आप्तकाम बनने का सूत्र

May 1995

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‘अस्वस्थ देह, अशान्त मानस अहंकार उन्मत्त मानव यदि सफल है, तो असफल कौन कहा जाएगा?’ वह आज पूर्णतः उत्तेजित है। आत्मघात करने वाले की उत्तेजना अपनी चरम सीमा पर होती है। ऐसा क्षुब्ध व्यक्ति किसी का भी संकोच नहीं करता। वह बलात् खींच लिया गया, जब गंगोत्री में गंगा के प्रवाह में अपना शरीर समर्पित करने जा रहा था। इस बात ने उसे अधिक क्षुब्ध कर दिया था-आप कहते हैं कि मेरे पास सम्पत्ति है, अधिकार है, सम्मान है। मैं इतना सफल जीवन प्राप्त करके यह अनर्थ क्यों कर रहा हूँ। यह बात आपके-एक साधु के मुख से शोभा देती है? मानव जीवन के बहुमूल्य वर्षों को विनष्ट करके सतत् श्रम से स्वास्थ्य की बलि देकर धातु की चमकती राशि, कुछ रंगीन कागज के टुकड़े अथवा मूल्यवान कहे जाने वाले पत्थर पा लिए। मूर्खों के समुदाय ने अपना अग्रणी मान लिया अथवा प्रशंसा के पुल बाँध दिए। इस प्रशंसा एवं अधिकार ने अंतर की शाँति का अपहरण कर लिया इस पर आपका यह महाव्यंग कि मैं अत्यन्त सफल व्यक्ति हूँ?’

‘किन्तु अपघात का यह अनर्थ तुम्हें किस समस्या का समाधान देगा?' साधु ने शान्त स्वर में कहा-शेष प्रारब्ध से छुटकारा मिलना नहीं है। जीवन से असमय भागने का अपराध करके तुम अपने को अधिकतम दण्ड का भागी ही बनाओगे।’

‘हे भगवान्!’ वह दोनों हाथों से सिर पकड़कर बैठ गया और फूट-फूटकर रोने लगा।

‘भगवान करुणा वरुणालय है। उनका असीम अनुग्रह है तुम पर।’ ‘अन्यथा सुयश, सम्पत्ति, अधिकार के पीछे संसार के लोग पागल हैं। उन्हें पता तक नहीं चलता कि यह उन्माद उन्हें किस गर्त में ढकेल ले जा रहा है। अधिकार के साथ अशान्ति, सम्पत्ति के साथ चिन्ता, सुयश के साथ अहंकार आदि दोष रहेंगे ही। मनुष्य की सबसे बड़ी असफलता यही है कि वह इन्हें जीवन की सफलता समझता है। जब यह बात सूझने लगे तो समझना चाहिए कि माया नाथ ने अपनी माया यवनिका उठा लेने का अनुग्रह किया है।’

‘महाराज! मैं अधिक आस्थावान नहीं हूँ।’ उसने सिर उठाया। तत्त्वज्ञान, या आत्मसाक्षात्कार, ईश्वरदर्शन, निर्विकल्प समाधि आदि में मनुष्य की सफलता है मेरा ऐसा विश्वास नहीं है। जैसे सम्पत्ति, सुयश, अधिकार को महत्ता सुनते-सुनते संस्कार बन गया है कि इनकी प्राप्ति जीवन की सफलता है। वैसे ही ग्रन्थ पढ़कर अथवा आप लोगों से सुनकर समाधि आदि में महत्व बुद्धि हो जाती है। एक संस्कार चित्त में डालो अमुक अवस्था परम सफलता है और तब उस कल्पना को साकार करने में जुटो।

‘मुझे बहुत प्रसन्नता है कि तुम सचमुच समझदार हो।’ साधु उसे गंगातट से अपने आश्रम में ले आए। अग्नि के समीप बैठने के पश्चात् बोले ‘देखो, सुख की निर्बाध उपलब्धि ही प्राणियों का स्वाभाविक लक्ष्य है। सच्चा सुखी आप्तकाम पुरुष ही होता है और आत्माराम ही आप्तकाम होता है।’

‘आप्तकाम हुए बिना अशान्ति तो मिटती नहीं।’ उसने स्वीकार किया कामना के पीछे भागने में कितनी भी उसकी पूर्ति प्राप्ति होती रहे विश्राम कहीं नहीं है। भोग उलटे रोग का प्रसाद देता है।

‘अब विचार करके देखो। साधु गम्भीर बन गए मद और मत्सर पामर पुरुषों में होते हैं। पाप करना ही जिन्हें प्रिय है उनकी चर्चा अनावश्यक है। वे पतन के पक्ष पर लुढ़के जा रहे हैं। अब आप्तकाम होने में चित्त के चार विकार बाधक रह जाते हैं-मोह, लोभ, काम और क्रोध। मोह और लोभ विषयी पुरुष को अपनाते हैं। ये स्थायी विकार हैं। प्रत्येक अवस्था में ये बने ही रहते हैं। ये मंद गति से बहते हैं, किन्तु बद्धमूल होते हैं। इनको निर्मूल किए बिना कोई साधक नहीं बनता। लोभ और मोह का उन्मूलन जहाँ हो जाता है, वहाँ से परमार्थ पथ प्रारंभ हो जाता है। साधक में वैराग्य न हो तो साधन कैसे चलेगा और वैराग्य का अर्थ ही है लोभ और मोह का सम्यक् त्याग।’

भगवान ने तुम पर अनुग्रह किया है। तुममें वैराग्य आया है। लोभ, मोह से तुम ऊपर उठ चुके हो।’ कुछ क्षण रुककर साधु बोले अब काम और क्रोध के वेग को सहने की क्षमता उत्पन्न करो। जीवन की सफलता यही है कि मनुष्य इनके वेग को सह लेने में सक्षम हो। विश्वास करो जिस दिन तुम यह शक्ति प्राप्त कर लोगे आप्तकाम हो जाओगे।

‘काम और क्रोध तो निमित्तज हैं।’ वह उस दिन साधु के समीप से उठ आया और धर्मशाला के अपने कमरे में आकर सोचने लगा कोई प्रलोभन सम्मुख आयेगा तो मन में उसे प्राप्त करने की वासना उठेगी। कोई अपने अभीष्ट में व्याघात बनेगा तो उस पर क्रोध आएगा। तब ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता कि निमित्त प्राप्त ही नहीं हों।

गंगोत्री से वह लौटा, किंतु घर न आने का तो निश्चय कर चुका था। तीर्थयात्रा में लगा रहा कुछ काल और यह यात्रा भी उसकी हिमालय के पर्वतीय तीर्थों की ही थी। अन्त में एक एकान्त निर्झर के किनारे एक गुफा को अपना आश्रय बनाकर जम गया। पास के पर्वतीय ग्राम के लोग जैसे ही पहली बार दर्शन करने आए, उसने बता दिया कि केवल शाम को दो घण्टे ही गुफा से निकलकर बाहर बैठेगा और कोई स्त्री अथवा कन्या उसकी गुफा के पास कभी आयी तो यहाँ से चला जाएगा।

जप तथा गीता, भागवत् का पाठ, स्वाध्याय। बड़ा शान्त तथा आनन्दमय जीवन उसे प्रतीत हुआ। अपने साथ थोड़े से वस्त्र, दो कम्बल, एक लोटा, तथा गीता एवं भागवत् की पुस्तकें इतनी ही सामग्री लाया था। ग्राम के लोग उसे आटा, आलू, नमक तथा दूध दे देते थे। शरीर निर्वाह के लिए इतना सब पर्याप्त था।

‘कहो यतीन्द्र! प्रसन्न हो?’ अचानक एक दिन उसकी गुफा पर वे गंगोत्री वाले निरालम्ब स्वामी आ धमके। ये साधु भी बड़े विचित्र स्वभाव वाले होते हैं। हाथ जोड़ो-प्रार्थना करो, धरना तक दे डालो, ध्यान नहीं देंगे तो नहीं देंगे। किन्तु यदि किसी ओर ढल पड़े, फिर उसका पिण्ड भी नहीं छोड़ेंगे। अब पता नहीं कैसे उसका पता लगाकर ढूँढ़ते हुए आए हैं। आए और सीधे उसके आसन पर जाकर विराजमान हो गए।

‘मेरा सौभाग्य!’ वह हर्ष विह्वल हो उठा। चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया उसने।

‘सौभाग्य अथवा दुर्भाग्य की बात पीछे देखी जाएगी। इस समय तो मैं तुम्हें यहाँ से निर्वासित करने आया हूँ। बैठो और स्थिर होकर सुनो। साधु ने उसके बैठ जाने पर कहा-तुमने अपने को भ्रम में डाल रखा है। कोई प्रलोभन सम्मुख न हो या स्वयं में शक्ति न हो, यह अकामता या काम विजय नहीं है। सब लोग सम्मान करें, सब अनुकूल आचरण करें तो क्रोध किसी को क्यों आएगा? साधक के लिए एकान्त आवश्यक है, किन्तु इससे अपने में आप्तकाम होने का भ्रम होता है। अच्छा हो तुम लोक में जाओ, देश और समाज को स्वयं की सेवाओं का लाभ दो। तुम्हारा परीक्षण भी हो जाएगा।

उसके अत्यन्त आग्रह करने पर भी स्वामी जी रुके नहीं। वे उसी समय चले गए। कठिनाई से उन्होंने थोड़ा दूध स्वीकार किया था। जाने पर उसने भी गुफा छोड़ दी।

वह हिमालय की तपोभूमि से समाज के कोलाहल पूर्ण क्षेत्र की ओर चल पड़ा। किन्तु यह अवतरण केवल शारीरिक नहीं रहा। उसे लगा कि वह मानसिक दृष्टि से भी हिमालय से नीचे गिर गया है। यह समाज यह अशान्त वातावरण, उसे लगता कि साधारण व्यक्ति भी उसकी अपेक्षा मानसिक दृष्टि से अधिक सशक्त है।

अब उसे कौन बताये कि उत्तेजक वातावरण में रहने वाले व्यक्ति का चित्त भी क्रमशः क्षीणसत्व हो जाता है। उसे उत्तेजना प्राप्ति के लिए अधिक उपकरण अपेक्षित होते हैं। यह बात भी वह कहाँ समझता है कि चित्त में एक साथ अनेक आवेग नहीं रह सकते। जिनके चित्त में मोह या लोभ जितने प्रबल हैं, उन्हें काम या क्रोध उतने कम अभिभूत कर पाते हैं। लोभी व्यापारी हँस कर अपमान सह लेने में चतुर होता है। किन्तु शुद्ध जल के सरोवर में सामान्य वायु भी लहरें उठाया करती हैं।

समाज में नारी ने अपने को अर्धनग्न रखना सभ्यता मान लिया है। अब कोई कहाँ तक नेत्र बन्द किए चल सकता है। लोग सादे वेश का ही उपहास करते हैं। तनिक वेश से धार्मिकता व्यंजित हो तो उस पर व्यंग करना आज के युवकों को अपना गौरव जान पड़ता है।

बड़ी व्यथा, बड़ी अशान्ति मिली है उसे इस वातावरण में आकर। वह तो उन्मत्त ही हो जाता यदि उसे अचानक वे साधु न मिल जाते। वृन्दावन वह आया तो भी उसे शान्ति नहीं मिली थी। बार-बार रोष आता है। कितना भ्रमित था वह अपने संबंध में।

बच्चे! साधु ने बहुत स्नेह पूर्वक उसके मस्तक पर हाथ रखा व्याकुल मत बन। ऐसा भवन नहीं बनेगा जो जीर्ण न हो मैला न हो। ऐसा शरीर नहीं होगा, जो रोगी न हो। यदि हो भी जाय, जैसा कि कुछ दिव्य देह अमर पुरुषों का है तो उसकी कोई महत्ता नहीं है।

‘शरीर स्वस्थ रहे या रोगी, मैं चिन्ता नहीं करता।’ उसने अश्रु भरे नेत्र उठाए। मैं यही कह रहा हूँ कि शरीर की चिन्ता से पागल मत रहा कर साधु ने स्नेह पूर्वक कहा ‘सूक्ष्म शरीर भी शरीर ही है बच्चे!’

‘भगवन्! यह ऐसे चौंका, जैसे पैरों के नीचे सर्प आ गया हो। भला इस बात से क्या तात्पर्य हो सकता है इन साधु को?’ काम और क्रोध स्थायी वृत्तियाँ नहीं है। वह समझने लगे-ये आवेग हैं, आँधी की भाँति निमित्त के संयोग से आते हैं। आने के पूर्व जिनका पता ही नहीं होता, उन्हें आने से ही तू कैसे रोकेगा? समष्टि में निमित्त आवे ही नहीं, किसी के वश की बात है?’

‘तब?’ केवल नेत्रों के भाव उसके पूछ रहे थे। शब्द वह चाहता भी तो कण्ठ से नहीं निकलते।

‘आँधी तो आएगी। आने का पता लगे तो भवन के द्वार बन्द कर ले।’ साधु ने अपनी बात की व्याख्या कर दी-काम और क्रोध के वेग तो आएँगे। आने पर सावधान होकर इन्द्रिय के द्वार बन्द करा इनका वेग क्रिया से शब्द से, शरीर की भाव भंगिमा से बाहर निकले शरीर छोड़कर ये बाहर जाएँ, इससे पहले ही इन्हें चित्त में शान्त कर ले। इनका वेग भीतर ही सहन कर लेने की क्षमता हो जाय तो तू आप्तकाम हो गया। सुखी हो गया। सफल हो गया।’

श्री बाँकेबिहारी के मन्दिर में एक कोने पर दीवाल से टिके वे दोनों आधे खड़े प्राय थे। मंदिर के पट खुल गए। गोस्वामी ने चिक उठाना प्रारम्भ कर दिया था। दोनों शीघ्रता से सम्मुख आ गये। निरालम्ब स्वामी ने वार्ता का उपसंहार किया थोड़े शब्दों में-अपने प्रयत्न से कोई कदाचित् ही सफल होता है। सफलता तो सदा प्रभु के श्रीचरणों में रहती है। इतना स्मरण रखा, तो तुझे अशान्ति स्पर्श नहीं करेगी। अब जा भारत माता तुझे पुकार रही है। माँ की बेड़ियाँ तोड़ने में अपने शौर्य, साहस का परिचय दे यतीन्द्रनाथ। अपने गुरु से मिलने वाले इस सफलता के सूत्र को समूचे देश ने सराहा और उन्हें नाम दिया-'बाधा जतीन’


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