उपचार जड़ों का ही करना होगा

May 1995

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मशीन खराब हो जाय, तो उसके अन्दर के कल-पुर्जों की सुधार-मरम्मत करनी पड़ती है, कारण कि बाहरी श्रेष्ठता का महत्वपूर्ण आधार भीतरी विज्ञान है। वह यदि गड़बड़ा जाय, लड़खड़ा जाय, तो वाह्य ढाँचा ठीक दीखने पर भी वह किसी काम का नहीं रह जाता।

मनुष्य के साथ भी ठीक यही बात है। उसकी श्रेष्ठता, शालीनता और सज्जनता उसकी भीतरी सुव्यवस्था का सत्परिणाम है और यदि दुष्ट-दुर्जन है, तो इसका भी कारण अंदर की अव्यवस्था है। दोनों का आधार अन्तस् में स्थित है। वह यदि ठीक हो जाय, तो व्यक्ति के सुधरते देर न लगेगी और जहाँ व्यक्ति सुसंस्कृत हों, वहाँ का समाज भी सुसभ्य होगा, इतना सुनिश्चित है। यह एक महान आध्यात्मिक प्रयोग है। इससे गुजरे बिना बदलाव संभव नहीं। आज लोग बदलना तो चाहते हैं और विकास की आकांक्षा भी है, पर वह सब बुद्धि के स्तर पर, चेतना के धरातल पर नहीं। यहाँ एक बात जान लेना जरूरी है कि बुद्धि के स्तर पर परिवर्तन कभी संभव नहीं। जो शक्य है, वह इतना ही कि उस आधार पर नियंत्रण तो हो सकता है, रूपांतरण नहीं। यदि नियंत्रण हुआ भी, तो वह अस्थायी ही होगा और उसके उठते ही सब कुछ पूर्ववत् हो जायेगा। जो पहले परिवर्तन जैसा प्रतीत होता था, वह सब भ्रान्ति, नियंत्रण की तात्कालिक परिणति मालूम पड़ेगी।

संसार में साम्यवादी व्यवस्था एक प्रकार की क्रान्ति का परिणाम थी। वह भी अपने ढंग से समाज को सुधारना चाहती थी। पूँजीवादी व्यवस्था में जिन त्रुटियों से व्यक्ति-व्यक्ति के बीच जमीन-आसमान जितना अन्तर बन गया था, एवं जिसके कारण उस प्रणाली में चोरी, उठाईगिरी, बेईमानी, ठगी, अपराध, अपहरण, हत्या जैसे काण्ड होते थे, उसे मिटा कर एकता-समता जैसा वातावरण पैदा करना चाहती थी, किया भी, पर यह व्यवस्था कितनी, सफल रही, इसे समाजवादी देशों, विशेषकर सोवियत संघ के विघटन से भली-भाँति जाना-समझा जा सकता है। जिस व्यवस्था में भ्रष्टाचार की कल्पना तक नहीं थी, वहाँ करोड़ों रूबल का घोटाला पकड़ा गया। अपराधी को मार दो-अपराध समाप्त हो जायेंगे-जहाँ सुधार संबंधी यह नीति रही हो, वहाँ इसके बाद भी अपराध और अपराधी प्रच्छन्न रूप से उद्भिजों की तरह पनपते रहे। आखिर क्यों? कारण एक ही है कि यह बुद्धि के स्तर पर अपनाया गया प्रावधान था। इसे परिवर्तन की तुलना में नियमन कहना ज्यादा उचित होगा, क्योंकि जहाँ परिवर्तन घटित होगा, वहाँ फिर उसके पूर्व स्थिति में लौट आने की संभावना समाप्त हो जाती है। परिवर्तन सदा स्थायी होता है। अस्थायी तो नियंत्रण होता है, जिसके हटते ही पुरानी स्थिति वापस आ जाती है। कानून द्वारा दस्युओं को नियंत्रित करने और उनकी गतिविधियों पर रोक लगा देने का अर्थ यह तो नहीं हुआ कि डाकू, वाल्मीकि बन गये-उनका हृदय परिवर्तन हो गया। शायद इस मर्म को न समझ पाने के कारण संसार में आये दिन ऐसी व्यवस्थाएँ बनती और बिगड़ती रहती है। जिस दिन इसे समझ लिया जायेगा, उसी क्षण परिवर्तन घटित हो जायेगा। फिर बुद्धि के धरातल पर बदलाव सम्पन्न कर लेने का कोई दुराग्रह न करेगा।

इन दिनों यह आग्रह इसलिए बढ़ता दृष्टिगोचर हो रहा है, क्योंकि समय के साथ बुद्धिवाद बढ़ा है और सम्प्रति उसे सर्वोपरि तत्व के रूप में मान्यता मिली हुई है। यहाँ यदि कोई प्रगति करता है, तो उसके पीछे बुद्धिकौशल ही कारणभूत होना स्वीकार किया जाता है और किसी की अवनति होती है, तो उसका निमित्त भी बौद्धिक विपन्नता ही माना जाता है। इसलिए लोग सब कुछ बुद्धि के आयाम में ही सम्पन्न कर लेना चाहते हैं। उनके लिए स्मृति का विकास भी बुद्धि के स्तर पर होना चाहिए और एकाग्रता का विकास भी। यह कितनी बेतुकी बात है। जो केवल चेतना के स्तर पर घटित हो सकते हैं, उन्हें हम बुद्धि के आयाम में सम्पन्न करना चाहते हैं। यह नितान्त असंभव है। संभव यदि कुछ है, तो इतना ही कि तर्क, निर्णय, निष्कर्ष, शंका आदि ही बुद्धि के द्वारा हो सकते हैं। जहाँ इस बुद्धि का प्रयोग होगा, वहाँ शंकाएँ उत्पन्न होंगी, और तर्क भी पैदा होंगे, क्यों और कैसे के सवाल भी खड़े होंगे। यह स्वाभाविक है। भौतिक जीवन में आदमी यदि ऐसा न करे, तो उसे बहुत बड़ा धोखा हो सकता है। दलील न हो, तो प्रवंचना हो सकती है और संदेह के न होने पर ठगी की संभावना बनी रहती है। इससे बचने के लिए बुद्धिवादी मनुष्य को इन बौद्धिक आयुधों का आश्रय लेना ही पड़ता है, तभी वह अपनी लौकिक सफलता को कायम रख पाता है। न्यायालयों के निर्णय का आधार तर्क है। वहाँ इसी के माध्यम से सच-झूठ का फैसला होता है। जो वकील दलील देने में जितना कौशल का प्रदर्शन करते हैं, उनकी सफलता की संभावना उतनी ही अधिक आँकी जाती है, जबकि कमजोर पक्ष मुकदमा हारते देखे जाते हैं। इस हार-जीत में सत्य-असत्य का उतना महत्व नहीं, जितना इस बात का कि किसने कितने सटीक और सबल तर्क प्रस्तुत किये, भले ही वे झूठ क्यों न हों, पर विजय सर्वदा उसी की होगी। सच्चे पर निर्बल तर्क वालों को तो सर्वत्र पराजय ही झेलनी पड़ती है।

यह सब बुद्धि का चमत्कार है। इससे लौकिक प्रगति तो संभव है, पर जहाँ वैयक्तिक परिवर्तन या आत्मोत्थान की बात आती है, वहाँ यह असहाय जैसी बनी रहती है। इसके लिए तो और गहराई में प्रवेश कर प्रयोग के स्तर पर, अनुभव के स्तर पर, उतरना पड़ेगा, बात तभी बन सकेगी, विकास तभी हो सकेगा। सुधार की संभावना इससे कम में फलवती होती नहीं, कारण कि चेतना का जीवन-ध्यान का जीवन ही प्रयोग का जीवन है। कोई व्यक्ति उसे बुद्धि के आयाम में समझना चाहे, तो वह सफल न हो सकेगा-उसे समझ न सकेगा। आज तक ध्यान को जिसने भी समझा है, उसे प्रयोग के आधार पर समझा है-ज्ञान के आधार पर मीमांसा के आधार पर तर्क और बुद्धि के आधार पर नहीं। यही रूपांतरण की कुँजी है। जब यह कहा जाता है कि उसने स्वयं को सुधार लिया, आदतों को परिष्कृत कर लिया तो वास्तव में इसका आशय चेतनात्मक स्तर पर हुए प्रतिशोधन से है-असंतुलन को हटाने-मिटाने से यह सम्पन्न होता है। यह विकृति न हटे, असंतुलन न घटे, तो शायद सुधार-संशोधन की प्रक्रिया भी सम्पन्न न हो सकेगी। सुधार सदा अंदर ही करना पड़ता है, क्योंकि बिगाड़ का मूलभूत कारण वहीं मौजूद होता है। बाहर तो उसकी अभिव्यक्ति मात्र होती है। उसका निमित्त ढूँढ़ना हो, तो हमें चेतना जगत में डुबकी लगानी पड़ेगी और यह देखना पड़ेगा कि उस सूक्ष्म विकृति से कौन-से अवयव और संस्थान प्रभावित हुए हैं? किन ग्रन्थियों ने काम करना बंद कर दिया है? किन उपत्यिकाओं, किन मात्रिकाओं, कौन-से भ्रमरों, कैसी नाड़ियों और किस प्रकार के प्राणों के कारण जान लेने के उपरान्त चेतना विज्ञान के आधार पर उसका निवारण सरल हो जाता है।

आज दुर्भाग्य यह है कि व्यसनियों के दुर्व्यसन और व्यभिचारियों के व्यभिचार को दवा के आधार पर ठीक करने का प्रयास किया जा रहा है। इससे तात्कालिक लाभ तो मिलेगा, पर कोई स्थायी सफलता मिल सकेगी, इसकी आशा नहीं ही करनी चाहिए। जब तक अन्तःक्षेत्र का परिमार्जन नहीं हो जाता, तब तक बाह्य व्यवहार बदल सकेगा, इसकी उम्मीद कम है। यही कारण है कि पाश्चात्य देशों में रोगों के शारीरिक उपचार के साथ-साथ मानसिक लेखा-जोखा लेने का भी प्रावधान है। मनोवैज्ञानिक पड़ताल के दौरान इसी प्रक्रिया को पूरा किया जाता है। इससे बीमारियों के इलाज में काफी सहायता मिलती है। कई बार जो मर्ज औषधि प्रयोग से ठीक नहीं होते, वे मनोवैज्ञानिक चिकित्सा से समाप्त होते देखे जाते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि मनोविज्ञान, चेतना विज्ञान के काफी निकट है। इसमें मन की गहराइयों में व्यवहार की प्रतिकूलता का कारण खोजना पड़ता है कि किस मानसिक विकृति के कारण उक्त प्रकृति-दोष पैदा हुआ। हेतु ज्ञात हो जाने के बाद उस विकार को हटाने के लिए उपयुक्त सुझाव एवं संकेत रूप से अभ्यास किया गया, तो कुछ ही दिनों से रोगग्रस्त स्वस्थ होते देखे जाते हैं। यह अंदर की अध्यात्म जगत के समीप की प्रक्रिया है, इसलिए मनोविज्ञानी लोग आदतों को सुधारने में काफी हद तक सफल होते हैं।

शरीरशास्त्र की खोज इससे स्थूल स्तर की है। वह आदतों, अभ्यासों, दोष-दुर्गुणों का कारण शरीर स्तर का मानता और इसके लिए रस-स्रावों एवं ‘जीनों’ को जिम्मेदार बताता है। इन्हें यदि नियंत्रित किया जा सके, तो आदतों को बदल पाना सम्भव है, ऐसा विज्ञानवेत्ता कहते हैं, पर अभी तक कोई ऐसी विधा उनके हाथ लग नहीं पायी है, जिससे मनोभूमि को मनोनुकूल बनाया जा सके। अपवादों को यदि छोड़ दिया जाय, तो यही कहना पड़ेगा कि रसायनों से व्यवहार-परिवर्तन संभव नहीं। कभी यदि शक्य लगता प्रतीत होता भी है, तो यह स्थिति तभी तक बनी रह पाती है, जब तक औषधि-सेवन जारी रहता है। उसके बंद होते ही दशा पूर्ववत् हो जाती है। अतः इसे स्थायी परिवर्तन न कह कर अस्थायी नियंत्रण कहना ही समीचीन होगा।

यहाँ कहा यह जा रहा है कि बाहर यदि रूपांतरण सम्पन्न करना हो, तो उसका शुभारंभ भीतर से करना होगा। आज इसका उलटा हो रहा है। बाहर से बाहर को बदलने का-ठीक करने का प्रयास किया जा रहा है। अल्सर पेट में हो और इलाज पैरों का चले, कैंसर रक्त में हो और दवा माँस में लगायी जाय-यह कितना उपहासास्पद है। कुछ ऐसे ही उपक्रम इन दिनों समाज सुधार के संबंध में अपनाये जा रहे हैं। विश्व भर में इस निमित्त बड़े-बड़े आंदोलन और अभियान रचे जा रहे हैं, जबकि समाज की इकाई व्यक्ति की उपेक्षा की जा रही है। सच तो यह है कि व्यक्ति निर्माण हो जाय, तो समाज सुधार स्वतः घटित हो जायेगा, क्योंकि समाज की आत्मा व्यक्ति है। वह यदि कलुषित बना रहे, तो समाजरूपी शरीर की व्याधि दूर होना मुश्किल है। आज भ्रष्टाचार, अन्यान्य, अत्याचार आतंकवाद, शोषण, उत्पीड़न दंगे-फसाद को रोकने के लिए विश्व भर में क्या कुछ उपाय नहीं किये जा रहे हैं, इतने पर भी तथ्य यह है कि दिन-दिन उनमें बढ़ोत्तरी ही हुई है। कारण स्पष्ट है-मूल काटने की जगह पत्तियाँ और टहनियाँ तोड़ने की अदूरदर्शिता अपनायी गई। इससे उसका विकास मंद तो पड़ा, पर सम्पूर्ण नाश न हो सका। इसके स्थान पर यदि व्यक्ति में आत्मानुशासन पैदा करने की कोशिश की गई होती, तो संभवतः अब तक बड़ी सफलता करतल गत हो चुकी होती, पर ऐसा न होना था, न हुआ। इसी कमी की पूर्ति के लिए युग निर्माण मिशन ने एक भगीरथ मुहिम चलायी और व्यक्ति को सुधार कर, समाज को बदल डालने का भीष्म संकल्प किया, जिसमें वह लगातार सफल होता चला जा रहा है। कायाकल्प का यही एकमात्र तरीका है। जहाँ यह सही रूप में लागू होगा, वहाँ परिवर्तन होता चलेगा-यह निर्विवाद रूप से सत्य है।


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