देवात्मा हिमालय की यात्रा - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

May 1995

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(प्राण-प्रत्यावर्तन सत्र अप्रैल 1973)

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियो, भाइयो, कई व्यक्ति हमारे बारे में पूछते हैं कि हिमालय में अज्ञातवास के समय की आपकी क्रम व्यवस्था क्या थी? भावी कार्यक्रम का जानना भी उनकी उत्सुकता का विषय रहता है और यह स्वाभाविक भी है कि जिनके प्रति अपनी आत्मीयता होती है उनके कुशल समाचार जानने के लिए, उनकी गतिविधियाँ जानने के लिए हर आदमी की इच्छा बनी रहती है। अपने ही परिवार के लोगों का ऐसा कुछ जानने की इच्छा रही हो तो कोई अचम्भे की बात नहीं। भूतकाल के संबंध में भी लोगों को थोड़ी ही जानकारी है और उसके साथ में भविष्य का संबंध किस तरह मिला हुआ है इसके बारे में पूरी जानकारी न होने से कई व्यक्ति कई तरह के अनुमान लगा लेते हैं और कई तरह के सवाल पूछते रहते हैं। उनके समाधान किये जायें, यह ज्यादा मुनासिब समझा गया। हममें से प्रत्येक व्यक्ति को जो मुझ में दिलचस्पी रखता हो उसको यह जानना चाहिए कि अपने जीवन का क्रम 15 वर्ष की उम्र से लेकर आज तक एक अज्ञात शक्ति के इशारे पर चलता हुआ चला आया है। 15 वर्ष की उम्र से पूर्व इस संसार में खाया हो, खेला हो, हँसा हो, सोचा हो, किया हो, बात अलग, लेकिन जब मैं 15 वर्ष का हो गया उस समय से लेकर के आज तक की जितनी भी गतिविधियाँ हैं उनका संचालन और उनकी धारणा अपने मन से नहीं की गयी, बल्कि ऐसी शक्ति के इशारे पर की गयी हैं जो अत्यधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं।

जब मैं 15 वर्ष की उम्र में पूजा की कोठरी में बैठा हुआ था तब एक दिव्य प्रकाश सामने आया और वह दिव्य प्रकाश एक दिव्यात्मा का था। वह प्रगट हुये, उन्होंने मेरे को दिव्य लोक के सारे इतिहास और सारे संकेत दिखाये, बताये और सुनाये। इनको जानने के बाद में, मैं समझ गया मैं कौन हूँ और मुझे क्या करना चाहिए। यह है आत्मबोध जो मुझे हुआ, वह हम में से हर एक को मिल सकता है। हम में से हर एक आदमी को यह प्रयास करना चाहिये कि हम ये कहें कि हम भूतकाल में क्या थे। हम भूतकाल में भगवान के अंश थे। हमको भगवान ने विशेष कामों से भेजा है। जिन लोगों में मेरे ही तरीके से आकांक्षायें उत्पन्न हुई हो उन्हें यह भी जानना चाहिए कि उनके पूर्व जन्म में कोई न कोई दिव्य काम हुए हैं अन्यथा ये आकांक्षायें जो भगवान की इच्छानुरूप हैं उनके मन में पैदा न होती। ये आकांक्षायें हजारों तरीके से फैली हुई हैं और अनेक मनुष्य अनेक तरीके से उनमें दिलचस्पी लेते हैं। लेकिन बात मानने ही लायक है। इस समय भगवान का जो प्रवाह अंतरिक्ष लोकों में चल रहा है वह यह है कि मनुष्य का भावनात्मक नव निर्माण किया जाय। इसका आंदोलन जो युग निर्माण किया जाय। इसका आंदोलन जो युग निर्माण योजना के नाम से विख्यात है, यह भगवान का ही आंदोलन है और उन्हीं का क्रिया−कलाप है और उन्हीं की इच्छा का संकेत है। 15 वर्ष की उम्र में मुझे इसी संकेत की ओर प्रेरित किया गया और अग्रसर किया गया। उसी सत्ता ने जिसका कि मैं इशारा कर चुका हूँ और जिसको मैं गुरुदेव कहता हूँ और अपने आपकी संचालित सत्ता मानता हूँ, उन्होंने मुझे यह आदेश किया कि मुझे 24 वर्ष तक सब साधन करना चाहिए। सब साधन का अर्थ आत्म संशोधन की प्रक्रिया। आत्म संशोधन की प्रक्रिया मैंने 24 वर्ष तक की। जौ की रोटी खायी। जबान पर संयम रखा, कामेन्द्रियों पर संयम रखा और बराबर यह प्रयास किया कि प्रत्येक नारी को माँ, बहन और बेटी के तरीके से मानूँ। ये दो चीजें ऐसी हैं जो मनुष्य के भीतर अनायास ही शक्ति का ह्रास करती हैं। आदमी अपनी जीभ के ऊपर काबू करले और अपनी कामेन्द्रियों पर काबू प्राप्त करले उसको सिद्ध पुरुष बनने में कोई कठिनाई नहीं आती। आत्म बल सहज ही विकसित होता चला जाता है। इसी के लिए उन्होंने मुझे तप अनुष्ठान करने के लिए कहा। गायत्री मंत्र का जप करने के लिए कहा क्योंकि मेरे सामने एक लक्ष्य निर्धारित किया गया था और उस लक्ष्य को मुझे बार-बार समझना था और विचार करना था ‘वह था गायत्री मंत्र।’ गायत्री मंत्र लक्ष्य भी है, पूजा का विधान भी है, कर्मकाण्ड भी है। लक्ष्य क्या है? कि हम अपनी स्वयं की विचारणा की, बुद्धि को और विचारशीलता को ऐसा विकसित करें कि वह जीवन के लक्ष्य की ओर, भगवान की ओर, लोक मंगल की ओर निरन्तर बनी रहे। यही तो गायत्री मंत्र की शिक्षा है-धियो यो नः प्रचोदयात् बार-बार समझूँ, सोचूँ और हृदयंगम करूँ कि रोम-रोम में इस संदेश को और संकेत को बसा लूँ। मेरी बुद्धि का उपयोग मेरी विवेकशीलता का उपयोग मेरी जीवात्मा का उपयोग केवल उन कामों के लिए हो जिनका योग भगवान का संकेत है। यही शिक्षण गायत्री मंत्र का था।

गायत्री का मैंने जप तो किया, लेकिन जप के साथ-साथ में यह भी ध्यान रखा कि वह विचारणाएँ, शिक्षायें और प्रेरणायें मेरे हृदयंगम होती रहें। प्रत्येक जप के साथ प्रत्येक माला के साथ प्रत्येक उपकरण के साथ जप कर लिया करूँ जो कर्मकाण्ड मुझे बताया गया उसमें दीपक के रूप में मैंने एक अखण्ड दीपक की स्थापना की। अखण्ड दीपक जलाया बेशक, लेकिन, साथ-साथ में भावनाओं को भी तदनुरूप बनाया जिस तरीके से अखण्ड दीपक अखण्ड जलता रहता है बुझता नहीं उसी तरीके से हमारा जीवन प्रवाह ज्ञानमय हो, बुझने न पाये, टूटने न पाये श्रृंखला बिगड़ने न पाये। बीच-बीच में हमको अधःपतन की ओर गिरने का मौका न आये, ठोकरें नहीं लगे, चोट नहीं लगें और इस प्रकार निर्धारित नियत और सुनिश्चित निशान की ओर हम बढ़ते हुए चले जायें और दीपक के तरीके से प्रकाशवान होकर प्रकाश पैदा करें, अपने भीतर प्रकाश पैदा करें और अपने बाहर भी। स्नेह से भरे हुए रहें, सद्भावनाओं से भरे हुए रहें-यही तो सब दीपक के संदेश थे। अखण्ड दीपक जलाया गया और वह इम्तहान का दीपक मेरे भीतर और बाहर भी जलता रहा। हर जगह उसकी प्रेरणायें आगे विकसित होती हुई चली गयीं। 24 वर्ष इसी प्रकार से निकल गये। इसके पश्चात् फिर वही मार्गदर्शक वही मेरे गुरुदेव सामने आये। उन्होंने कहा, तुम्हारे अनुष्ठान पूरे हुए हैं? मैंने कहा, इस मायने में पूरे हुए कि मैंने जो नियम लिया था जो व्रत लिया था, उनको बगैर डगमगाये, बिना इधर-उधर पैर हटाये, बिना अवरोध लगाये, बिना दौड़-भाग के शांत चित्त से एक ही स्वर करता रहा। अपनी निष्ठा में रत्ती भर भी कभी भी कमी नहीं आने दी। परिस्थितियाँ खराब आयीं तो क्या, अच्छी आयीं तो क्या, मुसीबतें आयीं तो भी कभी मैंने यह ख्याल नहीं किया कि मेरे अनुष्ठान के कारण से ही यह होता है भगवान मेरी इतनी भी सहायता नहीं करते फिर मैं क्यों अनुष्ठान करूँ? कभी भी संकट में भी श्रद्धा में कमी नहीं आयी, इस मायने में सफल हो गया। सुख आये, सुविधायें आयीं कभी उत्साह नहीं आया। दुख और कठिनाई आयीं तो कभी मैं निराश नहीं हुआ, न मैंने भगवान को दोष दिया, न मैंने भगवान से कुछ इच्छा की। ये बातें अगर अनुष्ठान की सफलता के लिए काफी हों तो सफल हो गया। इस मायने में अगर अनुष्ठान की सफलता साबित की जाय उससे कोई लाभ मिला कि नहीं, कोई चमत्कार दिखायी पड़ा, कोई रोशनी मिली, कोई चमत्कार, कोई लाभ, कोई महात्मा, कोई सिद्धि ऐसा कुछ मिला तो कहूँगा कि मेरा अनुष्ठान सफल नहीं हुआ। ऐसी कोई अनुभूति नहीं हुई इस तरह कि जैसा आम लोगों को ख्याल है कि जप कर लेने के बाद अनुष्ठान कर लेने के बाद, हवन कर लेने के बाद ऐसा दिखायी पड़ता है, ये आता है, वह दीखता है, यह सिद्धि आती है, ये बात आती है ऐसा मुझे कुछ नहीं हुआ। इस मायने में असफल रहा।

गुरुदेव मुझे मिले थे 24 वर्ष बाद प्रकाश के रूप में मेरे घर, और उन्होंने यह कहा, ठीक है तुम्हारा अनुष्ठान सही है। किसी भी तपस्वी का योगाभ्यास असफल नहीं होना चाहिए, मैं यही परखने के लिए आया था। बस, मुझे यह मालूम हुआ कि वास्तव में अब तुम्हारा काम पूरा हुआ। अब तुमको यह देखना चाहिए कि यह जो जप पूरा हुआ है इससे क्या कोई प्रभाव उत्पन्न होता है। इसका शायद विश्वास तुम्हें भी न हो इसलिये इसमें विश्वास कर लेना चाहिए। इसके लिए पुनरावृत्ति के रूप में सहस्र कुण्ड यज्ञ का आयोजन करना चाहिए। मैंने कहा मुझे तो विश्वास है अपने आपके ऊपर और मेरी सत्ता के ऊपर। मुझे अविश्वास करने की जरूरत क्या है। उन्होंने कहा, नहीं ऐसा है यह जो शक्ति है आत्मशक्ति क्या भौतिक जगत में भी कुछ काम कर सकती है? क्या इसके द्वारा संसार में भी कुछ प्रभाव डाला जा सकता है? यह शायद तुम्हें यकीन न हो, इसके लिए हम एक प्रयोग कराते हैं और यह प्रयोग तुम्हारे लिए विशेष उपयोगी होगा, समाज के लिए भी। क्या प्रयोग? सहस्र कुण्डी यज्ञ। सहस्र कुण्डी यज्ञ वास्तव में एक अचम्भे की चीज है। मैंने स्वयं इस बात को महसूस किया है। और लोगों ने भी इसको देखा है। वास्तव में अनोखी चीज ही कहना चाहिए उसको। कहते थे लोग 5000 वर्षों में पाण्डवों का वह यज्ञ जो कि राजसूय के नाम से विख्यात था और जिसे कृष्ण भगवान ने चलाया था उसके बाद में दूसरा ही नंबर इसको कहा जा सकता है। कई विशेषतायें थीं उसकी। आयोजन तो आये दिन होते रहते हैं। काँग्रेस के आन्दोलन और भी बड़े होते हैं। मेरे आयोजन और भी बड़े होते हैं। कुम्भ का मेला और भी बड़ा होता है, लेकिन उसकी कुछ विशेषतायें और ही थीं। एक व्यक्ति द्वारा इतने व्यक्तियों को आमंत्रित किया जाना, उसके बुलाने पर इतने व्यक्तियों का इकट्ठा हो जाना, उनके खाने-पीने का बिना मूल्य लिए हुए प्रबंध करना, उसकी व्यवस्था के लिए कोई पहले से घी या कोई गेहूँ इकट्ठा न किया जाना, धन राशि न लिया जाना, इतने बड़े आयोजन में कोई घटना का न होना, कोई चोरी इत्यादि का न होना, इतने आदमियों को इस तरीके से प्रभावित होते जाना, अनुशासित होते जाना-ऐसी असंख्य व्यवस्थायें हैं जो आज तक किसी आयोजन में नहीं हुई। उन्होंने गुरुदेव ने मुझसे कहा कि आयोजन की सफलता और विशेषतायें तुम्हें इस रूप में लेनी चाहिये कि ये सब तुम्हारे तप और पुण्य का परिणाम है। तप और पुण्य चाहे तुम्हारे पास हो चाहे किसी के पास भी हो, यह परिणाम निकलते हैं कि इस बात के जिसे तुम विश्वासपूर्वक कह सकते हो स्वयं से भी और लोगों से भी। इसीलिये इस आयोजन का विशेष रूप से उल्लेख किया गया।

ऐसा ही हुआ, बहुत सफल आयोजन हुआ। खुद बैठा रहा, कहीं गया भी नहीं, केवल घर बैठे निमंत्रण भेजे जिनको जानता पहचानता नहीं था, लाखों आदमी इकट्ठे हो गये ऐसे व्यक्ति जो अत्यधिक, महत्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। सामान्य भीड़-भाड़ जो मेरी सभाओं में आती है उस तरह के नहीं, बल्कि गणमान्य व्यक्ति उत्सुकता में आये और यज्ञ सम्पन्न हुआ। सहस्रों लोगों ने उसको देखा, कितना पैसा खर्च हुआ, कितनी व्यवस्था बनी लोग हैरत में रह गये कि आखिर कैसे हो गया। किसी ने जादू समझा, किसी ने तमाशा समझा, किसी ने किसी राजा महाराजा का आयोजन समझा, किसी ने चन्दा समझा, किसी ने क्या समझा, किसी ने क्या नहीं? कह नहीं सकता, लेकिन वास्तविकता यह थी कि वह मेरे गुरुदेव का चमत्कार कहिये अथवा उनकी प्रसन्नता का चमत्कार कहिये, बस, वही हुआ, और वह अपने समय पर बड़ा सफल हो गया और मेरे विश्वास की वृद्धि हुई। मुझे यकीन हो गया कि संसार में भी इस तत्व शक्ति के द्वारा भुगतान किया जा सकता है, इसे गायत्री की शक्ति भी कह सकते हैं, उपासना की शक्ति भी कह सकते हैं, इसको साधना की शक्ति भी कह सकते हैं। बस, वहाँ से इशारा चला मेरा उसी क्रम से मेरे लिये वह भी उतना ही महत्वपूर्ण था कार्य कौन-सा जो कि 24 वर्षों की उपासना प्रारंभ की थी मेरे लिए वह श्रद्धा का विषय था। वह श्रद्धा ज्यों की त्यों बनी रही, बल्कि ज्यादा ही बढ़ी। बस, सहस्र कुण्ड यज्ञ हो गया।

सहस्र कुण्ड यज्ञ से लेकर के मेरे गुरुदेव ने मुझे फिर 20 साल के लिए कुछ काम करने के लिए कहा। दस साल का उन्होंने एक खण्ड बताया। 10 साल में उन्होंने मुझे संगठन और प्रचार का कार्य सौंपा। गायत्री मंत्र और यज्ञ ये भारतीय संस्कृति के मूल हैं और इसी संस्कृति के मूल को देश और देशान्तरों में स्वीकृति करने के लिए मुझे बताया गया। वही किया गया। गायत्री परिवार बनाया गया। उसके लाखों की संख्या में सदस्य बने। हजारों की संख्या में शाखायें स्थापित हुई। जगह-जगह हजारों यज्ञ हुए। ये सारे का सारा प्रचार जो फैलाया गया है, गायत्री का साहित्य लिखा गया है, गायत्री मंत्र और यज्ञ को लेकर के 10 साल मैंने लगाये जो कि 24 वर्ष के बाद आरम्भ हुए थे ओर इसमें यदि 15 वर्ष पहले को भी जोड़ लिया जाय तो 50 वर्ष पूरे हो जाते हैं। इस तरीके से मैं क्रिया−कलाप में लगा रहा। क्रिया−कलाप के बाद में उन्होंने एक वर्ष के लिए मुझे अपने पास बुलाया हिमालय। एक वर्ष के लिए मैं हिमालय चला गया। कहाँ रहा, इसका थोड़ा-सा विवरण ‘सुनसान के सहचर’ नाम से आँशिक रूप में अखण्ड ज्योति में प्रकाशित हुआ था। वह बड़ी महत्वपूर्ण घटना है। लोग कहते हैं जहाँ आप गये थे, कहाँ गये थे? क्या करते रहे थे? हिमालय पर तो बहुत से लोग रहते हैं। हरिद्वार से हिमालय शुरू हो जाता है, कैलाश तक चला जाता है और कहाँ तक चला जाता है-पाकिस्तान में फैला हुआ है और बर्मा तक चला गया है। हिमालय में न जाने कितने हजार आदमी रहते हैं। हिमालय में कोई अच्छी भी जगह है बेकार जगह भी है। हिमालय में जो जन रहते हैं वहाँ झाड़ियाँ हैं, वहाँ बंदर रहते हैं, सिद्ध पुरुष भी रहते हैं। हिमालय अपने आप में न बुरा है न भला है, लेकिन मुझे जहाँ जिस स्थान पर रहने के लिया भेजा गया था वह अत्यधिक महत्वपूर्ण था। उसको हिमालय का हृदय या आध्यात्मिक ध्रुव कह सकते हैं। उस स्थान पर आज से 10-11 वर्ष पूर्व मैं एक साल के लिए रहा। मैं गंगोत्री भी रहा, उत्तरकाशी भी रहा। इन दोनों स्थानों पर रहा लेकिन मूल क्या है जो शक्ति का स्रोत था मुझे वहाँ मिला जहाँ मेरे गुरुदेव रहते हैं। उसको हिमालय का तीर्थ कहा जा सकता है। गायत्री तप का ध्रुव कहा जा सकता है।

पृथ्वी का ध्रुव-उत्तरी ध्रुव व दक्षिणी ध्रुव प्रख्यात है। वहाँ की परिस्थितियाँ बड़े अचम्भे की हैं। लोगों ने पुस्तकें भी पढ़ी हैं। ऐसा मालूम पड़ता है किसी जादू की बात कही जा रही है उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव के बारे में। ये ध्रुव ऐसे हैं कि चारों ओर से पृथ्वी पर जो कवच चढ़ा हुआ है उस कवच में से ब्रह्माण्ड की अनेक शक्तियाँ घुसने नहीं पाती। उत्तरी ध्रुव में से ही होकर आती हैं और सारी पृथ्वी पर फैल जाती हैं। ये शक्तियाँ आवश्यकतानुसार पृथ्वी पर रह जाती हैं और बाकी दक्षिण ध्रुव में से होकर के फिर वह ब्रह्माण्ड में फैल जाती है। ऐसा कवच पृथ्वी पर न होता तो ग्रहों से और नक्षत्रों से जो किरणें आती हैं सारे जगत को जला डालतीं और हमारी धरती भी उसी तरीके से वीरान हो जाती जिस तरह से बृहस्पति, मंगल, बुध इत्यादि दूसरे ग्रह सुनसान और वीरान पड़े हुए हैं। यह भी हो सकता है कि इसके ऊपर एक कवच चढ़ा हुआ है और उसके भीतर से शक्ति के सूक्ष्म मात्रा में ही आदान-प्रदान होते हैं। हिमालय का जो केन्द्र ध्रुव हैं जहाँ मेरे गुरुदेव रहते हैं यहाँ का फैलाव बद्रीनाथ से हिमालय की दूसरी छोर तक है। इसके बीच का जो भाग है वही हिमालय का केन्द्र है और इसकी लम्बाई-चौड़ाई में समझता हूँ तीन-चार सौ मील चौड़ी और सौ-पचास मील लंबी होनी चाहिए। यही शंख के नाम से पहले प्रख्यात था। यही पुराणों में भी मिलता है कि यहाँ शिवलिंग पर गंगा का अवतरण हुआ था शिवलिंग पर्वत यहीं है, सुमेरु पर्वत वहीं है सुमेरु यज्ञ पाण्डवों ने वहीं किया था, सुमेरु लिंगम् वहीं हैं, स्वर्ग गंगा वहीं हैं। यही वास्तव में कैलाश था और यह भी प्रतिपादन किया था कि इसके समीप में एक छोटी-सी झील है जिसका नाम मान सरोवर होना चाहिए क्योंकि मानसरोवर और कैलाश के बारे में जो पौराणिक वर्णन मिलता है वह उस तिब्बत वाले कैलाश से जरा भी सम्मति नहीं खाता। तिब्बत वाला कैलाश और मानसरोवर किस कारण से मान लिया गया मैं कह नहीं सकता। लेकिन अगर सही रूप में ढूँढ़ा जाय तो ऐसे असंख्य प्रमाण मैंने अखण्ड-ज्योति में छापे हैं जिनसे यह सिद्ध किया जा सकता है कि असली कैलाश और मानसरोवर वही है जहाँ मेरे गुरुदेव निवास करते हैं।

मैं उस स्थान पर रहा, वहाँ की कितनी ही विशेषताओं को मैंने देखा उसको वर्णन करना सम्भव नहीं है। वहाँ कितने सिद्ध पुरुष रहते हैं और वहाँ के वातावरण में कितनी विशेषता और महत्ता हैं, उसका वर्णन करना सम्भव है लोग यकीन न करें। जब तक देखा नहीं जाता, तब तक गप्प भी माना जा सकता है, इसलिए उस पर विचार करना मेरे लिए मुनासिब नहीं है। उन स्थानों पर चार दिन मैं अपने गुरुदेव के पास रहा। उनको जो कुछ भी मुझसे कहना था उन्होंने कहा, जो कुछ भी संकेत करने थे किये, जो भावी कार्यक्रम के रूप में हिदायत करनी थी वह की, और जो मुझे शक्ति का एक अंश देना था वह चार दिनों में उन्होंने दिया। चार दिन की शक्ति को लेकर मैं चला आया। साल भर तक मैंने उसको पकाया, हजम किया। खाना खाने में तो थोड़ी देर लगती है, भोजन तो आदमी आधे घण्टे में ही कर लेता है, बीस मिनट में भी कर लेता है, लेकिन हजम करने में बारह घण्टे लग जाते हैं। गुरुदेव ने जो शक्ति मुझे चार दिन में दी थी, उसको हजम करने में, पचाने में, और जुगाली करने में साल भर लग गया। इस तरीके से मैं एक साल गंगोत्री और हिमालय और उत्तरकाशी रहा वहाँ जो उन्होंने तप और अनुष्ठान बताये थे वह मैं करता रहा, जहाँ-जहाँ रहा, वह ऐसे स्थान थे जिनको दिव्य कह सकते हैं। भागीरथ ने जिस शिला पर बैठ कर तप किया था, वहाँ मुझे भी तप और अनुष्ठान करने का मौका मिल गया। जहाँ परशुराम जी ने तप करके कुल्हाड़ा शंकर जी से प्राप्त किया था, उसी स्थान पर उत्तरकाशी में रहने का मुझे भी मौका मिला। इस तरीके से एक साल व्यतीत करने के बाद मैं फिर आ गया और दस साल के कार्यक्रम जो मुझे सौंपे गये थे, वह मैंने सँभाल लिये।

दस साल में युग निर्माण योजना का दूसरा अध्याय सौंपा गया। युग निर्माण योजना का कार्यालय तथा गायत्री तपोभूमि का निर्माण मिला कर जो किया वह मेरे पहले दस साल के पूर्व की कमाई थी। मेरा दूसरा कदम-दूसरा काम था युग निर्माण योजना नाम से एक केन्द्र की स्थापना जहाँ से फिर सारी गतिविधियाँ चालित की गयीं। बौद्धिक क्राँति, नैतिक क्राँति और सामाजिक क्राँति को क्रियान्वित करने का प्रबन्ध किया गया। विचारात्मक, रचनात्मक और संगठनात्मक कार्यक्रमों का ढाँचा खड़ा किया गया। व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण का नारा लगाया गया। स्वच्छ मन, स्वस्थ शरीर और सभ्य समाज का निर्माण करने की रूपरेखा बनायी गयी। इन सारे के सारे क्रिया–कलापों का दस वर्षों में विस्तार हुआ। मैं समझता हूँ कि इन तीनों कार्यक्रमों के बारे में कितना विस्तार हुआ है, इसका वर्णन करने की यहाँ आवश्यकता नहीं है। वह लोगों को दूसरी जगह से पढ़ना चाहिए और दूसरे तरीकों से मालूम करना चाहिए। इसको संक्षेप में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वह कार्य हुआ व असाधारण हुआ। साहित्य लिखा गया वैज्ञानिक व आध्यात्मिक समन्वय की रूपरेखा ठीक समय पर रखी गयी और उसका पत्रिकाओं के माध्यम से विस्तार हुआ। अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ और उसका प्रकाशन हुआ। यह सब दस वर्ष के भीतर सम्भव हुआ। एक लाख व्यक्तियों की सृजन सेना बनकर खड़ी हो गयी और वह अपने-अपने क्रिया−कलाप में लग गयी। सक्रिय कार्यकर्ता, कर्मठ कार्यकर्ता और पुरवासी मान कर अपने-अपने क्षेत्रों में अपने दिल से कमर बाँध कर खड़े हो गये और वह कार्य जो असम्भव दिखाई पड़ता था सम्भव दिखायी पड़ने लगा।

मनुष्य में देवत्व का उदय और पृथ्वी पर स्वर्ग का अवतरण किसी जमाने में ख्वाब समझा जाता था। यह माना जाता था कि ऐसे क्रिया−कलाप मनुष्यों के द्वारा संभव नहीं है। कभी भगवान चाहेगा तभी ऐसी बड़ी सफलता मिल सकती है, क्यों मिलेगी, लेकिन ऐसा मालूम होता है कि वह सारी जो कल्पनायें थीं तिलस्मी अब साकार होने जा रही हैं और साथ ही बहुत कुछ सम्भावना है, क्योंकि सामने ही आ रही हैं। लोग यकीन कर रहे हैं कि हाँ ऐसा होना संभव है। पर यह आंदोलन किसी जमाने में छोटे से आंदोलन के रूप में था और यह विश्वव्यापी भी बन सकता है। इस तरीके से 10 वर्ष मुझे वहाँ रहना पड़ा।

जब बैटरी की शक्ति खत्म हो जाती है तो उसे चार्ज करने के लिए भेजा जाता है और उसको डाइनेमो से लगा देते हैं फिर उसको दूसरी बैटरी से संबंध कर देते हैं। जब चार्ज हो जाती है तो फिर वह काम करती है फिर मुझे एक साल के लिए स्वयं बुलाया गया था। मैं गुरुदेव के पास गया, चार दिन उनके पास रहा, जैसे दस साल पहले रहा था। चार दिन उनके पास रहने के बाद में फिर मुझे कहीं दूसरी जगह भेज दिया गया और फिर मैं वहीं रहा और तप करता रहा। मैं कहाँ रहा? क्या करता रहा? वह बताने का विषय नहीं है। पहले बताने की बात थी सो मैंने लोगों को बता दिया था कि मैं गंगोत्री रहा था, और उत्तरकाशी रहा था। अब मेरे मुँह पर पर्दा डाल दिया गया है कि मैं वह न बताऊँ कि मैं कहाँ रहा और मैंने क्या किया, इतनी बात संक्षेप में है कि मैं हिमालय के ही गर्भ में रहा और वहाँ जा करके मैंने अपनी आत्म साधना की क्रियापद्धति को ही काम में लाया। इस तरीके से फिर मुझे जाना पड़ा फिर माताजी के बीमार होने पर पंद्रह दिन के लिए मैं उनके पास आया। फिर तीन दिन के लिए चला गया। इस तरीके से एक वर्ष पूरा करने के बाद फिर मुझे लोक शिक्षण का कार्य सौंप दिया गया। जबकि एक साल पहले तप करने का मुझे मौका दिया गया था। ऐसे ही इस साल भी एक वर्ष का तप करने का मौका दिया गया। इसके बाद फिर मुझे पाँच वर्षीय कार्यक्रम में लगा दिया गया है। अब की मेरी यह कार्य अवधि केवल पाँच वर्ष की है। पहली दस साल की रही, इससे पहले दस साल की थी, उससे पहले चौबीस साल की थी। इस तरीके से 44 साल की जो योजना थी, बढ़ गयी। ये पाँच वर्ष की है। भगवान जाने उसका क्या काम है? अब की बार दस वर्ष का कार्यक्रम मुझे दिया गया है। कह नहीं सकता जीवन का समय कितना रह गया हो। यह नहीं पूछा कि मुझे आगे क्या करना पड़ेगा। मैं मानता हूँ कि जो काम सौंप दिया गया है वह भी क्या कम है। उसमें क्या कमी हो सकती है। उसमें क्या करने के लिए क्या कम गुँजाइश नहीं है जो कि मैं आगे की बात सोचूँ। आगे वाली बात सोचना उनका काम है जिनको मैंने अपने आपको सौंपा हुआ है। आगे मुझे क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, यह मस्तिष्क का भार मैंने उन्हीं के ऊपर डाल दिया है। अब मुझे पाँच वर्ष का काम है। इन पाँच वर्षों में मुझे क्या करना होगा, यह कार्य मेरे लिए निर्धारित हो गया है ओर यह भी निर्धारित हो गया है कि थोड़े समय में मुझे बार-बार हिमालय जाना पड़ेगा। जिस तरीके से आदमी रात में सो जाता है और जागने पर फ्रेश हो जाता है, इसी तरीके से मैं आध्यात्मिक भोजन के लिए और कुछ शक्ति लेने के लिए और अपनी थकान मिटाने के लिए वहाँ चला जाया करूँगा और इस बीच में हर साल कुछ शक्ति ले कर आया करूँगा। जो कि पाँच साल के लिए निर्धारित कार्यक्रम के लिए मुझे सौंपी गयी है। इस तरीके से यह क्रम बराबर जारी रहेगा।

साँप से नेवले की लड़ाई होती है। नेवला बार-बार जाता है कुछ जड़ी-बूटी खा करके आता है फिर साँप से लड़ाई लड़ता है, फिर साँप काट देता है, और जहर उसके शरीर पर चढ़ जाता है। उस जहर को दूर करने के लिए फिर वह कहीं जाता है और जड़ी-बूटी खा के आता है फिर साँप से लड़ाई लड़ता है। साँप और नेवले की लड़ाई जिन लोगों ने देखी है, उन्होंने यह घटना भी देखी होगी कि नेवला भाग कर के जाता है और कुछ जड़ी-बूटी खा करके आता है। जड़ी-बूटी खाने वाले नेवले के तरीके से मुझे भी बार-बार हिमालय जाना पड़ेगा और बार-बार वहाँ से शक्ति लेकर के आना पड़ेगा, क्योंकि अब की बार जो साँप है बहुत बड़ा साँप है। पहली बार तो सीधे सादे काम थे। संगठन करना सीधा सादा काम था। किसी से लड़ाई लड़नी नहीं थी मुझे संगठन करने से लेकर साहित्य लिखने व अन्य कार्यों तक। ये सभी सुगम काम थे। कोई ऐसा मुश्किल काम नहीं था जिसमें आदमी का कोई जोखिम हो लेकिन अब की बार जो कार्य हैं बहुत ही महत्वपूर्ण और अत्यंत भयंकर अधिक शक्ति खर्च करने वाले हैं।

इस तरह जिस तरीके से मैं वहाँ से शक्ति लेकर आया था, ठीक उसी तरीके से मैं भी एक लाख मनुष्यों का इस बीच में शक्ति का सौवाँ अंश देने वाला हूँ। मैंने 24 वर्ष में जो तपश्चर्या की थी और मुझे जो अंश मिला वह बहुत बड़ा मिला, कारण मैंने अपने को पाक-साफ रखा। अपना परिष्कार किया दूसरे लोगों ने जिन्होंने निखार नहीं किया है उनको इतनी आशा नहीं करनी चाहिये कि उसका अंश मुझको मिल जायेगा, क्योंकि जिसके पास पात्र जितना बड़ा होगा उतना ही तो उसे मिलेगा चाहे बक्सा कितना ही जबरदस्त क्यों न हो। बादल की घटायें कितनी ही बड़ी क्यों न हों। पर पात्र से अधिक कैसे मिलेगा। इसलिए मैंने जिन लोगों को बुलाया है और जिन्होंने पात्रता का जितना विकास कर लिया है उतना उनको जरूर मिल जायेगा। लेकिन जिनकी पात्रता नहीं होगी उनको यह आशा नहीं करनी चाहिये। यद्यपि बुलाया है तो कुछ न कुछ लेकर ही जायेंगे। लेने के लिए जरूरी है कि शक्ति धारण करने के लिए गुँजाइश हो। धारण करने के लिए गुँजाइश न हो तब कैसे हो सकता है? प्राण प्रत्यावर्तन शिविरों में सबको तो बुलाया नहीं जायेगा। लेकिन जिन लोगों को बुलाया है उनको उनकी पात्रता के अनुरूप शक्ति का एक अंश जरूर मिलेगा और यहाँ से जाने के बाद वह ऐसा काम कर सकेंगे जिससे उनको देखकर मुझे भी संतोष हो सके और उन्हें भी संतोष हो सके और समाज को भी संतोष हो सके। इस तरीके से प्रत्येक प्रत्यावर्तन शिविर में एक बार में लगभग 20 व्यक्ति बुलाये जायेंगे। कारण यह है कि जितनी शक्ति संग्रह होगी उससे अधिक लोगों को बुला लेने पर उनको कुछ दिया नहीं जा सकेगा। छोटा-सा मीटर लगा हुआ हो और बत्तियाँ बहुत जला दी जायें तो सब बत्तियों को रोशनी नहीं मिलेगी, कुछ बुझ जायेंगी या टिमटिमायेंगी। ज्यादा बत्तियाँ जला दी जायेंगी तो मीटर खराब हो जायेगा और फ्यूज चला जाएगा। इस तरीके से सीमित व्यक्ति ही बुलाये जायेंगे। लोगों को ज्यादा अपवाद नहीं करना चाहिए। सबको एक साथ बुला सकूँ इच्छा तो है, लेकिन सम्भव नहीं है व्यवहारिक भी नहीं है। इसलिए इंतजार तो करना ही पड़ेगा प्रत्यावर्तन के लिए।

एक काम मुझे यह सौंपा गया है कि लोगों को शक्ति का एक अंश दूँ और उनको आगे बढ़ाऊँ, ऊँचा उठाऊँ। केवल विज्ञान की शिक्षा से जो बात पूरी नहीं हो सकती, उपनिषद् संग्रह से जो बात पूरी नहीं हो सकती, उस शक्ति का अंश दान देने से पूरी की जा सकती है। यही प्रत्यावर्तन है जो मुझे अगले पाँच साल तक थोड़े-थोड़े समय तक यहीं शान्तिकुंज में रहकर पूरे करने पड़ेंगे। एक कार्य मैंने आपको निवेदन किया। दूसरा कार्यक्रम मेरा यह है कि मुझे हिमालय जाते रहना पड़ेगा, अन्यथा इस बार जो शक्ति खर्च होने वाली है उसकी पूर्ति अपने आप नहीं हो पायेगी बार-बार उसको लेने ही जाना पड़ेगा मुझे। इसलिए मेरा हिमालय जाना-आना लगा ही रहेगा। तीसरा एक और कार्य यह है कि अब मुझे अपना कार्य क्षेत्र बढ़ा देना पड़ेगा। अब तक केवल हिंदू समाज अपना मुख्य कार्यक्रम रहा। भारतवर्ष तक ही गतिविधियाँ रही हैं। अब तक मैं केवल भारतवर्ष में रहा हूँ। हिंदू समाज की सभाओं और गोष्ठियों को ही संबोधित किया है। दूसरे और लोगों में मैं कहाँ गया? दूसरे विश्व में कहाँ गया? लेकिन यह वर्ग जो मुझे सौंपा गया था, जो क्षेत्र मुझे सौंपा गया था वे सीमित क्षेत्र हैं क्योंकि शक्ति मेरी सीमित थी इसलिए कार्यक्षेत्र भी सीमित ही सौंपा गया था। अब तो शक्ति को बढ़ा दिया गया है अतः कार्य क्षेत्र भी बढ़ गया है। अब मेरा कार्यक्षेत्र भारतवर्ष तक सीमित न रहकर समस्त संसार है। हिंदू समाज तक सीमित न रहकर समस्त संसार के विभिन्न धर्म तक कार्य क्षेत्र बढ़ा दिया गया है। अब धर्ममंच को ही आगे बढ़ करके अन्यान्य क्षेत्रों में भी वह कार्य करूँगा जिससे कि युग निर्माण करने की पृष्ठभूमि तैयार की जा सके। साहित्य के कितने लोग हैं। संसार में साहित्यकार की बड़ी शक्ति होती है। प्रेस भी उसमें शामिल है, पुस्तक लेखन भी शामिल है, दार्शनिक भी, चिंतक भी, कवि भी शामिल हैं। इस तरीके से जिनके हाथ में जनमानस को प्रभावित करने की प्रचण्ड शक्ति है, मुझे उनके पास भी जाना पड़ेगा और जाकर के केवल परामर्श ही नहीं देना पड़ेगा, उनको मजबूर भी करना पड़ेगा।

अंगद लंका गया था और उसने रावण की सभा में पाँव जमाया था और यह प्रमाणित किया था कि मैं सरल स्वभाव का तो हूँ और यह बात हर एक राक्षस को माननी पड़ी थी कि जिससे उन्हें लड़ाई लड़नी पड़ेगी वह कोई मामूली आदमी नहीं है, कोई बड़ा आदमी नहीं है। मैं भी अपने गुरुदेव का अंगद और संदेशवाहक के रूप में सारे विश्व में जाऊँगा और यह कहूँगा कि भगवान की प्रेरणा और इच्छा यह है कि आप लोगों को अपनी गतिविधियाँ बदल देनी चाहिए। पिछले दिनों जो भी रही हों, किसी प्रकार और स्वभाव की रही हों, सम्पत्ति कमाने की रही हों, अपने स्वार्थ की रही हों। पहले जो भी रही हों, वह रही हों, लेकिन आगे जाकर के उन गतिविधियों में फर्क करना ही चाहिए और अपना मुँह उस ओर मोड़ना चाहिए जो कि युग निर्माण के लिए भगवान की इच्छा के अनुरूप हों। आगे मैं कलाकारों के पास जाऊँगा, क्योंकि कला मनुष्य के हृदय को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती रही है और अभी भी कर रही है। सिनेमा कितना काम कर रहा है। सिनेमा संसार के एक चौथाई जनता को प्रभावित कर रहा है। एक चौथाई जनता को इच्छानुसार ढाल रहा है। बुरा या भला अगर ये बुरी इच्छा में ढालने वाली रीति बदल दी जाय और अच्छी दिशा में ढालने वाला प्रयास किया जाय तो आप समझ सकते हैं, जनता के मस्तिष्क को बदलने में, ढालने में कितना बड़ा काम हो सकता है। गायन को बदल दिया जाय, संगीत को बदल दिया जाय, नारी के चित्र को बदल दिया जाय, कला केन्द्रों में जो कुछ भी चीजें होती हैं। अगर कलाकार और कला के संचालक उसको बदल दें तो युग निर्माण का वह कार्य पूरा हो सकता है जिसको हमने पिछले दिनों धर्ममंच के माध्यम से भारतवर्ष में सम्पन्न किया है। कार्य वह लोग भी कर सकते हैं, साहित्यकार भी कर सकते हैं, कलाकार भी कर सकते हैं।

एक और बात रह जाती है धर्म गुरुओं के संबंध में। धर्म गुरुओं की शक्ति कम है क्या? धर्म गुरुओं की बड़ी शक्ति है। अभी भी आपने देखा न, थोड़े दिन पहले सर आगाखाँ को तोला गया था। कितने करोड़ रुपये का सोना था। अभी भी हो रहा है, कल-परसों ही दिल्ली का समाचार है कि एक स्वामी जी को छः लाख रुपये के नोटों से तोला गया है। उसके पहले किसी को सोने से तोला गया, किसी को चाँदी से तोला गया। तोलने की प्रथा संत महात्माओं में भी चली आ रही है नेताओं का तो कहना ही क्या? किसी समय केवल उनकी सम्पत्ति देखी जाय कि उनका प्रभाव कितना है तो प्रत्येक संत महात्मा का, शंकराचार्य का, इसका-उसका प्रभाव भी हजा�


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