मोह दूर होता है महापुरुषों की कृपा से

January 1996

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मंजरियों के सुरभित भार से कोमल शाखाएँ बड़ी डालियों के साथ झुक गयी थी। ऐसा लगता था कि आम के पेड़ किसी अज्ञात के विलुप्त चरण चिन्हों पर अपना सौरभ संभार उत्सर्ग करने को आकुल हो पड़े हों। भँवरों की गुँजार के बीच कोयल की ‘कूहु’ और पपीहे की ‘पी’ कहाँ हृदय के रस को भिगोये दे रही थी।

बीच में एक पीपल था। अपने मूल में स्थित संन्यासी की भाँति वह भी अपने कोपलों के गेरुए रंग से रंग रहा था। एक भी पत्ता हरा न था। एक प्रशाखा भी पत्रहीन न थी। कोमल अरुण पत्र पूर्णतया ढके थे।

संन्यासी युवक था। उसके कपड़ों की तरह उसका शरीर भी अरुणाभ लग रहा था। इस आम के बगीचे में एक पीपल के नीचे संपूर्ण राग को घनीभूत किये भीविराग की मूर्ति बना बैठा था। शृंगार की गोद में अचंचल शाँत रस की भाँति वह बड़ा मोहक लग रहा था।

‘ ये विलोल किसलय ‘ संन्यासी के नेत्र ऊपर उठे। मलय पवन अरुण कोमल पत्तों से अठखेलियाँ कर रहा था। मेरा मन भी इसी प्रकार चंचल हो रहा है। यह अपने आप ही कह रहा था।

‘ वह सुन्दर सलोना हास्यपूर्ण मुख, बड़ी बड़ी आंखें सुकुमार किन्तु मोहक देह यष्टि। आँखों में से कुछ जल बिन्दु छलक उठे। बाहर का राग अंतर में प्रवेश कर गया था। संभवत अभी नया नया वेश धारण किया था। किसी की मधुर यादें प्रकृति का प्रोत्साहन पाकर अंतर्मन में उल्लसित हो उठी थी।

यह सब मोह है। बड़े जोर से उसने सिर झटक दिया। जैसे मस्तक पर रखे भार को दूर फेंक देना चाहता हो। आँखों पर हाथ फेरा। कमर सीधी की और आँखें बन्द कर ली। संभवतः ध्यान करने की कोशिश होने लगी।

मन तो एक नटखट बालक जैसा है। जिधर जाने को कहो उधर झाँकता नहीं चाहता, और जिधर से वर्जित करो, चौकड़ी भरने में उसे बहुत उत्साह रहता है। अवश्य ही बहानेबाजी उसे बहुत बढ़िया आती है।

कई बार आँखों को जबरदस्ती बन्द किया। प्राणों को रोकने का सतत् प्रयास कष्ट देन लगा। माथे पर पसीने की बूँदें झिलमिल करने लगी, किन्तु मन नहीं माना नहीं माना। विवश संन्यासी ने आंखें खोल दी। आसन ढीला हो गया।

यह सब मिथ्या है वे सब अपने आपस कहने लगे। मेरी बुद्धि में कोई भ्रम नहीं। यह सब नश्वर है। न जाने क्या क्या ऐसी बाते वे अपने आप में बड़बड़ाये जा रहे थे।

यह सौरभ समारोह, यह कोमल और पंचम स्वर, यह किसलय हल कमनीयता, उनके नेत्र अपने चारों ओर घूम रहे थे। क्या यह संपूर्ण सौष्ठव बेकार है ? क्या यह समस्त सुख संभार दुखदायी हैं ? आप कह सकते हैं कि उनके द्वारा उनका मन बोल रहा था।

‘ज्ञानानन्द तू भ्रान्त हो रहा है। ’ वे पुनः चौके ‘ यह सब मायिक प्रलोभन है। मस्तिष्क उन्हें चेतावनी दे रहा था। अंतरात्मा की दृढ़ पुकार उन्हें एक क्षण के लिए सजग कर रही थी। संन्यासी इस मन मस्तिष्क के द्वन्द्व से चंचल हो उठें। वह उठ खड़े हुए। अधोवस्त्र में लगी पीछे की धूल एवं तिनकों को हाथ से झाड़कर बड़ी तेजी से वहाँ से चल पड़ें।

‘मल में निवृत्ति तपस्या- यम नियमादि पालन, श्रवण मनन से होती है। विक्षेप दूर होता है उपासना निदिध्यासन या ध्यान से और आवरण समाधि भगवत्कृपा से स्वतः तिरोहित हो जाता है।

चन्द्रमा की चाँदनी ने उस सुविस्तृत अमर भूमि पर चाँदी की कालीन बिछा रखी थी। आस पास न कोई गांव था और न पेड़। धान की ऊँची नीची मेड़े चारों ओर बिखरी थी। खेतों में कटे धान की जड़े साफ दिख रही थी। धवल चांदनी में एक चौड़ी मेंड़ पर जो राहगीरों के निरन्तर आने जाने के बीच में उजली हो गयी थी, युवक संन्यासी चले आ रहे थे।

‘कोई भी तो नहीं है। ’ एक बार खड़े होकर उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। अपने दोनों ओर इधर उधर देखा। मैंने अभी किसकी शास्त्र चर्चा सुनी हैं ? ‘ वह कौन था ? कहीं कोई आड़ नहीं थी। कई फलाँग दूर का व्यक्ति भी दिख जाता। स्वर समीप से आया था।

‘हरि ॐ ‘ उच्च स्वर से साधु ने कहा। शरीर में रोमाँच हो आया था। अकारण ही मन में एके आतंक उठ रहा था। उसी को दूर करने के लिए उन्होंने ध्वनि लगायी थी। उसे वे दुहराते ही जा रहे थे। चरणों की गति के साथ प्राणों ने भी गति बढ़ा दी और हृदय ने भी। पता नहीं क्यों गर्मी लगने लगी थी और मस्तक पर कुछ पसीने की बूँदें भी इस रात की सर्दी में पकड़ होने लगी थी।

‘अभयं सत्यं संशुद्धि’ याद हो आया। ‘छिः’ मैंने अभी तक साधनावस्था की पहली सीढ़ी पर भी पाँव नहीं रखा है। यह शरीर का मोह है। संन्यासी वही खड़े हो गये।

‘ तब आप क्या करना चाहते हैं कि विश्वामित्र की तपस्या ने उनका मल नष्ट कर दिया था और इसी से वरिष्ठ पुत्रों की हिंसा में लगे थे एवं महातपस्वी दुर्वासा की भी यही दशा थी।

संन्यासी चारों ओर आंखें फाड़ फाड़कर देख रहे थे। शरीर में रोमाँच बार बार हो रहा था। समझ में नहीं आ रहा था कि यह शब्द कहाँ सके आ रहा है।

‘अरे नहीं’ मृदु हास्य की ध्वनि हुई। यह क्रोधादि विकार तो विक्षेप के फल थे और इसी से वे स्थायी न रह सके। फिर भी इतना स्मरण रखना चाहिए कि आवरण निवृत्ति से पूर्व साधन शिथिल होते ही निवृत्ति होते हुए भी मल विक्षेप पुनः जागृत हो जाते हैं, क्योंकि इसका मूल तब तक नष्ट नहीं हुआ रहता।

सहसा धक से एक लपट बगल के खेत की दूसरा मेंड़ से उठी। संन्यासी का हृदय भी एक बार धक से हो गया। नेत्र उधर ही स्थिर हो गये। सहसा उज्ज्वल चांदनी में धुँए की उठती हल्की रेखा उन्होंने देख ली। कुछ आश्वासन मिला। पाँव उधर ही खेत की ओर मुड़ गये।

ऊँचे नीचे खेतों में एक स्थान पर लकड़ी के दो कुन्दे धीरे धीरे जल रहें थे। आग के दोनों ओर एक साधारण सा मैला उत्तरीय बिछायें दो अलमस्त लेटे थे। उनकी कटि में कौपीने थी, पर गैरिक नहीं और कोई वस्त्र नहीं था। न भभूतिए, न जटाधारी। दोनों के समीप एक एक मिट्टी की हण्डी रखी थी। पता नहीं कैसे साधु थे वे।

ॐ नमो नरायणा “ संन्यासी ने देखते ही कहा। उनमें से जो कुछ वृद्ध थे बोले नारायण। आओ संत कोई उठकर अठा नहीं। संन्यासी ने भी उधर ध्यान नहीं दिया॥ वे अग्नि के समीप एक ओर बैठ गये।

इस अग्नि को तो आप देख ही रहे हो। वृद्ध साधु ने कहा “प्रज्वलित होने से पहले यह काष्ठ रूप में ही तो थी? यह भी समझते ही हैं कि अभी इस पर वृष्टि हो जाय तो तो यह अवशेष काष्ठ ही रहेगी। क्या आप ऐसा भी कोई उपाय गता सकते हैं जो वृष्टि से बचा सके। “

“ बहुत सीधी बात है “ संन्यासी ने कहा “ इस पर छाया कर दी जाये। “वर्षा तो होगी ही। बड़े बड़े की अग्नि इसमें बुझ जाती है और पुनः उसके लिए दौड़ते हैं। वृद्ध जैसे अपने आप में कुछ कह रहे थे। “ इस प्रकृति गगन में वर्षा भले कैसे रुकेगी। अग्नि तो रक्षा के लिए छाया चाहती है। “

“ मैं कुछ भी समझ नहीं सका भगवन्।

“संन्यासी ने बड़े विनम्र भाव से प्रार्थना की।

“अग्नि स्वतः अपनी छाया नहीं बनाती। ” वृद्ध ने प्रार्थना पर ध्यान दिया ही नहीं। वे वैसे ही कहते गये। “छाया तो उसे दूसरे से ही प्राप्त होती है। ”

“ किन्तु भगवन्.............। ” संन्यासी कुछ कहने जा रहे थे। उनकी भावभंगिमा कह रही थी कि अभी वे कुछ समझ नहीं सके है और अपनी प्रार्थना दुहराने जा रहे है।

“ नहीं नारायण “ वृद्ध ने उन्हें बीच में ही रोका “हम तो अनपढ़ है। आप श्रीवत्स लक्षित क्षीरशायी का ध्यान करें, वही आप को छाया देंगे। ”

हाँ सन्त ; उन्होंने अपने सहचर से पूछा हमारे अभ्यागत के आने का समय ही गया है ?

“प्रभु का अनुमान व्यर्थ नहीं होता। “ उस युवक साधु ने इस प्रकार नम्रता से उत्तर दिया जो बताता था वह वृद्ध का शिष्य है। ” पंडित गोपीनाथ आने ही वाले है। ”

संन्यासी ने इतना ही समझा कि ये दोनों महापुरुष किसी की प्रतीक्षा कर रहे है, पर क्यों ? यह भी क्या कोई प्रतीक्षा करने का स्थान हैं ? इस धान के खेतों में इस अर्द्ध रात्रि में कौन तीसरा व्यक्ति यहाँ आवेगा ? उससे मिलने को यही स्थान क्यों निश्चित किया गया ? अनेक प्रकार की शंकाएँ उठ रही थी। इनका कोई भी समाधान न था।

“ लीजिए पण्डित जी आ गये। ” युवक साधु ने कहा और थोड़ी दूर पर एक उज्ज्वल वस्त्र पहने कोई आता दिखाई पड़ा। चुनकर पहिनी धोती, कुर्ता, कन्धों पर दुपट्टा सभी दुग्धोज्ज्वल वस्त्र थे।

निकट आने पर एक गौरवर्ण तेजस्वी व्यक्ति के दर्शन हुए जिनका विशाल मस्तक त्रिपुण्ड की भस्म से विभूषित हो रहा था।

“नारायण “ सहसा वृद्ध बैठ गये। युवक साधु ने उठकर अग्नि के एक ओर चद्दर बिछा दिया। संन्यासी बड़े आश्चर्य में थे के प्रति महापुरुषों को इतना सम्मान प्रदर्शन क्यों ?

टाप इस सेवक को लज्जित न करें। पण्डित गोपीनाथ ने दोनों को हाथ पकड़कर मस्तक झुकाया।

“हे” संन्यासी चौंक पड़े। वे दोनों साधु उनका चद्दर व हड्डिया क्या हुई। यहाँ तो वही पण्डित एकाकी उसके सम्मुख खड़े है।

संन्यासी को चकित होता देख पण्डित गोपीनाथ बोल पड़े “ सिद्धों की गति के संबंध में आप को इतना आश्चर्य क्यों ? आप पर कृपा करके उन्होंने दर्शन दिये है। अब आप निकट ही पधार कर इस ब्राह्मण के घर को पवित्र करें। आप उन से परिचित जान पड़ते हैं। संन्यासी ने उत्सुकता पूर्वक पूछा “वे कौन थे ?यदि मैं जानने का अधिकारी होऊँ........................।

“ वे भगवान दत्तात्रेय के अंतरंग है। ” बीच में ही उन्होंने कहा। “ इस सेवक पर उनकी कृपा रहती है। आज अंतर में उन्हीं की प्रेरणा हुई और मैं रात्रि में उधर चल पड़ा। अब आप पधारे तो कृपा होगी। “

पंडित गोपीनाथ के आग्रह को संन्यासी टाल न सके। वे उनके साथ चल पड़े। “ विक्षेप की निवृत्ति उपासना ध्यान में होती है। “ गोपीनाथ जी जैसे स्वतः बाते करने के अभ्यस्त हो। प्रज्ज्वलित अग्नि भी वृष्टि से बुझ गयी। उसे छाया अभीष्ट है।

संन्यासी चौके कि ये ब्राह्मण देवता क्यों उन महात्माओं के वचनों की आवृत्ति कर रहे है। “ भगवान में इन गूढ़ वचनों को समझ नहीं पा रहा हूँ। उन्होंने बिना संकोच के कह दिया। ”

“महाप्रभुओं ने ठीक ही समझाया है। आप अपने मूल प्रश्नों को ही समझे। ” पण्डित जी ने उसी प्रकार बिना इधर उधर देखे, अनक्षेप भाव से कहा - “संयम दो प्रकार का होता है। एक अज्ञान जन्य और दूसरी मोह जन्य -अशक्ति जन्य। “

संन्यासी का सम्पूर्ण प्राण कानों में आ गया

था। वे न मार्ग देख रहे थे और न शरीर। पैर स्वतः बढ़े जा रहे थे। एकाध ठोकर भी लगी। इतने पर भी वह सुनने में दत्तचित्त थे।

“श्रवण मनन-निदिध्यासन से अज्ञान दूर हो जाता है। बुद्धि उसी परमतत्व की सत्यता को समझ लेती है। “ गोपीनाथ जी कहते जा रहे थे - “हृदय स्वीकार कर ले तो ठीक। अशक्ति पूर्ण हृदय अशक्ति का वेग प्रबल होने पर बुद्धि को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। वह पुनः भ्रान्त हो जाती है। ”

“ ज्ञान हो जाने पर भी अज्ञान की प्राप्ति होती है ?” संन्यासी के स्वर में आश्चर्य था।

“अपरोक्ष ज्ञान के पश्चात तो अज्ञान की प्राप्ति असंभव है। “ उन्होंने उसी धीर स्वर में कहा- “ किन्तु परोक्ष ज्ञान केवल अज्ञान के एक रूप को निवृत्त करता है। मोह के दो रूप है, अज्ञान जन्य एवं अशक्ति जन्य। पदार्थों में अज्ञान वश जो सुख समझ रहा है, वह असक्त ज्ञान से नष्ट हो जाती है।

प्र इतने भी आसक्ति मोह नहीं जाता। ”

संन्यासी ने उनकी ओर इस तरह देखा जैसे वे ठीक नहीं समझ पा रहे है।

“ जैसे शराबी मदिरा को लाभदायक समझकर पीना प्रारम्भ करता है। ” उन्होंने स्पष्ट किया “ समझाने पर वह उसे हानिकर तो समझ लेता है, किन्तु व्यसन होने से छोड़ नहीं पाता। इसी प्रकार भोगो में सुखरूपतसा का बोध तो ज्ञान दूर कर देता है, किन्तु जन्म जन्मान्तर के सेवन से उसमें व्यसन हो गया है, उपासना से, महापुरुषों की कृपा से। ”

“ और आप के श्री चरणों के प्रताप से। ” सहसा संन्यासी को उन दोनों महापुरुषों के गुरु वचनों का ज्ञान हुआ। वे बड़ी शीघ्रता से घुटनों के बल बैठ गये। पण्डित जी झिझके इससे पहले ही उनका मस्तक उनके चरणों में पहुँच गया, एक क्षण के पश्चात ही वे उठे ओर बिना कुछ कहे शीघ्रता से एक ओर चले गये। पता नहीं क्या सोचकर महामहोध्याय पं. गोपीनाथ कविराज ने भी उन्हें रोका नहीं।


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