एक साधना, एक योगाभ्यास

August 1995

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“तुम्हारा साहस प्रशंसनीय है पुत्री! फिर भी मुझे सन्देह है कि तुम यहाँ टिक पाओगी।” जागरूकता के नगर सेठ अंबपाली ने चुहिया को स्नेह वत्सल दृष्टि से निहारते हुए कहा। उनका स्वभाव जितना मृदुल और सौम्य था। उनकी भार्या बिन्दु मति उतनी की कर्कश और कुटिल थी। कोई भी परिचारिका उनकी गृह सेवा में आज तक एक महीने से अधिक न टिक पायी थी। नगर के सेठ निराश हो चुके थे। और उन्होंने निश्चय कर लिया था कि विन्दुमति को कितने ही कष्ट क्यों न उठाने पड़ें अब और किसी को परिचारिका नियुक्त नहीं करेंगे।

फिर भी एक दिन उनके एक सेवक ने एक निर्धन कन्या को उनके सामने ला खड़ा किया। चौलिया नाम की इस कन्या के माता-पिता स्वर्ग वासी हो चुके थे। आश्रय की खोज में भटक रही इस बालिका को देखते ही उनकी करुणा छलक आयी। उन्होंने उसके सिर पर प्रेम पूर्ण हाथ फेरा और कहा-बेटी! सेविका तो क्या तुम मेरी पुत्री के समान इस घर में रह सकती हो। किन्तु दैवयोग से गृह स्वामिनी का स्वभाव बहुत तीखा और कर्कश है। उसे सहन करना ............अपना वाक्य अधूरा छोड़कर नगर सेठ अनंगपाल उसकी ओर देखने लगे।

आपने मुझे पुत्री कहा-आर्य आपकी यह शालीनता और सज्जनता इतनी बड़ी है कि उसके सम्मुख कोटि कर्कशताएँ भुलाई जा सकती है। यह कहते हुए चौलिया के चेहरे पर एक अद्भुत स्थिरता और शान्ति थी। वह कह रही थी - “सेवा का सच्चा अधिकार भी तो उन्हें ही है जो ऊबे उत्तेजित और संसार से खीझे व निराश जैसे हैं। माताजी के स्वभाव की चिन्ता न न करें। मुझे सेवा का सौभाग्य प्रदान करें।”

वह अब इस घर की परिचारिका बन गयी। घर की एक-एक वस्तु की व्यवस्थित किया उसने। गन्दी-भद्दी-टूटी-काली-कलूटी-बेढंगी वस्तुओं को साफ-सुथरा ठीक किया, सजाया उसने। प्रातः चार बजे जब दूसरे लोग सो रहे होते वह जागती और सायंकाल सबको सुला कर रात गए सोती। एक क्षण भी उसने निरर्थक नहीं खोया, किन्तु बदले में मिला क्या? विनदुमती की फटकार अपमान और मार।

एकान्त पाकर एक दिन अनंगपाल ने उससे कहा-” बेटी! तू मुझसे निर्वाह साधन लेकर कहीं सानन्द रह। इस नारकीय यंत्रणा में क्यों प्राण दे रही है।” चौलिया ने उत्तर दिया-तात! यदि मैंने माँ विन्दुमती की कोख से जन्म लिया होता तो क्या आप मुझे यों हटाते।। मुझसे भूल होती होगी तभी तो माँ जी डाँटती और मारती है, इसमें बुरा मानने की क्या बात!” अनंगपाल चुप हो गए।

उस रात विन्दुमती को एकाएक ज्वर हो गया। चौलिया उनकी देख-भाल के लिए नियुक्त की गई। एक दिन-दो दिन और क्रमशः कई दिन बीत गए, ज्वर सन्निपात में परिवर्तित हो गया। चिकित्सकों ने ज्यों-ज्यों चिकित्सा की स्थिति त्यों-त्यों बिगड़ती गयी। इस बीच घर के सब लोगों ने अपनी दैनिक क्रियाएँ यथावत् निबटाए। किन्तु चौलिया को किसी ने न स्नान करते देखा न शयन करते। अपनी सगी माँ की कोई क्या सेवा करेगा, चौलिया ने जैसी सेवा विन्दुमती की की। लेकिन दैवयोग भला किसके टाले टलता है। एक रात विन्दुमती की स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ उसने आँखें खोली-सामने चौलिया खड़ी थी। अनंग को बुलाया बिन्दु की आँखें छलक पड़ी, कुछ कहना चाहा पर निकले कुल दो शब्द -”बेटी चौलिया ......और उसके प्राण पखेरू उड़ गए। विन्दुमती का देहावसान हो गया।

इधर अर्थी जा रही थी श्मशान को उधर चौलिया किसी नए आश्रय की खोज में। अनंगपाल ने समझाया-बेटी! यह घर तेरा घर है तू कहाँ जा रही हैं? तो चौलिया बोली- “माँ थी जब तक, तब उसकी सेवा के लिए मेरी आवश्यकता थी और मुझे भी अपनी सहनशीलता का अभ्यास करने के लिए उनकी आवश्यकता थी। अब वे नहीं रही तो मुझे अन्यत्र वैसी ही परिस्थिति ढूँढ़ने के लिए जाना चाहिए। जहाँ मेरा रहना सार्थक हो सके।”

अनंगपाल देखते ही रह गए और चौलिया वैसी ही स्थिति वाला कोई और दूसरा स्थान ढूँढ़ने के लिए आगे बढ़ गई।


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