क्या मृत व्यक्ति में प्राण संचार संभव है?

August 1995

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लेनिन ग्राह के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. एल. लोजिन लोजिनस्को, ने सन् 1964 में एक प्रयोग किया। उन्होंने मक्के में लगने वाले कीटकों को शून्य से चार डिग्री नीचे हीलियम द्रव में जमा दिया। साढ़े छः घण्टे इसी दशा में रखने के बाद उन्होंने ताप देकर उनमें क्रमिक रूप से चेतना लाने का प्रयत्न किया 20 में से 13 कीटक फिर से जीवित हो गये; किन्तु शेष 6 में से किसी की चेतना लाना सम्भव न हो सका। इससे एक सम्भव न हो सका। इससे एक सम्भावना विज्ञान जगत में यह जगी कि शरीर कोशिकाओं को सुरक्षित रख कर लम्बे समय तक उपरान्त भी उसमें चेतना का संचार सम्भव है।

जब यह प्रयोग चल रहा था, उन्हीं दिनों सोवियत रूस में एक घटना घट गई। 23 वर्षीय युवा कृषक ब्लादिमीर खारिन एक दिन अपने खेत पर ट्रेक्टर चला रहा था कि अचानक जोर का बर्फीला तूफान आ गया। ब्लादिमीर उसकी चपेट में आ गया। वह छः घंटे बर्फ में दबा पड़ा रहा। जब उसे ढूँढ़ा गया, तब तक उसका शरीर बर्फ की तरह ठंडा पड़ चुका था। उसे अस्पताल ले जाया गया, जहाँ डॉक्टरों ने उसको मृत घोषित कर दिया।

नेगोवस्की एक प्रतिष्ठित स्थानीय वैज्ञानिक थे। उनको जब इस घटना की जानकारी मिली, तो वे वहाँ पहुँचे तथ्यों का पता लगाया और एक प्रयोग करने का निश्चय किया। उन्होंने मृतक के पाँवों को गर्म पानी में डाला और उसे एड्रिनेलीन का इंजेक्शन देकर कृत्रिम साँस देना प्रारम्भ किया। शरीर में बाहर से थोड़ा रक्त भी पहुँचाया गया और समस्त काया की सेकाई की गई। उष्णता का संचार होते ही धीरे-धीरे साँसें चलने लगी। थोड़ी देर पश्चात् वह पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति की तरह चलने फिरने लगा।

इस घटना के विश्लेषण से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि मृत्यु है क्या? साधारण तया हृदय ओर साँस गति रुक जाने को मृत्यु कहते है, किन्तु अब वैज्ञानिक यह बात नहीं मानते। आपरेशन करते समय हृदय गति रुक जाती है, डॉक्टर मालिश करके उसे फिर प्रारम्भ कर लेते है। इन दिनों हृदय बदलने के अनेक प्रयोग हो रहे है। इस क्रिया में दूसरा हृदय प्रत्यारोप करने से पूर्व पहले को निकालना होता है। इस प्रकार आपरेशन सफल बनता और व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है।

लोगों की यह कल्पना मनुष्य को ऑक्सीजन भोजन या पानी नहीं मिले, तो उसकी मृत्यु हो जायेगी-यह मान्यता भी निराधार सिद्ध हो चुकी है। शरीर को गर्म रखने के लिये यह वस्तुएँ निमित्त मात्र है। यदि हवा, पानी और भोजन न भी मिले, तो भी मनुष्य जीवित रह सकता है। समाधि लगाने वाले योगी इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है। जनसामान्य के लिए योगियों का यह प्रमाण यदि अग्राह्य स्तर का हो, तो फिर अंतरिक्ष विज्ञान की साक्षी उनके समक्ष प्रस्तुत है।

अन्तरिक्ष अनुसंधान से जब तक तो तथ्य उपलब्ध हुए है, उनके अनुसार यदि अपने सौर मंडल के किसी दूरतम ग्रह की कोई यात्रा करना चाहे, तो शायद इसमें उसका पूरा जीवन ही खप जाय और यदि वहाँ पहुँच कर वह वापिस लौटना चाहे, तो कदाचित् उसका मृत शरीर ही धरती पर आयेगा। कोई भी व्यक्ति अपना सम्पूर्ण जीवन इस प्रकार बर्बाद करना नहीं चाहेगा। इस स्थिति से निपटने के लिए वैज्ञानिकों ने कई विकल्प ढूँढ़े है। एक के अनुसार यदि मनुष्य को सुषुप्तावस्था में लाया जा सकें, तो बिना कुछ खाये-पिये और साँस लिये भी वह लम्बी अवधि अवधि तक जीवित बना रह सकता है। कि मस्तिष्क को यदि अर्धचेतनावस्था में योगियों की तरह लम्बे समय तक रखा जा सके, तो लम्बी आयु की सकना हर किसी के लिए संभव है। वैज्ञानिकों के इस निष्कर्ष से पता चलता है कि इसके समान सुषुप्तिकरण भी एक अवस्था है। जीवन और मृत्यु के बीच की इस अवस्था की व्यापक खोज की जा रही है। आशा है निकट भविष्य में ही जीवन और मृत्यु की तरह इसे भी जीवन के एक सामान्य स्तर के रूप में स्वीकार लिया जायेगा।

पिछली दिनों इस मध्यवर्ती दशा को लेकर वैज्ञानिकों के बीच विवाद छिड़ा रहा। इनमें से अधिकाँश का मत था कि बहुत लम्बे समय तक बिना भोजन-वायु के जिन्दा रह सकना सम्भव नहीं, किन्तु कुछ वर्ष पूर्व वैज्ञानिकों को कुछ ऐसे प्रमाण हाथ लगे है, जिनसे उनमें एक बार फिर आशा का संचार हुआ है। सोवियत विज्ञानवेत्ता प्रो. पी. कोप्तरेव ने ‘डाफनिया ‘ नामक जल कीट और शैवाल को उन क्षेत्रों से ढूँढ़ निकला है, जहाँ स्थायी रूप से बर्फ जमी रहती है। हिसाब लगाया गया, तो पता चला इनमें से कुछ कीटक 25 हजार वर्ष प्राचीन थे। प्रो. कोप्तरेव ने उनमें से अधिकाँश को गर्मी देकर फिर से जिन्दा कर लिया। इतनी लम्बी अवधि तक निष्क्रिय अवधि में पड़ा रहना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि चेतना तब भी यथावत् बनी रहती है, केवल यह सुषुप्त की दशा में चली जाती है। यदि इस अन्तराल में शरीर कोशों को क्षति से बचाया जा सकें, तो गर्मी और आक्सीजन देकर उन्हें पुनर्जीवित कर सकना शक्य हैं

अब वैज्ञानिक इस बात का अध्ययन कर रह है। कि रासायनिक तत्वों का कार्बनिक पदार्थों से संश्लेषण किस प्रकार हो सकता है? इस सम्बन्ध में वे ‘क्लोरेला’ नामक पौधे लगाने की कोशिश कर रहे हैं और इस बात का पता लगाने की कोशिश कर रहे है कि क्या इनकी नर्सरी उगा कर अन्तरिक्ष यानों से संश्लेषण की क्रिया पूरी की जा सकती है क्या? यदि ऐसा हुआ, तो इससे सुषुप्ति की दशा में पड़ा शरीर अपने शारीरिक उच्छिष्ट से ही जीवन उसी प्रकार बनाये रख सकता है, जैसे मनुष्यों और पशुओं द्वारा छोड़ी हुई साँस और मलमूत्र से पौधे जीवनी शक्ति प्राप्त करते है। यह प्रयोग सफल हुआ, तो मानवी शरीर को लम्बे काल तक मूर्च्छित स्थिति में रखने के उपाय उसे इच्छानुसार जिलाये जा सकना सम्भव हो सकेगा।

इन प्रमाणों और प्रयोगों के आधार पर वैज्ञानिकों को मृत्यु सम्बन्धी परिभाषा के अनुसार उन्होंने यह निश्चित किया कि जब तक मस्तिष्क कोशिकाएँ सक्रिय बनी रहती है, तब तक बाह्य रूप से मृत्यु जैसे लक्षण उपस्थिति होने पर भी व्यक्ति की मृत्यु न मानी जाय। जब मस्तिष्क कोशिकाएँ पूर्ण रूप से कार्य करना बन्द कर दें, तभी व्यक्ति की वास्तविक मौत की स्वीकारोक्ति हो। इस तथ्य की पुष्टि भी उन घटनाओं द्वारा होती रहती है, जिनमें हृदय और श्वसन की क्रियाएँ पूर्णरूपेण बन्द हो चुकी हों। इतने पर कृत्रिम विधि द्वारा इन्हें सक्रिय कर व्यक्ति को पुनर्जीवित करने में चिकित्सा विज्ञानियों को सफलता मिलती रहती है। इससे यह निर्विवाद साबित होता है कि चेतना का सम्बन्ध शरीर से नहीं, मानसिक स्थितियों से है। यह शक्तियाँ अर्धमूर्छित स्थिति में पड़ी हुई हो और बाह्य लक्षण मौत की साक्षी उपस्थित कर रहे हों, तो भी व्यक्ति में जीवन की संभावना बनी रहती है। यदि अच्छे साधन और उपयुक्त उपचार इस समय व्यक्ति की उपलब्ध हो सकें, तो उसके पुनर्जीवन की शत-प्रतिशत गुँजाइश बनी रहती है।

मृत्यु कैसे होती है? इसका आसान-सा जवाब यह है कि हृदय गति रुकने से मस्तिष्क को शुद्ध रक्त मिलना बन्द हो जाता है। इसी क्रिया द्वारा मस्तिष्क को शक्ति मिलती है। किन्तु देखा गया है कि रक्त न मिलने पर भी वह छः मिनट तक आपातकालीन सहायताओं की अध्ययन करके मस्तिष्क का सीधा संबंध कार्बनिक पदार्थों के संश्लेषण से जोड़ने के प्रयत्न में है। यदि ऐसा कोई उपाय निकल आया, तो योगियों की समाधी के समान वैज्ञानिक भी मनुष्य का अर्ध जीवित (सुषुप्ति) अवस्था में सैकड़ों वर्ष तक बनाये रख सकते है।

विज्ञान के लिए जो सम्भावना है, वही योगियों के लिये स्वेच्छया हैं देखना यह है कि इस सम्भावनाओं को विज्ञानवेत्ता किस हद तक साकार कर पाते है। यदि ऐसा सम्भव हुआ, तो यह चेतना विज्ञान के क्षेत्र में पदार्थ विज्ञान की बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। अध्यात्म जगत में तो ऐसे अनेकों उदाहरण मिलते है, जिसमें महीनों और वर्षों तक जीवात्मा को शरीर से बाहर रख कर स्थूल देह को निर्जीव जैसी स्थिति में सुरक्षित रखा गया हो और फिर प्रयोजन पूरा हो जाने के उपरान्त चेतना वापिस देह में लौट लायी गई हो। ऐसा एक प्रसंग तो आदि शंकराचार्य का है, जिसमें उन्हें शास्त्रार्थ सम्बन्धी सवाल का जवाब ढूँढ़ने के लिए अपनी देह अस्थायी रूप से त्याग कर मृत राजा के शरीर में प्रवेश करना पड़ा। प्रश्न का उत्तर मिल जाने के बाद वे उधार की काया को छोड़कर पुनः अपनी देह में लौट आये।

इन प्रसंगों से इस दिशा में विज्ञान के प्रयास की सार्थकता समझी जा सकती है। वह यदि इस बात का पता लगा सके कि परकाया प्रवेश की क्षमता रखने वालों में अपना शरीर त्याग कर दूसरे के शरीर में प्रवेश करने और वाँछित समय तक उसका उपभोग करने के पश्चात् पुनः आपने देह में लौटने जितने मध्यान्तर तक काया अनायास कैसे सुरक्षित बनी रहती है, तो शरीर शास्त्रियों को इस प्रयास में सफलता की शत-प्रतिशत गारण्टी मिल जायेगी। विज्ञान के स्तर पर पुनर्जीवित तभी सम्भव है, जब मस्तिष्क की आधी चेतना बनी रहे अथवा एक-दो कोशिका भी यदि जीवित रही, तो भी कई बार पुनः जीवित शक्य बनते देखा गया है; पर विज्ञान के लिए यह अत्यन्त जटिल कार्य होगा कि शरीर को अर्धचेतना की स्थिति में कैसे रखा जाय?

यह पदार्थ स्तर के प्रयास है। अध्यात्म विज्ञान में चेतना स्तर पर प्रयोग सम्पादित होते है। पदार्थ विज्ञानी यह जान सकें कि मृत्यु के उपरान्त चेतना को शरीर छोड़ने पर क्यों विवश होना पड़ता है, तो कदाचित् इस सम्बन्ध में उन्हें कोई महत्वपूर्ण सूत्र हाथ लग जाय। ऐसे किसी सूत्र के अभाव में सिर्फ पदार्थ गत परीक्षणों से कोई बहुत बड़ी सफलता मिल सकेगी, ऐसी आशा नहीं ही करनी चाहिए। विज्ञान की अब तक की खोजें चेतना के शारीरिक सम्बन्धों तक ही सीमित रही है। उसके आगे की लक्ष्य पूर्ति अब आध्यात्मिक सिद्धान्तों द्वारा ही सम्भव है। हम उन सिद्धान्तों को जीवन में लागू करें, तो सम्भव है कि चेतना हीन स्थिति की अनुभूति कर सके। यदि ऐसा हुआ तो फिर विज्ञान की वह गवेषणा सम्पूर्ण हो जायेगी, जिसके लिए अब तक वह पदार्थपरक परीक्षणों में उलझा रह कर समय और सम्पदा बर्बाद करता रहा।


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