कर्ज (Kahani)

August 1995

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अदालत में रोते हुए व्यक्ति को देखकर एक सहृदय ने कारण जानना चाहा, तो पता चला कि उसने बहुत पहले अपनी पुत्री के विवाह के लिए कर्ज लिया था कर्ज समय पर चुका नहीं पाया, तो ब्याज पर ब्याज बढ़ता गया और अब तीन सौ रुपये हो गये। ऐसे धनी जो दिया हुआ कर्ज माफ कर दें, बहुत कम होते है। वह तो दुगुने का कागज लिखवा कर हर ढंग से वसूल करने का प्रयास करते है। वह कर्जदार तो अवधि बढ़ाने की फरियाद करने आया था। पर अदालत में भी कोई सुनवाई न हुई, क्योंकि मामला बहुत पुराना था। वह रोते हुये घर चला गया। उसकी पत्नी ने बताया कि डिग्री करने वाले कई व्यक्ति आये थे और दरवाजा घेरे काफी देर खड़े रहे। अनत में किसी दयालु व्यक्ति ने कर्ज चुका कर उन्हें विदा किया। अब समझते देर न लगी कि जो व्यक्ति अदालत में मुझसे बार कर रहा था, शायद यहाँ आकर उसने मेरा दुख हल्का करने के लिए रुपये चुका दिये हों।

वह व्यक्ति उनका पता लगाते हुए घर पहुँचा और बड़े ही विनम्र शब्दों में कृतज्ञता व्यक्त करने लगा। उन्होंने कहा-भाई रुपये चुकाये तो मैंने ही है पर कहकर किसी से मत। क्योंकि थोड़ा पैसा जेब में होने के कारण यह तो मेरा कर्तव्य ही था, जिसे मैंने पूरा किया। “ यह व्यक्ति थे ईश्वरचंद्र विद्या सागर, जो स्वयं गरीबी में पले थे; किन्तु अन्त तक नहीं भूले नहीं। माँ की सिखावन उन्हें हमेशा याद रही- “ समर्थ होने के नाते अन्य गरीबों -पिछड़ों के दुख कष्ट मिटाने की जिम्मेदारी पूरी लगन से निभाना”। उन्होंने कोई भी ऐसा अवसर हाथ से जाने न दिया।

जिनका अन्तःकरण सदाशयता से लबालब भरा होता है, इनको विश्व के समस्त नागरिक अपने ही परिजन से प्रतीत होते है। जो सेवा-उपकार भाव वे अपने सगे-सम्बन्धियों के प्रति रखते हैं, वहीं इनका विश्व रूपी इस विराट् कुटुम्ब के प्रति भी होता है। इसे वे अपना कर्तव्य मानते है, अहसान नहीं।

एक अधेड़ दम्पत्ति रात को आँधी -तूफान और मूसलाधार वर्षा के बीच फिलाडेल्फिया के एक होटल में पहुँचे और ठहरने के लिये स्थान माँगा। होटल पूरा भरा हुआ था। कहीं तिल रखने को जगह नहीं थी। मालिक ने अपनी असमर्थता प्रकट करके छुट्टी ली। घोर शीत और वर्ष की इस भयानक रात में दम्पत्ति एक कोने में सिकुड़े खड़े थे। रात कहाँ कटे, कुछ सूझ नहीं पड़ रहा था। होटल के एक कर्मचारी ने बिस्तर में पड़े-पड़े यह दृश्य देखा। वह बाहर निकला ओर दम्पत्ति को अपनी छोटी-सी कोठरी में टिका दिया। स्वयं किसी प्रकार इधर-उधर खड़े-टहलता रात काटता रहा। सवेरा हुआ। दम्पत्ति उस कर्मचारी की उदार सज्जनता के लिये धन्यवाद देते हुए चले गये। इस कृपा का पुरस्कार देने का उनने प्रयत्न किया, पर उस कर्मचारी ने इसे मनुष्यता का फर्ज बताया और उसका मूल्य लेने से इनकार कर दिया। कुछ ही दिन बाद उस कर्मचारी को न्यूयार्क से बुलावा आया। चिट्ठी के साथ हवाई जहाज का टिकट था। कर्मचारी पहुँचा, हवाई अड्डे पर स्वागत के लिए वहीं दम्पत्ति खड़े थे, जिन्हें उसने अपनी कोठरी में ठहराया था। वे थे न्यूयार्क के करोड़पति विलियम वालडोर्फ।

उन्होंने अपने उस रात के मेजबान का स्वागत करते हुए कहा कि -”हमने एक नया होटल बनाया है, उसके मैनेजर के पद तु आपको सम्मानित करना चाहते है।” उस व्यक्ति के संकोच को देखते हुए वे बोले, ‘इसे अन्यथा न लें। यह उस रात की मेजबान का पुरस्कार नहीं है। उसे तो हम राशि में कभी चुका ही नहीं सकते। यह कर्तव्य निष्ठा एवं उदार आत्मीयता का एक सम्मान भर है। आप जैसे सज्जन, जिनके लिए दूसरों का कष्ट भी अपना ही हैं, अतिथि सेवा जैसे कार्य का सँभालने के हकदार है। हमें तो अपने कर्तव्य की पूर्ति भर की है।’’


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