मोक्ष क्या है? मुक्ति क्या है? यह प्रश्न हर भारतीय संस्कृति के पक्षधर मानव के मन में सहज ही उठता रहा है, सदा से ही, उसके पृथ्वी पर आविर्भाव के काल से। कई व्यक्ति यह समझते हैं, मोक्ष मरने के बाद-शरीर रूपी बंधन के छूटने के बाद ही मिलता है। इसके लिए वे दान पुण्य आदि अनेकानेक कृत्य करते भी देखे जाते हैं। किन्तु क्या वास्तविक मोक्ष इससे मिल जाता है? ऋषियों की दृष्टि से देखें तो यह एक ऐसी विधा है जिसका अंतर्चक्षुओं से साक्षात्कार कर समझना होगा।
ऋषि मनीषा कहती है कि जो मोह का क्षय करे वही मोक्ष है। यह संदेह भी जीवन मुक्ति स्थिति में किसी को भी प्रयास करने पर मिल सकता है। मोक्ष वस्तुतः जीवन में त्याग की प्रतिष्ठा का नाम है। वासना-तृष्णा-अहंता रूपी त्रिविध बंधनों पर मुक्ति प्राप्त कर आत्मतत्व की ओर उन्मुख होने का पुरुषार्थ ही मोक्ष है। इस मोक्ष देने वाले ज्ञान का स्वरूप भारतीय दर्शन की विभिन्न विचारधाराओं के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकता है, किन्तु लक्ष्य सभी का एक है- जीव को बंधनों से मुक्त करना। वस्तुतः मानव जीवन मिला ही इसलिए है कि हर व्यक्ति इस परम पुरुषार्थ, जिसे निर्वाण मुक्त या अपवर्ग कुछ भी नाम दे दें, के लिए कर्म कर व परमतत्व की प्राप्ति हेतु इस सुयोग को सार्थक बनायें। मोक्ष प्राप्ति हेतु किए जाने वाले इस कर्म को यदि जीवन जीने की कला कहा जाए तो अत्युक्ति नहीं कहना चाहिए।
गीता में योगेश्वर कृष्ण, इस कला का जिसमें बन्धनमुक्ति या मोक्ष प्राप्ति का संदेश दिया गया है, बड़ा ही सुन्दर शिक्षण धनंजय को देते है। मोक्ष को गीताकार जीवन के एक सकारात्मक पक्ष के रूप में लेता है। कर्म करते हुए व उन्हें मन से परम सत्ता को अर्पण करते हुए यदि कोई पुरुषार्थ करता है (मयि संन्यस्य मतरः) तो वह मोक्ष इस जीवन में ही पा लेता है। कर्म करते हुए व्यक्ति को अनेकानेक बंधनों को काटना पड़ता है जिनमें लोभ प्रधान, मोह प्रधान व अहं प्रधान ये तीन प्रमुख हैं। बंधन सदा दुष्प्रवृत्तियों के ही होते हैं। इनसे छुटकारा पा लेना, ज्ञान द्वारा भवबंधनों से मुक्ति पा लेना ही मोक्ष है। यदि यह दूरदर्शिता हमारे अंदर जाग जाए तो मोक्ष का तत्त्वज्ञान समझते हुए हम जीवन को सफलता की चरमसीमा तक पहुँचा सकते हैं। यह मार्ग ऋतम्भरा प्रज्ञा के आश्रय के रूप में प्रत्येक के लिए खुला है।