क्या न इतनी कृपा, अब करेंगे प्रभो! आप के हाथ के, उपकरण बन सकें।
शेष जी भी बचे, नाथ! कण और क्षण, लोक सेवाएँ वे समर्पण बन सकें॥1॥
मोह में, लोभ में, अभी तक खपे, व्यक्ति, परिवार में ही बँधे रह गये।
जिन्दगी घिस गई, बस इन्हीं के लिये, स्वार्थ में ही, अभी तक सधे रह गये।
किन्तु होकर द्रवित आप करुणा करें, तो क्षणिक प्राण, तन की शरण बन सकें।
क्या न इतनी कृपा, अब करेंगे प्रभो! आप के हाथ के, उपकरण बन सकें॥ 2॥
यह सही है कि तन, पात्र तो है नहीं, भोग में, वासना में घिसी अस्थियाँ।
और यही सही है कि, समिधा कहाँ, बन सकें, शेष साँसों की आहुतियाँ।
आप के हाथ, यदि साध ले प्यार से, तो सुनिश्चित है फिर, ये हवन बन सकें।
क्या इतनी कृपा, अब करेंगे प्रभो! आप के हाथ के, उपकरण बन सकें॥3॥
लोकमंगल, महायज्ञ तो चल रहा, बस उसी में हमें, सम्मिलित कीजिये।
आप ब्रह्मा बने है, महा यज्ञ के, नाथ! मन, प्राण, पावन बना दीजिये।
क्या न पावन बने, यह अपावन, पतित, आप हो यदि द्रवित, आचमन बन सके।
क्या न इतनी कृपा, अब करेंगे प्रभो! आपके हाथ के, उपकरण बन सके॥4॥
आप स्रष्टा बने है, नये विश्व के, स्वर्ग का इस धरा पर, सूजन कर रहे।
सुप्त-देवत्व को, मानवों में जगा, आप उज्ज्वल-भविष्य आगमन कर रहे।
आपके शिल्प की ही, कृपा दृष्टि से, क्यों न अनगढ़, सुगढ़-आचरण बन सकें।
क्या न इतनी कृपा, अब करेंगे प्रभो! आपके हाथ के, उपकरण बन सके॥5॥
-मंगल विजय