आत्मविजेता ही विश्वविजेता

August 1995

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मानवी व्यक्तित्व का निर्माण मनुष्य की अपनी कलाकारिता, सूझबूझ, एकाग्रता और ऐसे पराक्रम का प्रतिफल है जो संसार के अन्यान्य उपार्जनों की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण एवं कहीं अधिक प्रयत्नसाध्य है। उसमें संकल्पशक्ति, साहसिकता और दूरदर्शिता का परिचय देना पड़ता है। जनसाधारण द्वारा अपनायी गयी रीति-नीति से ठीक उलटी दिशा में चलना उस मछली के पराक्रम जैसा है जो प्रचण्ड प्रवाह को चीरकर प्रवाह के विपरीत तैरती चलती है। जन सामान्य को तो किसी भी कीमत पर सम्पन्नता और वाहवाही चाहिए। किंतु इसके विपरीत आत्म निर्माताओं को जहाँ “सादा जीवन उच्च विचार” की नीति अपनाकर स्वल्प संतोषी, अपरिग्रही बनना पड़ता है, वहाँ साथियों के उपहास, असहयोग ही नहीं, विरोध का भी सामना करना पड़ता है।

जिस किसी ने भी इस आत्मनिर्माण के मोर्चे को फतह कर लिया, वह सस्ती तारीफ से तो वंचित हो सकता है, पर लोक श्रद्धा उसके चरणों पर अपनी पुष्पाञ्जलि अनन्त काल तक चढ़ाती रहती हैं सघन आत्म संतोष, अनुकरणीय आदर्श परिपालन तथा अनुगामियों के लिए पद चिन्ह छोड़े जाने वाली गौरवगरिमा मात्र इसी क्षेत्र के विजेताओं को हस्तगत होने वाली विभूतियाँ है। महानता चिंतन, चरित्र और प्रयास में आदर्शवादिता घुली रहने पर ही उपलब्ध होती है। आत्म विजेता को विश्व विजेता की उपमा अकारण ही नहीं दी गयी है। दूसरों को उबारने-उछालने दिशा देने और कुछ से कुछ ढाल देने की क्षमता मात्र इन्हीं लोगों में होती है। सेवा

आत्मनिर्माण -व्यक्तित्व परिष्कार कर लेने वाले व्यक्ति एक दूसरा कदम और उठाते है-वह है परिष्कृत व्यक्तित्व का सत्प्रवृत्ति संवर्धन में नियोजन परमार्थ सँजोना और पुण्य कमाना। महामानवों में से प्रत्येक को लोक मंगल में लगना पड़ा है। शाश्वत सुख-संतोष रूपी सौभाग्य मात्र में बदा है, जिनने स्रष्टा के विश्व उद्यान को सुरम्य समुन्नत बनाने के लिए अपनी क्षमता को भावविभोर मनःस्थिति के साथ नियोजित किया है। ऐसे लोगों पर ही सतत् दैवी अनुग्रह सहज ही बरसता है। हम सब भी अपना इष्ट कुछ ऐसा ही चुनें।


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