भ्रम जंजाल में उलझकर देवताओं को गाली न दें

May 1995

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बाल बुद्धि लोग अति उतावले होते हैं। वे इस हाथ में काम लेते ही उस हाथ प्रतिफल चाहते हैं। श्रद्धावानों में जिस धैर्य और संकल्प की गंभीरता होनी चाहिए उसके अभाव में कोई महत्वपूर्ण काम नहीं बन पड़ते। एम. ए. पास करने के लिए 17 वर्ष चाहिए। पहलवान बनने के लिए वर्षों अखाड़ा गोड़ना पड़ता है। साहित्यकार, संगीतकार, अभिनेता और चित्रकार आदि बनने के लिए वर्षों निरंतर अभ्यास करना पड़ता है। वट-पीपल के वृक्ष परिपुष्ट होने में वर्षों का समय ले जाते हैं। हथेली पर सरसों बाजीगर जमाते हैं। झोले से निकालकर वे ही फल लगा हुआ आम का पौधा दिखा देते हैं, पर इन चमत्कारों में चालाकी भर होती है। यदि इतनी जल्दी इन कामों को कर सकना संभव होता तो वे कुछ ही वर्षों में धनकुबेर बन गये होते। जल्दी में सिद्धियाँ नहीं मिल सकतीं, बाजीगर से हाथ की चालाकी ही सीखी जा सकती है।

किसान को गेहूँ की फसल काट कोठी भरने में एक साल लगता है। किले और महल बनने में वर्षों लग जाते हैं। छोटे बच्चों को जवान बनने में 25 वर्ष चाहिए। किसी को बहुत उतावली हो तो, चार आने में बिकने बाली नकली मूँछ लगाकर किसी बच्चे को जवान बनाया और दर्शकों को हँसाया जा सकता है।

पार्वती जब शिव से विवाह करने को तपस्या करने लगीं, तो उनकी श्रद्धा परखने के लिए ऋषियों का समुदाय गया और कहा-शिव ने हजार वर्ष की समाधि लगा ली है। तुम उनसे विवाह का विचार छोड़ो और किसी अन्य देवता और राजा से विवाह कर लो, तब पार्वती ने स्पष्ट उत्तर दिया था।

ऋषिगण श्रद्धा की गंभीरता देखकर विवश हो गये और शिव को विवाह करने के लिए विवश होना पड़ा। अनेक साधक ऐसे ही उतावले होते हैं, वे थोड़े बहुत दिनों उलटे सीधे जंत्र-मंत्रों की हेराफेरी करके सिद्ध पुरुष बनना चाहते हैं और कुछ हाथ न लगने पर पूरे साधना विज्ञान को ही कोसने लगते हैं। भविष्य के लिए तो वे श्रद्धा विश्वास ही गवाँ बैठते है। ऐसे लोग यदि उतावली न करें, अधिक कोई साधन न करे, तो भी कम-से-कम आशा तो बनी रहेगी। उतावली में वह भी चली जाती है। गायक वादक अभिनेता अपना अभ्यास नित्य जारी रखते हैं। पहलवानों और सैनिकों को भी नियमित अभ्यास का आश्रय लेना पड़ता है। मनमौजी ढंग से कभी करना, कभी न करना ऐसे प्रयोग कौतूहल सफलता एवं सुदृढ़ता के लक्ष्य तक पहुँचते देखे नहीं गये। बच्चे बालू का महल बना लेते हैं और टहनियाँ जमीन पर गाड़कर बगीचा लगाने की खुशी मना लेते है, पर जिन्हें उद्यान विज्ञान का ज्ञान है वे समझते हैं कि मजबूत पेड़ों की जड़ें जमीन में लगाई जाती है वहाँ से रस चूसकर लाती है और तने से लेकर टहनी तक को मजबूत बनाते हुए उसे फल फूलों से लादती है।

यह कार्य जो कर लेते हैं उनके आम, जामुन, लीची, कटहल मुद्दतों फलते फूलते हैं। मौसमी पौधे तो एक महीने फूल देकर सूख जाते हैं। 'साधना से सिद्धि' प्राप्त करने के लिए अनवरत प्रयास की आवश्यकता पड़ती है। जिन्हें बहुत जल्दी हो, उनके लिए विज्ञजनों का एक ही परामर्श है कि वे इस झंझट से दूर रहें।

जीवित रहने के लिए हमें रोज भोजन करना पड़ता है और नित्य ही मल मूत्र त्यागने की, स्नान करने की, कपड़े धोने, बर्तन मलने, झाडू लगाने की आवश्यकता पड़ती है। हमारे ऊपर भी भीतरी कषाय-कल्मषों का और बाहरी प्रथा-प्रचलनों का प्रभाव पड़ता रहता है। इसके निष्कासन के लिए भी साधना करनी पड़ती है और आत्मिक बल वर्धन के लिए क्षुधा बुझाने वाले सुपाच्य आहार की व्यवस्था करनी पड़ती है। यह नित्य कर्म है। नित्य ही नहीं, अनवरत भी। साँस लेकर शरीर के भीतर ऑक्सीजन पहुँचाई जाती है और साँस छोड़ने के साथ शरीर में उत्पन्न विषाक्तता को निकाल बाहर किया जाता है। यह अपने स्वास्थ्य को सही बनाने के लिए किया जाने वाला आवश्यक कृत्य है। साँस लेना किसी पर अहसान करना नहीं है और न ही उसके बदले हुण्डी भुनाई जाती है। श्वासोच्छवास वह कर्तव्य है, जिसे जीवन धारण करने के लिए करना ही चाहिए। यह किसी देवी देवता पर अहसान करना नहीं है कि उसकी छुट-पुट पूजा-पत्री की चिन्ह-पूजा करके लम्बे-चौड़े वरदानों की आशा, अपेक्षा की जाए।

सिद्धियाँ बाहर से नहीं आती, भीतर से उगती हैं। जड़े जमीन से रस खींचकर, पेड़ को पुष्ट करती हैं भले ही वे जमीन के भीतर रहने के कारण दृष्टिगोचर न हो। फूल और फल उन्हीं की प्रतिक्रिया है। यह सोचना गलत है कि इन्द्र देवता आकाश से विमान पर आते हैं और पेड़ों के ऊपर फल-फूलों की वर्षा करते हुए चिपका जाते हैं। देवता अनुग्रह अकारण नहीं करते हैं। उसके भी कुछ सिद्धान्त हैं, पेड़ अपनी चुम्बकीय शक्ति से बादलों को जमीन पर खींच बुलाते हैं और बरसाने के लिए मजबूर करते हैं। जिस क्षेत्र में पेड़ नहीं होते, वहाँ आकर्षण के अभाव में बादल ऊपर होकर उड़ जाते हैं, बरसते नहीं। हरीतिमा रहित क्षेत्र रेगिस्तान बनते चले जाते हैं। चुम्बक अपने सहधर्मी लौह कणों को रेत में से दूर से घसीट लाता है और खदानों की आकर्षण शक्ति अपने सजातीय कणों की वृद्धि के कारण निरन्तर बड़ी और भारी होती जाती है। साधना के माध्यम से, हम अपने व्यक्तित्व को विकसित एवं परिष्कृत करते हैं, फलस्वरूप अन्तः क्षेत्र की प्रसुप्त गरिमा ऋद्धि सिद्धि बनकर प्रकट होती है। ऐसे ही पराक्रमी लोगों पर देवताओं की अनुकम्पा बरसती है।

धुले कपड़े पर ही रंग चढ़ता है, मैले कुचैले तेल तारकोल में डूबे हुए कपड़े पर कितना भी रंग चढ़ाया जाय, वह चढ़ेगा ही नहीं। बिना जोती ज़मीन में बीज बो देने पर वह उगेगा ही नहीं। रोग मात्र औषधि सेवन से ही नहीं चला जाता, वरन् साथ ही आहार विहार का पथ्य भी सही रखना पड़ता है। केवल मंत्र-तंत्र के क्रियाकृत्य कर लेने पर जो बड़े-बड़े चमत्कारों की आशा करते हैं, वे भूल करते हैं। साधकों को आत्मशोधन की शर्त भी पूरी करनी चाहिए।

देवता इतने दीन-दरिद्र नहीं है, कि उन्हें थोड़ा-सा भोग-प्रसाद चढ़ाकर छोटे बच्चों की तरह फुसलाया जा सके। वे व्यापक हैं। उन्हें दिन में सूर्य का और रात्रि में चन्द्रमा का प्रकाश उपलब्ध है। पुष्प भी वे उद्यानों से चाहे, जितने चाहे जैसे सूँघ सकते हैं। उनकी प्रशंसा उड़ती हुई पवन और खिलती हुई धूप करती है। कोई उनकी स्तुति न करें तो, उनका कुछ बनता-बिगड़ता नहीं जो। निन्दा-स्तुति से ऊपर है, वही देवता हैं। पूजा-उपचार हमें आत्मशोधन क्यों करना चाहिए? इसका स्मरण करने के लिए कराए जाते हैं। पुष्प जैसा जीवन खिले और देवता के चरणों में समर्पित हो चंदन की तरह हम समीप में उगे हुए झाड़-झंखाड़ों को भी सुगंधित बनायें। दीपक की तरह स्वयं जल कर प्रकाश फैलाये। मीठे नैवेद्य की तरह हमारे वचन और व्यवहार मधुरता से भरे-पुरे हो। यह शिक्षण उपचार माध्यमों से अपने आप को ही देना पड़ता है। तनिक से अक्षतों से गणेश जी के चूहे का भी पेट नहीं भर सकता, फिर देवता पर अक्षत किस लिए चढ़ाए जाएँ। इसका उद्देश्य इतना है कि हम अपनी कमाई का, श्रम समय का, एक अंश नियमित रूप से देव प्रयोजनों के लिए, परमार्थ के लिए लगाते रहें।यदि पूजा-उपचार के माध्यम से आत्मशिक्षण की बात भुला दी जाय और देवता को फुसलाने का प्रयत्न करें, तो यह मछलीमार, चिड़ीमार जैसी विडम्बना होगी, जो तनिक-सा लालच दिखाकर उन्हें पकड़ लेते हैं। देवताओं को इस प्रकार वशवर्ती बनाने की आशा किसी को भी नहीं कहनी चाहिए। हमें पूजा उपचार का मर्म समझना चाहिए। भ्रम जंजाल में भटकने की अपेक्षा यही अच्छा है कि हम जो भी काम करें, समझ कर करें, उसके मर्म को आत्मसात् करें। थोड़ी-सी पूजा करके, टोकरी भर गाली देने का झंझट ना पालें।

साधना क्षेत्र में आज जो असफलताएँ देखी जाती है, उपासना फलीभूत नहीं होती, उसका मूल कारण यही है कि उतावलापन बरता गया। बहिरंग कर्मकाण्ड को ही सबकुछ समझ कर उसी से सब कुछ प्राप्त कर लेने-सिद्ध पुरुष बन जाने की, शेखचिल्ली जैसी कल्पना कर ली गयी। निरन्तरता, गहन श्रद्धा एवं सतत् अभ्यास द्वारा जब साधना उपक्रमों के मर्म को समझते हुए उन्हें जीवन में उतारा जाता है तो वह सिद्धियों को फलीभूत करता चला जाता है। यह उस हर सफल व्यक्ति का इतिहास है जिसने जीवन समर में आतुरता, तुरन्त सफलता मिलने की जल्दबाजी न दिखाकर, धैर्य व निष्ठापूर्वक साधना की है, आत्मशोधन किया है वह अपने को निखार कर गुणों की खेती आत्मसत्ता रूपी खेत पर की है। गीताकार ने ऐसे ही व्यक्ति को 'क्षेत्रज्ञ' कहा है व उसी को सफलता सदैव मिलेगी, यह भी बताया है।


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