नहीं हूँ। ” मुझमें ऐसा विश्वास कभी नहीं रहा है। “ वह बोल नहीं रहा था, उसके प्राण चीत्कार कर रहें थे “परमात्मा !”

वह राजपूत है। दूसरे राजपूतों के समान वह भी है। किंतु दूसरों के बहुत से दोष उसमें नहीं है। वह यहां के ठिकानेदार का अंगरक्षक है। उनका विश्वासी सेवक है। अपने ठिकानेदार को वह ‘ महाराज ‘ कहता है। उसके तो महाराज ही है।

राजस्थान के राजपूतों में कुछ दोष भी है। दोष किसमें नहीं है। वह भी अपने को निर्दोष कहाँ कहता है, किन्तु आप उससे शपथ ले सकते हैं कि उसने कभी माँस या मदिरा छुई हो। एक और भी दोष राजाओं, ठिकानेदारों में जहां तहाँ मिलता ही था और उसके पार्श्वचर लोगों का उसमें सम्मिलित हुए बिना निर्वाह नहीं था। उनके सामने भी बात आई थी और उसने बिना सोच -संकोच के तलवार खींच ली थी - दूसरी की बहिन बेटी तो मेरी बहिन बेटी है। उसका दिन का रौद्र रूप, किसको मारना था जो उससे फिर कोई ऐसी वैसी बात कहता।

कुल परम्परा से उसे ठिकानेदार की सेवा मिली है, शूरता मिली है और आस पास के राजपूतों से सर्वथा भिन्न आचार मिला है। उसके पिता जब मरण शैय्या पर थे, उन्होंने कहा था - “ बेटा ! भगवान नारायण हमारे कुल देवता है। माँस और शराब हमारे कुल में किसी ने छुई नहीं है। यह खड्ग यह तो माँ भवानी का साक्षात् रूप है। यह मेरे पिता - पितामह के हाथ में रहता आया है। इसकी लज्जा रखना। कुल को कलंक मत लगाना। ”

आज आप उसकी व्यथा उसकी दारुण पीड़ा समझ नहीं सकेंगे। राजपूत को जिस परम धर्म की रक्षा के लिए नारी के गौरव को उज्ज्वल रखने के लिए उसने एक दिन अपने उस स्वामी के सम्मुख भी तलवार खींच ली थी, जिसके लिए अपना मस्तक काट कर रख देने में भी संकोच नहीं। उसका यही परम धर्म आज नष्ट हो रहा था। आज उसके सामने उसका वह परम धर्म..............वह विचार करने में असमर्थ हो रहा था।

परमात्मा ! परमात्मा ! ! उसने कभी किसी नारी की ओर वासना भरी दृष्टि नहीं उठायी। किसी की वासना को ‘हूँ’ कहकर भी उसने समर्थन नहीं किया। आज उसके घर की नारी उसकी बहिन -ये नर पिशाच.......हे भगवान् ! वह जैसे उन्मत्त हो गया है। उसे न पृथ्वी दिखती है न आकाश। सारी दिशाएँ जैसे घूम रही है।

भारत का विभाजन पता नहीं कितने अनर्थ किये - इस विभाजन ने। उसकी गाँव सीमा का गाँव बना और सीमा के गाँव की जो दुर्दशा होती है, उसे भी क्या बताना पड़ेगा, दो राष्ट्रों में मैत्री हो, संधि हो, तब भी सीमा के गाँव पर रात दिन कोई न कोई संकट चढ़ा रहता है और जहाँ इतना उपद्रव इतनी कटुता ख् इतनी आपाधापी हो...........।

था वह घर पर ही। किसी का घर पर रहना क्या अर्थ रखता है ? बहुत छोटा गाँव है उसका। थोड़े से लोग रहते हैं। वे सावधान भी होते तो कुछ होना, जाना नहीं था और उस समय तो सब रात्रि में अपने अपने घरों में सोये पड़े थे। वह अपनी तलवार लेकर दौड़ पड़ा कुछ और राजपूत भी दौड़े होंगे। किंतु सीमा के दूसरी ओर से जो उपद्रवी चढ़ आये थे, उनकी संख्या बहुत बड़ी थी। राजपूत गिने चूने थे। कुछ भी हो जब मरना ही हैं, तो सम्मुख युद्ध में मरने से पीछे क्यों हटें ?वह जैसे आंखें बन्द करके टूट पड़ा था। उसे पता नहीं पीछे क्या हुआ ? वह दूसरे दिन चढ़े नेत्र खोल सका था। कोई उसे अपने घर उठा लाया था। उसके स्थान पर शरीर में घाव थे। स्थान स्थान पर शरीर में पट्टियाँ बँधी थी।

उपद्रवी केवल उपद्रवी थे। लूट पाट और हत्या ही उनका उद्देश्य था। वे शीघ्र ही भाग गये थे। कुछ लोग और कुछ गांव के लोग खेत रहे थे। कुछ पशु, संपत्ति लुटेरे ले गये थे और कुछ मनुष्य भी। कुछ झोपड़ियाँ और मकान भस्म हो गये थे।

“ अपना घर जल चुका है। बहुत थोड़ी सामग्री बची है। “ उसकी स्त्री उसके सिरहाने बैठी थी और भरे नेत्रों से उसकी ओर देख रही थी।

“संध्या कहाँ है ? “ पत्नी की बात का उत्तर दिये बिना उसने पूछा। “ संध्या उसकी छोटी बहिन उसे क्यों नहीं दिखती।

“ वह तो मिली नहीं। “ पत्नी ने सिर झुका लिया।

“ मिली नहीं ? कहाँ गयी वह ? “ वह झटके से उठ बैठा। एक क्षण में सब बातें उसकी समझ में आ गयी। पत्नी ने उसे रोकना चाहा, किंतु पता नहीं कहाँ की शक्ति उसमें आ गयी थी। स्त्री को एक ओर झटक कर वह बाहर आया॥ बिना किसी की सहायता के उसने सिडनी कसी और उठ चला। आज उसकी ऊँटनी को जैसे पंख लग गये थे। अच्छे पशु अपने सवार की उदारता भाप लेते हैं।

महाराज ! उसे और कहाँ जाना था। उसके परम आधार तो उसके महाराज थे।

“ तुम क्या चाहते हो ? “ ठिकानेदार जरी ने बड़े ही धैर्य से, बड़ी शाँति से उसकी बाते सुनी। लेकिन वे कर ही क्या सकते थे ? एक ठिकानेदार की शक्ति ही कितनी होती है और यह तो अब दूसरे देश की बात हो गयी थी।

“ मेरी बहिन। “ वह तो पागल हो रहा था।

“ मैं क्या करूं ? जहाँ इस समय अपने पूरे देश की शक्ति कुछ नहीं कर पा रही है, वहाँ मैं क्या कर सकता हूँ ? “ ठिकानेदार उसे बहुत मानते थे, बहुत स्नेह करते थे उससे, लेकिन विवश थे।

“ हे भगवान। “ आशा नष्ट हो जाने पर मनुष्य कदाचित ही जीवित रह पाता है। लेकिन मुख में भगवान का नाम आया और एक नवीन लहर आई हृदय में। एक आशा की दूसरी ज्योति दिखाई दी।

वह पढ़ा लिखा कम ही है। उसे तो तलवार की और राजपूत के आत्म गौरव की ही शिक्षा मिली है। वह शिक्षा इस समय काम आये ऐसा नहीं है। उसका कुल भगवान नारायण का उपासक रहा है। वह बचपन से साधु संतों पर श्रद्धा करता आया है। यहाँ से कुछ दूर एक टेकरी है। टेकरी पर कुटिया है। कुटिया में एक संत रहते है। संत सिद्ध है। सिद्ध संत अपनी इच्छा से ही सब कुछ कर सकते हैं। असंभव भी संभव कर सकते हैं। यही है उसकी आशा का आधार। उसकी ऊँटनी फिर पूरे वेग से दौड़ने लगी।

उसका दुःख उसकी पीड़ा, बात उसके शरीर से नीचे बँधी पट्टियों के घावों में नहीं है। पीड़ा का हाहाकार तो हो रहा है, उसके हृदय में। एक राजपूत और उसकी बहिन....वे क्रूर...पशु..........पिशाच.......।

साधु की बात वह सुनता रहा। साधु की बात सुन लेनी चाहिए, यह उसने सुना है। साधु को अप्रसन्न नहीं करना चाहिए, वह यह जानता है। पता नहीं क्यों इस टेकरी पर पैर रखते ही उसका उन्माद बहुत कुछ दूर होने लगा था। उसका हृदय अपने आप किसी अज्ञात शक्ति से आश्वस्त हो रहा था। साधु की बात सुन सके, इतना धैर्य उसमें आ चुका था।

“ परमात्मा। ” उसने साधु की बात सुनकर बड़ी कातरता से कहा। वह आस्तिक न सही, साधु महाराज भगवान के परम भक्त है। वह उन्हीं से तो दया की याचना करने तो यहाँ आया है।

भगवान दयामय है। वे किसी आर्त प्राणी की पुकार कभी अनसुनी नहीं करते। कोई संकट में उन्हें पुकारे और वे उसकी पुकार न सुने, यह हो नहीं सकता। साधु पर उसकी पुकार का प्रभाव पड़ा था। उसके स्वर में वज्र जैसी दृढ़ता और सम्पूर्ण निश्चय था। उसके नेत्र आकाश में कही स्थिर हो चुके थे।

“हे प्रभु! वह एक बार फिर मन-प्राण-अंतःकरण से पुकार उठा। साधु के आदेश का उसके हृदय पर सीधे प्रभाव पड़ा था।

“ भैया ” उसकी पुकार पूरी होती न होती दूसरी पुकार आई। टेकरी पर चढ़ता कोई नारी स्वर गूँज रहा था।

“संध्या। ”वह चौक पड़ा और दूसरी क्षण ही दौड़ा। दयामय प्रभु। साधु ने भूमि पर मस्तक रख दिया और फिर अपनी दोनों आंखें पोंछ ली, जिसमें भाव बिन्दु छलक उठे।

संध्या अकेली नहीं आई थी। उसके साथ एक और लड़की थी। आज उसका स्वरूप देखने योग्य था। उसके केश बिखर रहे थे। सारा शरीर रेत से भरा था। दाहिने हाथ में एक नंगी तलवार थी, जिसे अब भाई को देखते ही उसने झन से फेंक दिया था। उसके मुख पर, उसके नेत्रों में एक अद्भुत दीप्ति थी। उसने बाँये हाथ में उस लड़की का हाथ पकड़ रखा था और वह लड़की तो जैसे पुतली हो। संध्या के हाथ के संकेत पर चले चलने के अतिरिक्त जैसे वह और कुछ करना जानती ही नहीं हो।

“ तुम यहाँ कैसे आई बेटी! यह कौन हैं?” जब भाई बहन मिल चुके, उसका आवेग घटा, संध्या ने और दूसरी लड़की ने साधु के चरणों में सिर झुकाया और बैठ गयी तब साधु ने पूछा।

“ मेरे गाँव पर रात में लुटेरों ने आक्रमण किया था। ” संध्या ने मस्तक नीचे किये हुए कहा।

“ तुम्हारे भाई ने बहुत कुछ बता दिया है। “ साधु ने बीच में रोका तुम लुटेरों के हाथ से छूट कैसे आई ?”

“ मुझे किसने पकड़ा था ?मुझे कौन पकड़ सकता था ?” संध्या ने ऐसे दृढ़ स्वर में कहा, जिसे सुनकर उसके भाई को भी आश्चर्य लगा। वह भी अपनी बहिन का मुख देखने लगा।

“ तब तुम थी कहाँ ? “ साधु ने ही पूछा।

“बाबा ! लुटेरे बहुत बुरे होते हैं। वे किसी स्त्री के धर्म की रक्षा करना नहीं चाहते। “ संध्या के लिए यह बहुत बुरी और बहुत अद्भुत बात थी। भला कोई पुरुष स्त्री की मर्यादा का सम्मान कैसे नहीं करेगा। वे लुटेरे इस बेचारी को पकड़े लिए जा रहें थे। इसे बहुत गन्दी गन्दी गालियाँ दे रहे थे। यह रो रही थी, प्रार्थना कर रही थी, पर वे सुनते ही नहीं थे।

“तू इसे बचाने गयी थी?” साधु इस स्नेह से पूछ रहे थे, जैसे अपनी सगी पुत्री से पूछ रहे हों।

“मैं बचाने नहीं जाती बाबा ?यह मेरे गाँव की बहिन लगती है। कोई दुख में हो तो बचाना नहीं चाहिए बाबा ?” संध्या ने सहज भाव से कहा -”मैं दौड़ी मुझे एक कसया घोड़ा खाली मिल गया। एक कोई वहाँ मरा पड़ा था, मैंने उसकी तलवार ले ली। लेकिन बाबा लुटेरे कायर होते है। मैं उनके पीछे घोड़ा दौड़ाती गयी। उन्होंने पहले तोगारेलियाँ चलाई, लेकिन फिर पीछे डर गये। मैं इसे घोड़े पर बैठाकर घर आ रही थी, लेकिन रास्ता भूल गयी। पता नहीं कहाँ भटक गयी। वह घोड़ा भी अड़ियल था। बार बार पीछे ही मुड़कर भागता था। इससे मैंने उसे छोड़ दिया। बहुत भटकती भटकती यहाँ आई हूँ। बहुत थक गयी हूँ बाबा। ”

“उतने लुटेरे के पीछे तू अकेली दौड़ी गई। तुझे डर नहीं लगा? “वे तुझे पकड़ लेते तो क्या करती?” साधु के स्वर में उलाहना नहीं स्नेह था।

“क्या मैं मरना नहीं जानती? वे मुझे कैसे पकड़ लेते?” भगवान नहीं है क्या बाबा? भगवान मुझे बचाते न। मैं उन सबसे क्यों डरूं?” संध्या की वाणी में अविचल विश्वास था।

“इसका नाम हैं आस्तिकता। तुमने आस्तिक देखा?” साधु ने संध्या के बदले उसके भाई की ओर देखा। वह क्या कहें? वह संध्या का भाई है, यही क्या कम गौरव की बात है उसके लिए।


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