भवानी शंकरौ वन्दे, श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ

May 1995

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सरस्वती के सौम्य उपकूल में, सामगान से मुखरित, यज्ञ धूम से धूसर हुए पत्तों की छाँव में जहाँ रोष-द्वेष से मुक्त हुए सिंह-शिशु और हरिण-शावक साथ-साथ खेला करते थे। वहीं कलित कुसुमित वल्ली निकुंज में पूर्वाभिमुख कुशाच्छादित वेदिका पर महर्षि जैमिनी एक मृगचर्म वल्कल डाले आसीन थे।

ब्रह्म, आवाहनीय एवं गार्हस्पत्य अग्रियों के विधि विहित आकार निर्मित कुण्डों से सुगन्धित धूम उठ रहा था। सुदूर दक्षिण में अश्वत्थ के नीचे अस्पृश्य की भाँति एकाकी दक्षिणाग्नि का कुण्ड दहकता हुआ दूसरों के गौरव पर अपनी चट्-चट् ध्वनि से अट्टहास कर रहा था। यज्ञशाला में नवग्रह, सर्वतोभद्र आदि वेदियाँ रंगीन अक्षत, तिल आदि से निर्मित, अद्भुत दृश्य उपस्थित कर रही थीं। दिक्पालों के कलश पुष्पमाल्य से पूजित थे तथा उन पर दीपक जगमगा रहे थे। ऊर्ध्वमुख किए पीताभ यवाकुंरों के अगले हिस्से कुछ हरे हो चले थे। ईशान कोण की पताका वन में भटके पथिकों को मार्ग दिखाने के लिए तरूशिखाओं से भी ऊँचा मस्तक करके लहरा रहीं थी।

नारियल के पात्र में आज्य प्रस्तुत था। हवि विधान पूर्वक बन चुकी थी। केले के पत्तों पर अगरू, अक्षत, माल्य तथा फलादि सभी उपयुक्त सामग्रियाँ सुसज्जित थीं। पंचकाष्ठ आदि समिधा शिष्यों ने एकत्रित कर ली थी और अब तो दिक्पालादि के पूजन के पश्चात् वेदध्वनि के बीच अरणिमन्थन चल रहा था।

गौरवर्ण, कृशकाय, श्वेत श्मश्रु-रोम जटाजाल, सुदीर्घ भुज, वक्ष, भाल, बांए हाथ में कुश का ब्रह्म दण्ड एवं दाहिने हाथ में स्रुवा लिए कृष्ण मृगचर्म, मौज्जी मेखला धारण किए हुए तेजोमय महर्षि जैमिनी साक्षात् अग्नि लग रहे थे। कर्मशास्त्र के प्रणेता ने स्वयं आज दीक्षा ली थी। विघ्न उसके नाम से ही काँप उठते। किसी देवता में शक्ति नहीं जो उसके आवाहन की उपेक्षा कर दे। सम्पूर्ण सिद्धियाँ उनके सामने हाथ जोड़े खड़ी थी। प्रकृति के तात्विक रहस्यों को उन्होंने खोज लिया था। पदार्थों, क्रियाओं एवं मन्त्रों की सूक्ष्म कम्पन शक्ति को वह भली भाँति जानते थे। अतः उनके यज्ञ कभी असफल होंगे, ऐसा हो ही नहीं सकता। वे प्रकृति पर शासन करने में पूर्णतः समर्थ थे।

शिष्य वृन्द परिचर्या में प्रवीण था। सभी सम्मान्य ऋषिगण निमन्त्रण पाकर पधारे थे। जिन तपःपूतों के संकल्प ही कभी व्यर्थ नहीं होते, वे ही विधि पूर्वक कोई अनुष्ठान आरम्भ करें तो सफलता करबद्ध खड़ी समझनी चाहिए। आवाहन से पहले ही देवताओं ने आकर अपने आसन ग्रहण कर लिए थे। कौन जाने आवाहन के समय पहुँचने में कुछ विलम्ब हो जाय और किसी महर्षि की भृकुटि पर बल पड़ जाय तो? अथवा महर्षि के संकेत पर वह काले वस्त्र पहने दक्षिणाग्नि के कुण्ड पर सावधान बैठा उनका प्रधान शिष्य स्रुवा उठा ले तो? वह साक्षात् यम के समान दण्डधर बैठा है। उसका काम ही है यज्ञ विघ्नों एवं यज्ञ में प्रमत्त होने वालों को अभिचार मन्त्रों से दण्ड देना। यह अथर्ववेदीय कुमार बड़ा भीषण है।

सिद्धियों के आह्वान की कोई आवश्यकता न थी। वे तो इन आश्रमों के छोटे-छोटे अंतेवासियों से वैसे भी भयभीत रहती थीं। लोकपालों ने अपनी सेवाएँ महर्षि के श्री चरणों में यज्ञारम्भ से ही निवेदित कर दी थी। उनके सर्वथा अचूक मन्त्रों की शक्ति से विवश होकर करने की अपेक्षा स्वेच्छा से करके उनकी मैत्री क्यों न प्राप्त की जाय? इन्द्र चकित थे। अन्ततः महर्षि यज्ञ कर क्यों रहे है? वे इन्द्रासन चाहें तो कौन उन्हें रोक सकेगा? विघ्न करने की तो कल्पना भी नहीं उठती। उनके संकेत पर तो उनके किसी छात्र के लिए भी देवराज सिंहासन त्याग देंगे। ब्रह्मलोक उनकी पितृभूमि है। वहाँ जब चाहें तब वे सशरीर जा विराजें। महर्षि के यज्ञ के संकल्प का पता सबको था। पर उसका स्पष्टार्थ कम से कम मीमांसकों की समझ में तो आया न था। संकल्प था- ‘अन्तस्थस्य अव्रलोकनार्थम्।' इस विचित्र यज्ञोद्देश्य के लिए यज्ञ की पूरी प्रक्रिया का निर्देश स्वयं महर्षि ने किया था उन्होंने ही मन्त्र निश्चित किए, पद्धति निश्चित की और होता, ऋत्विक् को प्रथम शिक्षित किया। सब कुछ पर्याप्त हो जाने पर आज उन्होंने पर आज उन्होंने दीक्षा ली।

मीमांसा शास्त्र, कर्म को ही ईश्वर मानता है। वहाँ कोई विशेष जगत का संचालक है ही नहीं। श्रुतियों का भौतिक दृष्टिकोण से अध्ययन करके महर्षि इसी तथ्य पर पहुँचे थे। कर्मफल के प्रदाता देवता तो प्रत्यक्ष थे, किन्तु वे कर्मानुसार फल देने को बाध्य नियन्त्रक मात्र। पितामह ब्रह्मा ने अपने भीतर ही सम्पूर्ण सृष्टि एवं उसके कर्ता, धर्ता, हर्ता सर्वेश का साक्षात्कार करके उनके आदेशानुसार ही- यथापूर्व सृष्टि प्रारम्भ की। यह श्रुति भी स्वीकार करती है और ब्रह्मा को मिथ्याभाषी भी नहीं कहा जा सकता। महर्षि जैमिनी इसी उलझन को सुलझाना चाहते थे। उन्होंने इस व्यवस्था को प्रत्यक्ष करने का निश्चय किया। यज्ञ ही उनका साधन था।

अभी कुछ ही समय बीता था। 'वरं ब्रूहि!' की पश्यन्ती वाणी में हंसस्थ पितामह ब्रह्मा बोल रहे थे। अपने अरुण परिधान में श्वेत हंस पर विराजमान, नील गगन में वे कुवलय दल पर जो मानसरोवर में विकसित हो पद्यराग जैसे प्रतिष्ठित थे। महर्षि को यह नवीन अनुभव हुआ कि यज्ञ के द्वारा त्रिदेवों को सन्तुष्ट कर अभीष्ट वर भी प्राप्त किया जा सकता है। अभी तक उनके यज्ञ, संकल्प विशेष के प्रदाता थे। संकल्प के बिना ही स्वेच्छा पूर्ति- यह नवीन बात थी।

अग्नि के साथ सम्पूर्ण ऋषि मण्डली ने पितामह को प्रणाम किया। पहले से प्रस्तुत आसन को कृतार्थ करने का ऋषियों का आग्रह सार्थक हुआ। 'मैं उसी अन्तस्थ का साक्षात् करना चाहता हूँ, जिसके दिव्य दर्शन प्रभु को सृष्टि के प्रारम्भ काल में हुए थे।' महर्षि ने पूजा ग्रहण करके विराजमान ब्रह्माजी के श्री चरणों को दोनों हाथों में लेकर निवेदन किया।

'यह तो मेरी शक्ति से परे का कार्य है।' पितामह ने कहा- 'मेरी प्रसन्नता का फल होना ही चाहिए, अतः तुम्हारा अभीष्ट पूर्ण होगा किन्तु उसकी प्राप्ति के लिए तुम साम्बशिव की शरण लो।' परोक्ष वेदवाणी के आद्याचार्य भला स्पष्ट कब कहने वाले थे। अपनी हंस की पीठ थपथपा कर वे उस पर बैठ गए। सृष्टि के महान कलाकार को अवकाश कहाँ?

‘ ॐ हाँ जूं सः त्रयम्बकं यजामहे’ आहुतियों के मन्त्र बदल दिए गए। वही यज्ञ शाम्भव बन गया। महर्षियों की मन्त्र ध्वनि उस तपोवन को गुँजित करती हिमगिरि के एक शिखर से दूसरे को पार करती कैलाश पहुँचने लगी।

‘प्रभु कहीं प्रस्थान कर रहे हैं?' वृषभ की पीठ पर वीरभद्र को व्याघ्राम्बर डालते देखकर जगदम्बा ने विश्वनाथ से पूछा।

'सरस्वती तट पर जैमिनी यज्ञ में मेरा आह्वान कर रहे हैं।' प्रभु ने कहा- 'पर मैं एकाकी कहाँ जा रहा हूँ? तुम भी तो चल रही हो।'

'आप भी देवताओं की भाँति मन्त्राकर्षण से विवश हैं?' मन्त्रात्मक प्रार्थना भवानी के चरणों में भी पहुँच रही थी, किन्तु उन्होंने उसकी उपेक्षा कर दी थी।

'कोई भी क्रिया मुझे विवश नहीं करती।' उन परात्पर प्रभु ने कहा- 'सृष्टा ने महर्षियों को वचन दिया है, और किसी भी प्रकार हो ये भोले प्राणी मेरा स्मरण तो कर रहे हैं। आओ, तुम भी वृषभ पर ही चलो। आशुतोष द्रवित हो चुके थे।

वृषभ के घण्टे से निकली प्रणव ध्वनि ने सम्पूर्ण मन्त्रघोष को तिरोहित कर दिया। तपोवन एक अद्भुत सुरभि से परिपूर्ण हो गया। चकित यज्ञीय विप्रों ने मस्तक उठाया और उन्हें वृषभारूड़ भवानी शंकर के दर्शन हुए। भाल स्थित बालशशि की कोमल किरणों से स्त्रात ऋषियों की सम्पूर्ण क्लान्ति तत्काल तिरोहित हो गयी।

पुरुष सूक्त की सस्वर स्तुति से साम्बशिव संतुष्ट हुए। उन्होंने आसन तो ग्रहण नहीं किया किन्तु अर्चन स्वीकार कर लिया। महर्षि जैमिनी ने अपने को कृतकृत्य समझकर बड़े ही कोमल शब्दों में अपना उद्देश्य निवेदित किया।

'जो सर्वात्मा है, सर्वरूप है, उसका दर्शन किया। वहीं तो यज्ञ पुरुष हैं।' कैलाशपति प्रभु ने कहा तुम उस यज्ञेश को जानते नहीं, यह यज्ञ उसी का तो स्वरूप है। अच्छा, उनका आह्वान करो।’

'यज्ञों वै विष्णुः' महर्षि ने पढ़ा तो था श्रुति में, पर वे उसका अर्थ करते थे। 'यज्ञ ही व्यापक है।' आज उन्होंने यज्ञेश का पता पाया। भगवान शंकर के आदेशानुसार यज्ञ-पुरुष के निमित्त आहुतियाँ पड़ने लगीं। था तो बहाना ही, वैसे तो भगवान शिव का प्रेमपूर्ण संकल्प ही पर्याप्त था।

भोले बाबा ने अपने भुजंगों को कर स्पर्श से आश्वस्त किया। ऋषियों के नेत्र एक बार बन्द हो गए। बड़ी कठिनता से पलकों को खोलने में समर्थ होने पर एक गरुड़ स्थित पीतवसन, घनश्याम, वनमाली चतुर्भुज नील ज्योति का साक्षात् हुआ। उस सायुध साभरण मूर्ति के सम्मुख नेत्र ठहरते नहीं थे।

महर्षि जैमिनी आनन्द विभोर हो गए थे। अर्चन की स्मृति भी रहीं नहीं थी। अपने को ऐसी प्रेमाविष्ट स्थिति में उन कर्मशील ने कभी पाया नहीं था। सावधान होकर अर्चन का उपक्रम करें, तब तक तो वह मनोहारी दृश्य अदृश्य हो चुका था। महर्षि खिन्न होकर मूर्छित हो गए। तुरन्त ही उसी क्षण भगवान शंकर वहाँ प्रकट हुए- बोल उठे 'कर्म करो और उसका फल पाओ यहीं तो तुम्हारा सिद्धान्त है, मीमांसाकार के नाते।

' अब तक तो मैं यहीं समझ सका हूँ।' महर्षि ने स्वीकार किया। 'विश्वात्मा तो कोई फल है ही नहीं।' अध्यात्मशास्त्र के परम प्रवर्तक ने बतलाया- फिर उसे तुम कर्म के द्वारा कैसे प्राप्त कर सकते हो? उसका वाह्य साक्षात् भी यज्ञ का फल नहीं है। वह है भगवान ब्रह्मा के वरदान एवं मेरे दर्शन का परिणाम।

'पितामह ने कहा था कि जगदम्बा के साथ आपका साक्षात् करके मैं उस आत्मस्थ को उपलब्ध कर सकूँगा।' दो क्षण सोचकर महर्षि ने आवेदन किया।

'सृष्टा के परोक्ष वचनों को तुमने समझा नहीं।' श्रुतियों के रहस्य के उद्घाटन का गर्व हरण करते हुए सदाशिव ने कहा- ' के बाह्य द्वारा बाह्य की एवं अन्तस्थ के द्वारा अन्तस्थ की उपलब्धि होती है। मेरे व्यक्त रूप की आराधना करके तुमने व्यक्त यज्ञेश के दर्शन कर लिए। व्यक्त की उपलब्धि अधिकारानुसार काल नियन्त्रित ही होगी, नित्योपलब्धि तो अन्तःकरण में ही शक्य है।' भगवान शिव ने वृषभ की पीठ पर थपकी दी और वह कैलाश की और मुड़ चला।

'यज्ञ की पूर्णाहुति कर दी जावे' एक प्रहर ध्यानस्थ रहने के पश्चात् वे उठ खड़े हुए। उनके मुख पर शान्ति विराजमान थी। पूर्णाहुति हो गयी और सबने स्नान किया। ऋषि मण्डली विदा कर दी गयी।

'इन्द्रलोक एवं परलोक की समस्त विभूतियाँ कर्माधीन हैं।' महर्षि जैमिनी ने कहा- 'कर्म ही उभयलोकों का कर्त्ता है। कर्म के द्वारा तुम उसे निश्चय उपलब्ध कर सकते हो।' शिष्य वर्ग शान्त सुन रहा था।

'इससे परे भी कुछ है या नहीं कह नहीं सकता।' महर्षि ने कहा- 'पितामह कहते हैं और श्रुति साक्षी है कि कुछ है अवश्य। वह अन्वेषण से परे है। यज्ञ उसे प्रदान नहीं कर सकते। उस पर श्रद्धा करनी होती है विश्वास के पश्चात् ही वह उपलब्ध होता है।'

शिष्यों को ऐसी शिक्षा मिली नहीं थी। वे चकित हो रहे थे। लेकिन महर्षि कहते गए- श्रद्धा ही माँ पार्वती है और विश्वास ही सदाशिव है। इनसे ही आत्मस्थ सर्वात्मा का साक्षात्कार हो सकता है। पितामह के गूढ़ वाक्यों का यही अर्थ है।

शिष्यों को वहीं छोड़कर महर्षि जैमिनी सरस्वती के किनारे-किनारे ही ऊपर बद्रीकाश्रम में इस नवीन श्रद्धा-विश्वासमय पथ के आचार्य महर्षि व्यास का साक्षात् करने चल पड़े।


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