सेवा-साधना निज की प्रगति के लिए भी अनिवार्य

May 1995

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मनुष्य का शारीरिक और मानसिक अभ्यास जैसा होगा उसी के अनुसार उसके बाह्य जीवन निर्माण होता है। दूसरों के अहित का विचार करने, वाले दूसरों के लिए बुरे, हानिकारक दुष्कृत्य करने वाले व्यक्तियों के जीवन में इन्हीं तत्वों की प्रधानता हो जाती है। उनका स्वयं का जीवन भी बुराई, अहित एवं हानि की भावना से प्रभावित होता चला जाता है। यह एक मनोवैज्ञानिक तत्व है।

सेवा का आधार जितना स्वार्थमुक्त होगा, वास्तव में दूसरों के परमार्थ का, त्याग का होगा, उतना ही बड़ा सुपरिणाम भी मनुष्य को प्राप्त होगा। किन्तु सेवा को ढोंग बना देने पर परमार्थ नहीं, दूसरों के साथ धोखा देही, छल कपट, चालाकी और स्वार्थ साधन मात्र बनकर रह जाती है। बाहर से ऐसी सेवा का आडम्बर कितना भी बड़ा क्यों न हो, कर्ता को उसका रत्ती भर भी वास्तविक सुपरिणाम नहीं मिल सकता। लोगों से प्रशंसा प्राप्त करने या कुछ कमाई कर लेने मात्र तक ही ऐसे सेवा आडम्बरों का लाभ सीमित रह जाता है।

सेवा के लिए कोई स्थूल नियम नहीं बनायें जा सकते। दूसरों के लिए कोई उपयोगी काम करके, उससे प्रेम करने के अभ्यास को बढ़ाया जा सकता है। दूसरों की सेवा करके अपने सद्भावों को विकसित किया जा सकता है। दूसरों के दुःख दर्द को अपना ही दुःख दर्द मानकर उसको दूर करने के लिए पूरा-पूरा प्रयत्न करना, अभावग्रस्तों की अभावपूर्ति में योग देना, दूसरों के दुख सुनना उनकी उन्नति कल्याण में योग देना, दूसरों की हर तरह की सेवा करने के लिए एक सेवक की तरह तैयार रहना, आत्म सुधार के लिए आवश्यक है। जो दूसरों के लिए जितना अपने आप को भुला देगा, वह उतना ही आत्मसुधार के क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकेगा। इस तरह की सेवा से सच्चे प्रेम का उदय होता है। यह मनुष्य के सब कलंकों को धो देता है। अंतर्बाह्य जीवन को निर्मल बना देता है। सेवा के साथ संतोष की वृद्धि हमेशा बनी रहती है।

सेवा जितनी बने उतनी करते हुए स्वयं अपनी सेवा की क्षमताओं का विकास करते रहना आवश्यक है। क्षमताओं के अभाव में सेवा का परिणाम और प्रतिफल स्वल्प ही रहेगा। जितनी व्यापक सेवा होगी उसके लिए उतनी ही व्यापक क्षमता और शक्ति की आवश्यकता पड़ेगी। सेवा से सम्बन्धित अपनी क्षमताओं का विकास करना भी सेवा का ही एक अंग है। हम चाहते हैं कि गरीबों को भोजन वस्त्र दें किन्तु हमारे पास देने को होगा तभी तो हम कर सकते हैं। हम चाहते हैं कि देश को उन्नति, विकास, कल्याण की दिशा में आगे बढ़ायें, किन्तु तत्सम्बन्धित क्षमताओं पर ही तो इसकी पूर्ति निर्भर है। हम चाहते हैं अधिकाधिक लोगों को सद्ज्ञान देकर जीवन लाभ करायें, किन्तु पहले हमारे पास ज्ञान की कमाई पूँजी का होना भी तो आवश्यक है।

सेवा, परिणाम और फल का ध्येय रखना सेवक के लिए आवश्यक नहीं उसके लिए प्रयत्न करने का आनन्द ही पर्याप्त है। परिणाम और फल की आसक्ति सेवा के आनन्द और स्वरूप को नष्ट कर देती है। फिर तो वह अन्य सांसारिक कार्यों की तरह व्यवसाय बन जाती है।

संवेदनशीलता का जागरण ही दूसरों की सेवा-सहायता-सहानुभूति का मूल आधार है। यह गुण जिसमें जितना होगा, वह उतना ही दूसरों की सेवा करने का अधिकारी बनता चला जाता है। सत् तत्व की स्थापना और हृदय की शुद्धि से ही संवेदनशीलता का जन्म होता है। अतः सेवक को प्रारंभ में अपने हृदय शुद्धि और स्वयं सत् तत्व की स्थापना के लिए प्रयत्न करना आवश्यक मानना चाहिए।

दयावान, सहानुभूतिशील और संवेदनशील होना हर लोकसेवी के लिए आवश्यक है। संवेदनशीलता का अर्थ यह भी नहीं कि कोई दुःख से रो रहा हो तो उसके पास बैठकर हम भी रोने लग जाएँ। इससे क्या लाभ? आवश्यकता तो रचनात्मक संवेदनशीलता की है, जो रोने वालों को हँसा सके, गिरे हुए को उठा सके। इसी का विकास करने के लिए संसार रूपी कर्म क्षेत्र बना हुआ है। हमें याद रखना चाहिए कि परमार्थ किए बिना कभी स्वार्थ सधता नहीं। यदि हम अपनी प्रगति चाहते हैं तो हमें औरों की सेवा सहायता के निमित्त समाज ऋण को चुकाने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए। यही मानव धर्म है।


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