अपरिग्रह आज क्यों इतना जरूरी है

May 1995

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भारतीय धर्म एवं संस्कृति में अपरिग्रह को मानवीय सद्गुणों में विशिष्ट स्थान मिला है। जीवन लक्ष्य की प्रथम अनिवार्यता 'यम' के अंतर्गत इसे सत्य, अहिंसा, अस्तेय व ब्रह्मचर्य के समकक्ष स्थान प्राप्त है। इसे पंच महाव्रतों में एक माना गया है। बौद्ध व अन्यान्य प्रशाखाओं में भी परिग्रह को निंदनीय ही ठहराया गया है।

इतर धर्म दर्शन में भी इसके महत्व को पूरी तरह स्वीकार गया है। इस्लाम, ईसाई, पारसी आदि धर्मों में इसे मानवीय कर्तव्य के अंतर्गत माना गया है। परिग्रह को पाप व अपरिग्रह को पुण्य की संज्ञा भारतीय दर्शन में मिली है।

अपरिग्रह से तात्पर्य है- 'प्रकृति व समाज प्रदत्त वस्तुओं को औचित्य से अधिक अपने पास संग्रहित नहीं करना न औचित्य से अधिक उपभोग करना।' परिवार में दस सदस्य होते हैं तो चौके में जो भी रसोई बनती है या बाज़ार से जो मिठाई आती है- कपड़ा व अन्य आवश्यक वस्तुएँ खरीदी जाती है उनमें प्रत्येक को समान भाग मिलता है। ठीक उसी प्रकार संसार के समस्त प्राणियों को-मनुष्यों को एक परिवार मानकर अपने भाग की वस्तुओं का उपभोग व संग्रह करना अपरिग्रह है। यह मनुष्य का धर्म है। औचित्य की इस सीमा का उल्लंघन 'पाप' माना जाता है।

परिग्रह को पाप तथा अपरिग्रह को पुण्य क्यों माना गया है? यह प्रश्न प्रत्येक विचारशील व्यक्ति के मन में उठना स्वाभाविक है। आज के कई मत व वाद परिग्रह को पाप नहीं मानते। जैसे अर्थ शास्त्र पूँजी को व्यक्ति की अपनी परिग्रह वृत्ति व कष्ट सहिष्णुता का परिणाम मानता है और उसके औचित्य को स्वीकारता है। वह उसके औचित्य-अनौचित्य को नहीं देखता। यह मान्यता व्यक्ति को नहीं देखता। यह मान्यता व्यक्ति को व्यक्तिवादी बनाती है। व्यक्तिवाद समाज की प्रगति का शत्रु है। अपरिग्रह को पुण्य मानने के पीछे मूल कारण यही है कि यह वृत्ति व्यक्ति को समाज से जोड़ती है। यह वह पुल है जो समाज व व्यक्ति के बीच की खाई को पाटता है।

अपरिग्रही व्यक्ति समाज के हित से निरंतर कटता जाता है। उसे अपने हित का तो ध्यान रहता है किन्तु अपने हित के साथ होने वाले दूसरों के अहित को वह नहीं देखता। वह ब्याज कमाने के लिये धन संग्रह करता है। अधिक लाभ कमाने के लिये धन संग्रह करता है। अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से ऐसी वस्तुओं पर साँप बनकर बैठ जाता है जिसके अभाव में जनता दुःखी होती है। आज ऐसे ही व्यक्तियों की समाज में बाढ़ है।

परिग्रह का अर्थ संग्रह करना ही नहीं है। अपने उपभोग, सुख, ऐश्वर्य व अधिक लाभ पाने के उद्देश्य से इकट्ठी की हुई वस्तुएँ व धन संपदा ही परिग्रह की सीमा में आती हैं। जिसके पीछे लोकहित का- परमार्थ का उद्देश्य हो व प्रत्यक्ष-परोक्ष में उसका अपना हित व समाज का अहित न हो, वह परिग्रह नहीं।

जब परिग्रह को मानव धर्म का महत्व पूर्ण अंग निर्धारित किया गया। उन दिनों व्यक्ति की आवश्यकताएँ भी सीमित थीं। व्यक्ति आज की अपेक्षा अधिक आत्म निर्भर था। पारस्परिक निर्भरता की परिधि ग्राम व प्रदेश तक ही सीमित थी। तब अपरिग्रह वृत्ति इतनी अनिवार्य नहीं थी, जितनी आज है। किंतु आज समय बदल गया है। अपनी अनेकानेक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य समाज पर निर्भर है। व्यक्ति की आत्म निर्भरता आज के वैज्ञानिक युग में लगभग समाप्त ही हो गयी है। ऐसी स्थिति में अपरिग्रह का महत्व और भी बढ़ जाता है।

अर्थशास्त्र की उपभोगवादी दृष्टि के कारण भी मुद्रा अपनी सार्वदेशिक तथा सार्वभौमिक क्रय शक्ति से सम्पन्न होने के कारण परिग्रह अर्थात् संचय और भी सुलभ कर देती है। एक व्यक्ति आज अरबों-खरबों रुपयों पर अपना स्वत्व आसानी से जमाए रख सकता है। उनके रक्षण तथा स्थानान्तरण में उसे उसे कोई विशेष जोखिम तथा व्यय नहीं उठाना पड़ता। ऐसी स्थिति में व्यक्ति की तृष्णा भी सुरसा के मुँह की तरह फैलने लगी है।

अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों, मुद्रा की क्रय शक्ति, वैज्ञानिक प्रगति, यांत्रिक सभ्यता, अधिकोष (बैंकिंग) सुविधाओं की प्रचुरता, यातायात व संचार के द्रुत साधनों ने मनुष्य की उपार्जन शक्ति में आश्चर्यजनक वृद्धि कर दी है। वे ही साधन सामाजिक वैषम्य को बढ़ाने में भी सहायक सिद्ध हो रहे हैं। उसे आज की वैज्ञानिक प्रगति का एक अभिशाप मानें तो अत्युक्ति न होगी।

दूर क्यों जाएँ? हमारे देश की ही दशा देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि व्यक्ति अपने विश्व मानव परिवार के सदस्यों के हिस्से की- उनके मुँह की रोटी को किस निर्दयता से छीनकर अपने खजाने को भर रहा है। इसके लिए वह नीति-अनीति औचित्य-अनौचित्य की चिंता नहीं करता। लोग दाने-दाने को तरसें किंतु स्वार्थ की मदिरा पी मदमस्त हुए लोगों को अपने गोदामों में अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से लाखों टन खाद्यान्न छिपाते हुए लज्जा नहीं आती। यही हाल अन्य उपभोक्ता वस्तुओं का है। अधिक लाभ कमाने का लोभ जिन व्यापारियों के मन में शेर की दाढ़ में खून की तरह लग गया है वे जाने क्या-क्या हथकण्डे अपनाते हैं। यह बताने की आवश्यकता नहीं। उसके परिणाम स्वरूप देश में गरीबी, बेकारी, महँगाई, भ्रष्टाचार आदि अनेकानेक समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं।

यदि रुपये को आधार मानकर देखा जाय कि किस व्यक्ति को कितना प्रतिशत मिल रहा है तो आज की इस लूट खसोट का स्वरूप सामने आ जाता है। हमारे देश की कुल जनसंख्या की मासिक आय पंद्रह रुपये से भी कम है। 24 प्रतिशत की आय 300 से 500 रुपये तथा 27 प्रतिशत उच्च मध्यवर्ग की मासिक आय पाँच से दस हजार रुपये तथा केवल 9 प्रतिशत लोगों की आय इससे अधिक हैं। इसी वर्ष वित्त मंत्री ने प्रति व्यक्ति आय के जो आँकड़े प्रस्तुत किये हैं उनके अनुसार भारत में गरीबी की रेखा के नीचे जीने वाले कुल 32 करोड़ आदमी है। 25 करोड़ से अधिक व्यक्तियों की आय राष्ट्रीय आय से भी कम है। जिसके हाथों में साधन सत्ता व सामर्थ्य है वह हजार हाथों से धन लूट रहा है हिस्सा छीन रहा है उदार अर्थवाद परिग्रह की ऐसी वृत्ति समाज में लाया है कि सारा ढाँचा ही चरमरा गया है।

सोवियत रूस की साम्यवादी क्राँति इसी वैषम्य की पृष्ठ भूमि पर उपजी थी। डंडे के बल पर, शस्त्र के बल पर उन लोगों से उनके वे खजाने छीन लिये गये जो उन्होंने लोगों का रक्त चूस-चूस कर भर थे। किंतु अधिनायकवाद ने इस क्राँति को भी खोखला सिद्ध कर दिया। राष्ट्रीयकरण की गतिविधियाँ हमारे देश में भी चली किंतु इससे समस्या का वास्तविक समाधान तो हो नहीं सका, अपितु सत्ता का ढाँचा जरूर अस्त-व्यस्त हो गया। व्यसन

धर्म के शाश्वत नियमों जिनमें अपरिग्रह मूल है, का पालन आज के युग में और भी अनिवार्य हो गया है। उनके पालन में ही व्यक्ति का अपना तथा अपने समाज का हित है। यदि आज का यह भ्रमित मनुष्य पुनः उस राह पर नहीं चलता व शोषित वर्ग विद्रोह नहीं करता तो प्रकृति की दण्ड व्यवस्था तो ज्यों की त्यों है ही। इसे अक्षरशः सत्य मानना चाहिए कि आध्यात्मिक समाजवाद एक भवितव्यता है, सत्य है। लोगों को धर्म की संवेदना की धुरी पर नियंत्रित कर उन्हें उसी तरह समाजवाद की- साम्यवाद की धारा में वलात् मोड़ा जा सकता है जैसे कभी बुद्ध व महावीर के समय में हुआ था। तब भिखारी बनने में व समाज के नव निर्माण के लिए बढ़-चढ़ कर काम करने में लोग शान अनुभव करते थे। जो परिग्रह करता था वह निंदा की दृष्टि से देखा जाता था एवं सौ हाथों से कमाकर हजार हाथों से लुटाने वाले 'शत हस्तं समाहर, सहस्र हस्तं संकिर' अक्षय कीर्ति को प्राप्त होते थे। आज भी प्रायः वैसा ही समय है। समय रहते यदि मनुष्य न बदले तो समाज की बदलती दिशा धारा उसे स्वयमेव बदल देगी एवं जिनके पास बहुत अधिक है, छीनकर उसे लुटा देगी जिन्हें इसकी आवश्यकता है। इक्कीसवीं सदी यही संदेश लेकर आ रही है कि ओढ़ी हुई गरीबी ही शान की प्रतीक मानी जाने वाली है। मनुष्य समझदारी से यह कार्य स्वयमेव पहले कर ले तो उसी का हित है।

1940 में कार्लीटैकास को हंगरी का सर्वश्रेष्ठ निशानेबाज घोषित किया गया और जापान में होने वाले ओलम्पिक खेलों में सम्मिलित होने के लिए उसका चयन भी हो गया। परन्तु विश्व युद्ध छिड़ जाने से उसे खेल के मैदान की जगह युद्ध के मैदान में जाना पड़ा।

1945 में युद्ध समाप्त हुआ। सन् 48 में होने वाले ओलम्पिक की तैयारी प्रारम्भ हो गई। टैकास ने भी अपना अभ्यास शुरू कर दिया। अभी ओलम्पिक शुरू होने में दो वर्ष का समय बाकी था कि टैकास मोटर दुर्घटना में बुरी तरह घायल हो गया। इस दुर्घटना में उसका दाहिना हाथ कट गया। यह देखकर घर परिवार के लोग मित्र सम्बन्धी सभी दुःखी थे। जब हाथ ही नहीं रहा तो निशानेबाजी कैसी? उनकी सारी आशायें धूमिल हो गई। मगर आशा की ज्योति टैकास के मन में जीवित थी। घर के लोगों को दुखी देखकर वह एक दिन चुपचाप घर से निकल गया। लोग उससे मिलने तक की आशा छोड़ चुके थे।

सन् 48 में लन्दन में ओलम्पिक खेलों का आयोजन हुआ। निशाने बाजी की प्रतियोगिता में प्रथम आये खिलाड़ी का दाहिना हाथ नहीं था। लोग स्तम्भित एवं भरी आँखों से विजेता को निहार रहे थे। हंगरीवासी प्रसन्नता से उछल रहे थे। बायें हाथ से निशानेबाजी की चैम्पियनशिप प्राप्त करने वाला हंगरी निवासी कार्ली टैकास ही था। मनोयोग और परिश्रमशीलता यदि साथ रहें, तो व्यक्ति कुछ भी कर गुजरने में सफल हो जाता है।


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