रे मन! अब तू रूठना छोड़

May 1995

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रूठे को मना लेने में ही समझदारी है, रूठता कौन नहीं है कमोबेश सभी रूठते हैं लेकिन जो रूठ जाय उससे खुद भी रूठ बैठें तो जीवन चलाना मुश्किल हो जायेगा। कभी पत्नी से अनबन हो जाती है, कभी बच्चों से कहन–सुनन। कभी भाई से मन चाल हो जाती है कभी पड़ोसी से मन मुटाव बन जाता है। इस स्थिति को ऐसे ही रहने दिया जाय अथवा ऐंठ और कड़ी करते रहा जाय तो, काम नहीं चलेगा। उलझन बढ़ती ही जायेगी, जिनके साथ रहना है उनसे मीठे सम्बन्ध बनाये रहने में ही भलाई है।

ऐसा उपयोगी और सामर्थ्यवान साथी अपने से रूठे रहें यह कदापि उचित नहीं। रूठ जाय तो उसे मना लेना जीवन की सर्व प्रथम और अनिवार्य आवश्यकता है। अन्य काम छोड़कर भी इस काम को करना पड़े तो भी उचित है। मनोवैज्ञानिक वाल्टकर होलिस्टर अपनी पुस्तक 'नो युअर माइन्ड' में लिखते हैं 'यूँ मन आँखों से दिखाई नहीं देता, इसलिए उसका रूठा भी नहीं दिखता है। पर विवेक की आँख से देखें तो रूठा हुआ मन प्रत्यक्ष दिखाई देगा।'

रूठने वाली की पहचान है, साथ न देना, कहना न मानना, सहयोग न करना, नुकसान करना। बच्चा रूठ जाता है तो ऐसा ही उपद्रव करता है। घर का सामान तोड़ता-फोड़ता है और अपने हाथ पैर पीटता है।

मन ने यदि साथ दिया होता तो शरीर की ऐसी दुर्गति न होती, जैसी आज है। उसने काया को स्वस्थ और समर्थ बनायें रखने के लिए संयम बरता होता। लिप्सा के फेर में न पड़ा होता। जीभ को, कामेन्द्रियों को व्यवस्था में रखा होता। आहार विहार की नियमितता बरती होती तो काया-गुलाब के फूल की तरह खिली हुई और गेंद की तरह उछलने वाली रही होती। बीमारी और कमज़ोरी को इस घर में घुसने की हिम्मत ही न पड़ती। मन रूठा बैठा रहा, शरीर को देखा संभाला नहीं, रुग्णता ने घेरा डाल लिया। शरीर टूटा, आत्मा को अशान्ति रही और स्वयं मन भी रुग्ण काया में रहकर टूटे मकान में रहने वाले किरायेदार की तरह उद्विग्न अशान्त बना रहा।

देवत्व के सारे उपकरण अपने भीतर विद्यमान थे। एक उँगली के सहारे यह सारा साज झंकृत हो सकता था। अपने भीतर बैठा ऋषि देवता प्रतीक्षा करता रहा, जरा सा सहारा मिले तो ऊपर उभर कर आए। जीवन संध्या निकट आ गई तो भी हाय रे मन, तेरा सहयोग न मिल सका।

मनोवेत्ता रॉबर्ट शुलर के ग्रन्थ 'सेल्फ लव' की भाषा में कहें तो हमें मन से अपनी दयनीय दुर्दशा का वर्णन करना चाहिए। भगवान का समर्थ पुत्र- सकल साधनों से सम्पन्न इस प्रकार दीन-हीन निन्दति, तिरस्कृत, असफल असहाय फिरे यह कितने दुःख की बात है। यदि मन साथ दे, तो महामानव की गरिमामयी स्थिति में प्रकाश और उल्लास भरा जीवन अब भी जिया जा सकता हैं। यदि उतने में भी परस्पर सहयोग रह सके तो अभी भी उतना अवसर है कि अभिशाप को वरदान में बदला जा सके। वासना आग की तरह है, भोग से यह शान्त होने वाली नहीं। फिर उसके कुचक्र में जितना भी फँसा जाय, उतनी ही क्षमता, आयु, प्रतिभा घटती है। क्षणिक चटोरेपन के पीछे समर्थता की सम्पत्ति को घटाने और दिन-दिन दुर्बल होते जाने से क्या लाभ।

आत्मा रोती बिलखती रही, उसके संतोष उत्थान के लिए एक कदम नहीं बढ़ाया गया। उन्हें सींचने के लिए एक लोटा पानी नहीं डाला जा सका। सद्भाव के बालक अपने पोषण की पुकार करते रहे, उनकी आवश्यकताएँ जुटाने से मुँह मोड़े रहा गया।

शरीर को ठाट-बाट जुटाने में, उसी के ताने बाने बुनता रहा। मन तू खुद भी मरा और अपने मित्र शरीर को भी मारा। यदि तू आत्मा का मित्र बन गया होता और जितना श्रम शरीर के लिए किया गया है उतना आत्मा के लिए करता तो आनंद आ जाता।

भूलें बहुत हो चुकीं। बहुत क्या- यूँ कहना चाहिए कि अब तक का सारा जीवन भूल-भुलैयों में भटकते हुए ही बीत गया। कितने ऊँचे पहुँचे होते, कितने आगे बढ़े होते। खीझ क्षीणता, जलन और पछतावे की सिवाय इस भूल भरे मार्ग पर और मिलना ही क्या था।

'माइन्ड- इट्स मिस्ट्रीज एण्ड कंट्रोल' पुस्तक में सुप्रसिद्ध स्वामी शिवानन्द कहते हैं कि ऐसा चिन्तन मनन हमें नित्य करना चाहिए। इस तरह के मनन को निरन्तर अभ्यास से रूठा मन सहज ही मान जायेगा। फिर तो इसके नित नये चमत्कार समूचे जीवन को अलौकिक बना देंगे।


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