ईसा ने उस दिन एक वेश्या का निमन्त्रण स्वीकारा और उसके घर भोजन को गये। सारा शिष्य समुदाय भी साथ चला।
चारों ओर काना-फूँसी चल पड़ी। यह कैसा भगवान का बेटा है। जो पापिनी से घृणा तक नहीं करता। शिष्यों में से धनादय और मुखरसिमोन ने अपने मन की बात ईसा से कह भी दी। “उद्धार करना है तो सज्जन ही क्या कम हैं जो आप दुर्जनों के यहाँ जाते और बदनामी सहते हैं।”
ईसा ने उलट कर पूछा-सिमोन यदि तुम चिकित्सक होते तो किसी जुकाम पीड़ित और शस्त्राहत रोगी में से किसे प्राथमिकता देते? तुम्हारा विवेक ऐसी स्थिति में तुम्हें क्या करने को प्रेरित करता?
सिमोन ने शस्त्राहत की प्राण रक्षा के लिए जुकाम पीड़ितों की तुलना में प्राथमिकता देने की बात कहीं।
ईसा ने फिर पूछा-यदि मैं अधिक पापी को सुधारने के लिए कम अपराधी की तुलना में प्राथमिकता देता हूँ तो उसमें भूल क्या हुई?
सिमोन चुप हो गये। वेश्या ने यह प्रसंग सुना तो सन्त की करुणा पर भाव-विभोर हो गई। दूसरे दिन वह वेश्या न रहकर सन्त हो गई। यह परिवर्तन जिसने भी सुना, ईसा के प्रति वह सहज ही श्रद्धावनत हो गया।