किस काम का है यह इन्द्रजाल?

May 1995

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'अलख! खोल दे पलक!' पाउडर के समान सफेद कोमल भस्म से सर्वांग लिप्त मूँगे, रुद्राक्ष, तथा स्फटिक की मणियों की मालाओं से विचित्र ढंग का श्रृंगार किए, कमर में बंधे घुँघरुओं से झनकार करते खप्पर लिए, झोली की भस्मी की चिटकी लोगों को बाँटते कानों में बड़ी मुद्राएँ पहिने एक नाथपन्थी साधु ने दरवाजे पर आवाज दी।

प्रायः यह साधु भिक्षा के लिए बहुत कम ठहरते हैं। अतः योगिराज श्यामाचरण लाहिणी ने कहा- 'जल्दी से साधु को भिक्षा दे दो।' पण्डित आशुतोष मुखर्जी स्वयं उठना चाहते थे। किन्तु गुरु के संकोच के कारण ठिठक से रहे। उन्होंने एक पात्र में चावल लिया और द्वार पर आ गये।

'तुम बहुत खिन्न दिखाई देते हो।' खप्पर में चावल डालते हुए भी साधु की दृष्टि मुखर्जी महाशय के मुख पर ही थी। 'जी, संसार के जंजाल पीछे लगे रहते हैं।' आशुतोष ने गोल मोल उत्तर दिया। अंततः एक साधु से और कहा भी क्या जा सकता है? 'तुम संकोच कर रहे हो।' साधु ने खप्पर का चावल बड़ी-सी झोली में डाल दिया। उस गुदड़ी की झोली में पता नहीं कितनी तहें थीं और उनमें क्या क्या भरा था। आखिर साधु की झोली जो ठहरी।

'महात्माओं से संकोच काहे का?' मुखर्जी महाशय ने सरल भाव से कहा किन्तु गृहस्थ के पीछे आपत्तियाँ रहती ही है, उनको सुनकर आपको भी खेद ही होगा।

'गुरु की कृपा से साधु उसे दूर भी तो कर सकता है?' साधु ने हँसते हुए कहा। उन शब्दों में अहंकार नहीं था, ऐसा कहना कठिन ही है। 'महापुरुष कर क्या नहीं सकते?' मुखर्जी बाबू एक सत्संगी साधु सेवी ओर धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति थे। 'किन्तु सबको अपना अपना प्रारब्ध भोगना ही चाहिए। तुच्छ नश्वर वस्तुओं के लिए महात्माओं से प्रार्थना करना मुझे ठीक मार्ग जान नहीं पड़ता।'

'तुम साधु की शक्ति में अविश्वास करते हो?' साधु पढ़ा लिखा तो वैसा नहीं था। उसने मुखर्जी की बातों का यही अर्थ समझा। उसे ऐसा निस्पृह कभी कोई मिला भी तो नहीं। 'नहीं भगवन्!' हाथ जोड़कर पण्डित जी ने कहा- वे जानते थे कि इस सम्प्रदाय में प्रायः सिद्ध होते हैं। यों भी साधु का अपमान करना उन्हें कहाँ अभीष्ट था?

'तब तो पूछता हूँ, बताओ!' आज्ञा का स्वर था।

'सरकारी लगान नहीं दे सका हूँ, उसका दावा हो गया है। एक महाजन ने अपने ऋण की डिग्री करा ली है, और सुनता हूँ कि आजकल में ही इस मकान की कुर्की आने वाली है। घर में स्त्री तथा दो बच्चे हैं और हाथ में कुछ है नहीं।' कहते हुए उनकी आँखों से आँसू की बूँदें गिरने लगी।

'कितने की आवश्यकता हे तुम्हें?' साधु ने इस प्रकार पूछा मानो अभी झोली में से निकाल कर दे ही देगा।

'सौ सरकारी लगान के और बारह सौ महाजन के दे पाऊँ तो रहने के लिए घर ओर खेत बच जावे। पेट के लिए भगवान कुछ करेंगे ही और यों भूखों भी तो दो-चार दिन रहा ही जा सकता है।' अश्रु पोछते हुए उत्तर मिला।

'डेढ़ हजार, अच्छा। चलो भीतर चलें?' साधु ने उत्तर की अपेक्षा नहीं की। वह दरवाजे से भीतर मकान में चल पड़ा और पण्डित जी चुपचाप पीछे हो लिये।

भीतर पहुँचकर साधु ने अपनी झोली में से एक पीतल की डिबिया निकालते हुए कहा- यह मेरे गुरु देव का प्रसाद है। उन्होंने मुझ पर बहुत प्रसन्न होकर दिया था। और इस से तुम प्रारब्ध के बनने बिगड़ने का खेल देख सकोगे।

'इससे क्या?' योगिराज श्यामाचरण लाहिणी ने पूछा।

'श्मशान में जाकर विधिपूर्वक शव सिद्ध करके प्रस्तुत किया हुआ अंजन। साधु ने बतलाया- 'यह साधन बड़ा भयंकर है और वहाँ अनेक प्रकार के भय उपस्थित होते है। यदि तनिक भी डरा तो मृत्यु या पागलपन निश्चित है।'

'तुम्हारे गुरुदेव ने इसे स्वतः सिद्ध किया था?' लाहिणी महाशय को कोई कौतूहल नहीं हुआ और मुखर्जी बाबू भी शान्त थे।

'वे सिद्ध महापुरुष थे। उनके अतिरिक्त इतना भयंकर साधन और कौन करेगा?' साधु ने सगर्व उनकी ओर देखते हुए कहा। अभी तक वह सामान्य वेशभूषा में बैठे लाहिणी महाशय को सामान्य आदमी समझ रहा था। कुछ रुक कर वह कहने लगा- इसमें बड़ी सावधानी रखनी पड़ती है। बड़ी बुद्धिमत्ता से होता है। तनिक भूल से प्राण संकट में पड़ सकते हैं।

'लोगों की रुचि भी विचित्र है।' लाहिणी महाशय कहने लगे- 'देखा जाता है कि लोग केवल मनोरंजन के लिए हिमालय चढ़ते हैं, शेर से सामना करते हैं तथा और भी भयंकर कर्म करते हैं। अतः यदि कौतूहल के वशीभूत होकर तुम्हारे गुरुदेव ने इसे सिद्ध कर लिया तो कोई आश्चर्य नहीं।'

'और क्या, वे सिद्ध महापुरुष थे। उनको भला इसकी क्या आवश्यकता थी?' साधु ने कहा- उन्होंने तो खेल जैसा किया। मौज आयी और सिद्ध कर डाला।

'इससे तुम क्या करते हो?' उन्होंने पूछा।

'अभी तक तो कुछ नहीं किया है आज करना है।' साधु ने डिबिया खोली उसमें काला-काला अंजन था। अपनी दोनों आँखों में लगाने के उपरान्त उसने लाहिणी महाशय को भी लगाना चाहा। उन्होंने अस्वीकार करते हुए मुखर्जी महाशय की ओर संकेत किया।

'लगा लो, कोई हानि नहीं।' मुखर्जी महाशय लगाना नहीं चाहते थे। पर गुरु का आदेश समझकर उन्होंने दूसरी बार आपत्ति नहीं की।

यह क्या? कहीं दो हाथ नीचे, कहीं दस हाथ, पृथ्वी में चारों ओर द्रव्य ही गड़ा है। स्वर्ण मुद्राएँ हैं, कहीं रजत कहीं सोने की ईंटें है और कहीं चाँदी के पात्र। आभूषण और कहीं चाँदी के पात्र। आभूषण और रत्नों की ढेरी है स्थान स्थान पर। कहीं द्रव्य खुला हुआ हैं, कहीं संदूकों में है। कहीं तहखाने में है, कहीं मिट्टी के पात्रों में है और कहीं ताम्र या पीतल के कलशे भर हुए हैं बन्द पात्र भी बहुतेरे हैं। दो हाथ, चार हाथ अन्तर से सम्पूर्ण पृथ्वी जो नेत्रों के नीचे आती है, सब कहीं द्रव्य ही द्रव्य भरा हुआ है।

'इसे केवल तुम खोद लो।' साधु ने लोटे जैसे ताम्र पात्र को जो दो हाथ नीचे था, संकेत करते हुए कहा। वह स्वर्ण मुद्राओं से भरा हुआ था। आशुतोष महाशय ने योगिराज की ओर देखा। वे मुस्करा रहे थे। यों उन्होंने मना नहीं किया। कुदाल मँगाई गयी और मुखर्जी महाशय ने स्वयं हाथ लगाया। दो हाथ खोदने में लगती कितनी देर है? गड्ढा खुदकर प्रस्तुत हो गया।

लोटा कहाँ गया? वह तो खोदी हुई मिट्टी के नीचे है। मिट्टी हटाई गयी, लोटा वहाँ भी नहीं, वह चार हाथ नीचे भूमि में दिखाई पड़ा। जैसे उसमें जीवन आ गया हो और वह इन लोगों से वैसे ही भाग रहा था जैसे शिकारी से पक्षी। दो−तीन बार खुदाई और की गयी शरीर पसीने से लथपथ हो गया। कुदाली फेंक कर मुखर्जी महाशय बैठ गए। साधु का मुख सूख गया। योगिराज हँस रहे थे।

हँसते हुए वह कहने लगे- 'तुम्हारे गुरु ने क्या यह अंजन इसलिए दिया था कि गड़े धन को खोद लो।'

' प्रारब्ध का खेल देखने के लिए उन्होंने कहा था।' साधु समझ गया था कि गुरु का वाक्य समझने में उससे कहीं भूल हुई है।

'विश्व नियन्ता के खजाने में चोरी नहीं चल सकती। लाहिणी महाशय कह रहे थे। यह अपार कोष सृष्टि के आदि से भूमिसात् होता आया है। जिसका प्रारब्ध समाप्त हुआ वे मिट गए। उनके खजाने पर मिट्टी पड़ गयी अर्थात् विश्व संचालक ने उसे ढकेल दिया। अब जिसका प्रारब्ध जिस द्रव्य को प्राप्त करने का जब होगा, उस समय उसी व्यक्ति को मिलेगा। इस प्रकार खोदने से तो चोरों के प्रयत्न का दण्ड मिला करता है। तुम्हें दण्ड नहीं मिला यही बहुत समझो। द्रव्य तो हटा दिया ही जाएगा। इन्हीं द्रव्यों की रक्षा के लिए तो प्रेतों की एक योनि पक्ष है। वे उसकी रक्षा करते है और जिसके प्रारब्ध में वह है, उसके आने पर देकर छुट्टी पाते है।

'तब इस अंजन से क्या लाभ?' साधु ने पूछा।

'कौतुक। योगिराज ने बताया- 'इतना द्रव्य पृथ्वी में पड़ा है।' इतनी पृथ्वी खोदी जाती है, पर वह मिलता नहीं, लोग दीन-दुःखी हैं। प्रारब्ध समाप्त होते ही वह भूमि में दबा दिया जाता है।

अधिकारी को ही मिलता है। यह सब सर्वेश का कौतुक है। इन्द्रजाल है, इसे देखो और उसकी महिमा का स्मरण करो। इस कौतुक को देखने के लिए ही यह है। यही बात तुम्हारे गुरु ने तुमसे कही भी थी। 'व्यर्थ ही मैंने इसे लिया!' झुंझलाकर साधु ने वह डिबिया सामने की धूनी में डाल दी।

'यह कौतूहल पर निर्भर है।' योगिराज कह रहे थे- तमाशे यदि हमारे लिए व्यर्थ हैं तो बच्चों या देखने की रुचि रखने वालों के लिए व्यर्थ नहीं। हाँ, इसे लेने के बदले यदि तुम श्री गुरुदेव के चरणों को ही अंतर में लेते तो इस द्रव्य के बदले, तुम्हें चारों ओर ईश्वरी चेतना दिखाई पड़ती और तब यों पश्चाताप नहीं करना पड़ता।

मुखर्जी महाशय ने लाहिणी महाशय के चरणों में मस्तक रखा। उसे वे अपने अश्रुओं से भिगो रहे थे ओर दो हजार का बीमा लिए पोस्टमैन उनका द्वार खटखटा रहा था। एक सम्पन्न यजमान ने उनके पिछले वर्ष किए अनुष्ठान का फल प्राप्त कर लिया था और उसी की दक्षिणा आयी थी।


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