महाप्रभु की महाकृपा

August 1995

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“यह कैसे हो सकता है। हम कोई रईस तो है नहीं जो तुम्हें किसी गाड़ी पर बैठा लेंगे या किसी टट्टू पर चढ़ा देंगे।” बहुत बार मनुष्य जो नहीं करना चाहता वह भी उसे करना पड़ता है और जो करना चाहता है। उसे भी परिस्थिति नहीं करने देती। “तुम चल तो सकते नहीं हो और कोई अपने गाँव का रास्ता है जो घिसटते हुए चले जाएँगे।

माताजी के हाथ पैरों पर बँधी पट्टियों पर मक्खियाँ भिनभिना रही थी। उसके गलित कुष्ठ के घावों पर पीव निकल रही थी। उसकी ओर देखने में मिचली आती थी। कमर के चारों ओर मोटा टाट लपेटे रहता है वह। चल पाता नहीं, बैठें-बैठे ही किसी प्रकार घिसटते रहता है।

द्वार से बाहर हो रुक गया था। भीतर आता तो पीटा जाता। कोढ़ी को कौन अपने द्वार पर चढ़ने देता है। घर वाले तो आने नहीं देते द्वार पर। गाँव से बाहर एक झोपड़ी डाल दी है लड़कों ने। वहीं पड़ा रहता है। उसके घड़े में एक बार पानी भर जाता है लल्लो और उसे दोनों समय बड़ी लड़की कुछ रूखी रोटियाँ दे जाते है। उसके एल्युमिनियम के बर्तन कभी मले नहीं जाते। कौन मले उन्हें। वहीं पानी डालकर गिरा देता है किसी प्रकार।

अपने गन्दे बिछौने पर टूटी खाट पर पड़े-पड़े वह आम और कटहल की रखवाली तो क्या करता है। लड़कों को गाली अवश्य देता है। शरारती लड़के उसकी गाली पर ताली बजाते है चिढ़ाते है और फल तोड़कर भाग जाते है। इन्हीं लड़कों से तो वह गाँव भर का समाचार पाता है। लड़कों से एक-एक घर की छोटी-मोटी बातों की जानकारी हासिल करने में पता नहीं कौन-सा रस आता है उसे।

एक दिन बच्चों ने बताया ‘गाँव के बड़े ठाकुर प्रयाग जा रहे है। उनके साथ कल्लन, घुरहू, पाँडे भी जायेंगे।’ उसने सोचा ‘ वही क्यों पड़ा रहे यहाँ। माँगता खाता चला जाएगा। यहाँ इस झोपड़ी में सड़ने से तो गंगा मैया के किनारे पड़ा रहना कहीं अच्छा है। वहाँ हजारों यात्री आते होंगे। इस कोढ़ी पर दया करके वे कुछ न कुछ दे ही देंगे। पेट की चिन्ता नहीं रहेगी। यही कौन हलुआ पूड़ी उड़ाता है। पिछले जनम में पता नहीं कौन-सा पाप किया था, इस जन्म में भोग रहा है। दान-पुण्य या कोई व्रत तो कर नहीं सकता। अब यदि तीर्थराज में गंगा किनारे पड़ा मर जाय तो अगला जन्म सुधर जाय।

‘ठाकुर दादा।’ अन्ततः उसने कमर में किसी प्रकार टाट लपेटा और घिसटते हुआ अपनी झोपड़ी से चल पड़ा गाँव की ओर। लड़कों ने देखा तो घेर लिया दूर से उनके लिए कुतूहल हो गया। दूसरों ने भी पूछा आश्चर्य से। वह कभी गाँव में आया तो नहीं था।

चन्द्रशेखर सिंह बड़े दयालु है। दीन-दुखियों पर उनकी सदा कृपा रहती है। एक-दो भिखमंगे राज ही शाम को उनके दरवाजे पर टक्कर ठोंकते हैं। साधु महात्माओं में बड़ी भक्ति है उनकी। हर पूर्णमासी को सत्यनारायण की कथा सुनते हैं। भगवान ने दिया है और एक ही लड़का है। वृद्धावस्था में तीर्थ करने का निश्चय उन्होंने ठीक ही किया था।

माताजी की पुकार सुनते ही तने ठाकुर उठकर बाहर आ खड़े हुए उनका अनुमान था कि उसे किसी ने सताया होगा या लड़के ठीक प्रकार भोजन न देते होंगे उनके यहाँ गाँव के उत्पीड़ित प्रायः अपना कष्ट निवेदन करने आते है। सरपंच जो है। वे गाँव के। उन्हें आश्चर्य हुआ जब अपने टूटे हाथ से मक्खियाँ उड़ाते हुए पृथ्वी पर सिर टेककर गिड़गिड़ाते हुए कोढ़ी ने प्रयाग जाने की इच्छा प्रकट की।

“भोजन की तो कोई बात नहीं।” ठाकुर का हृदय उसके रोने पर द्रवित हो गया था, लेकिन वे समझते थे कि ऐसा सम्भव कैसे हो।’ मैं कैसे साथियों को विवश करूँ कि तुम्हारे साथ कछुए की चाल चले और हम इसे मान भी ले तो भी तुम क्या इतनी दूर घिसट सकोगे। हम तुम्हारे लिए यही गंगाजल ले आयेंगे। प्रेमपूर्वक समझाकर ही अस्वीकार किया उन्होंने।

इस अस्वीकार से उसे बड़ा दुख हुआ उस दिन। जी में तो आया कि वह तीर्थ राज के लिए चल दे। जो जी में आवे वह सब काश मानव के पाता। कुटिया तक लौटते-लौटते ही हाँफ गया। आज वह कुष्ठ होने के पश्चात् पहली बार उतनी दूर तक घिसट कर गया था। ठाकुर ने ले जाना स्वीकार भी कर लिया होता, तो क्या वह जा पाता। ओह, उसकी जिन्दगी यह भी कोई जीना है। कुछ सोचता रहा रात भर और सबेरे से उसने राम-राम की रट लगा दी। जोर-जोर से चिल्ला रहा था वह।

“राम राम राम राम।” चैतन्य महाप्रभु की मण्डली ने देख लिया कि उस फूस की कुटिया से ही निरन्तर ध्वनि आ रही है। दूर से ध्वनि सुनाई पड़ रही थी। वे लोग चार-पाँच मील चल चुके थे और आवश्यकता थी कहीं आसन जमाने की। सूर्य मस्तक पर आ चुके थे। भगवान के भोग की सामग्री प्रस्तुत करने में भी तो घण्टे लगेंगे। गाँव के ठाकुर बड़े साधु सेवी है, यह वे सुन चुके थे और वहीं जा रहे थे। लेकिन नाम ध्वनि ने महाप्रभु को आकृष्ट कर लिया। वह बोले “गृहस्थ के द्वार ठहरने से साधु की कुटी पर ठहरना अधिक अच्छा है।” वे कुटिया की ओर चल पड़े।

कौवे काँव-काँव करते उड़ गए। कोयल ने कूक दी। दो-तीन गिलहरियां दौड़ आयी सामने की डाल पर यह देखने कि यह नए एंड से बोलने वाले उनके मित्र है या शत्रु। नीचे पत्ते खड़के और फतिंगा फर–फर करके दूर जा उड़ें। कुटिया में कोढ़ी चौंक उठा और हड़बड़ा कर टूटी चारपाई से नीचे लुढ़क गया। उसके घावों में चोट लगी और उनसे रक्तिम पीव फँसी ये निकल गयी। फिर भी वह यथा सम्भव शीघ्रता से खिसकने लगा द्वार की ओर।

“महाराज, दण्डवत्।” आवेश में पृथ्वी पर सिर पटक दिया उसने। उसकी कुटिया पर साधु आ रहे है। उसे हर्ष भी था और आश्चर्य भी मैं महापापी हूँ। कोढ़ी हूँ। आप लोग तनिक दूर ही ठहरे। उसने शीघ्र ही अपने आपको संभाल लिया और जोर से चिल्लाया। समझ लिया था उसने कि किसी दुष्ट ने साधुओं के साथ हँसी की हैं उन्हें धोखा देकर मेरे यहाँ भेजा है। उसकी कुटिया के पास उसके ही पेड़ों के फल चुराने वाले लड़के तक नहीं आते। वे भी दूर से उससे बात करते है। यह कैसे सम्भव हैं कि सन्त जानबूझ कर वहाँ आ रहे होंगे।

“वह तो कोढ़ी है! प्रभु।” मण्डली में सबसे पीछे चल रहे एक साधु ने कहा। उसके दोनों कंधों पर बड़े-बड़े झोले लटक रहे थे आगे-पीछे एक हाथ में बड़ा-सा लोटा था, दूसरे में तूंबा आगे खिसक आया जल्दी से वह। यों सबसे आगे गौराँग प्रभु स्वयं थे।

उसकी बात सुनकर गौराँग प्रभु मुस्कराए-छोटे हरिदास, साधु क्या कोढ़ी नहीं हो सकता।” जिन नेत्रों से उन्होंने सम्मुख सम्भव नहीं था आगे बोलना। वह चुपचाप पीछे खिसक गया। महाप्रभु स्वतः रुक गए चलते-चलते

“यहाँ क्या मुरली मनोहर का भोग होगा।” साहस करके उनके पीछे चलने वाले तरुण साधु ने पूछा। “क्या होगा इस कोढ़ी के पास। यदि हो भी तो क्या उसके अन्न से प्रसाद प्रस्तुत होगा? छिः।” कहने वाले का हृदय घृणा से भर गया था। “सौ तो उसकी श्रद्धा पर निर्भर है।” महाप्रभु जैसे घृणा एवं लौलिकी से बहुत ऊपर से बोल रहे थे। राम नाम का इस लगन से जप करने वाला यदि साधु न हो तो विश्व में कोई साधु नहीं। तुम कह सकते हो कि जब श्रद्धा से प्रभु को प्रसाद के लिए पुकारता होगा तो वे अस्वीकार कर देते होंगे तुम्हारी तरह? न ग्रहण करना प्रसाद, पर क्या एक दिन पेट को कुछ न मिले तो जीवन न रहेगा। क्या साधु को वहीं जाना चाहिए, जहाँ अच्छे-अच्छे पकवान मिलने की आशा हो?”

कोढ़ी पुकारता रह गया। उसने देखा कि उसके निषेध का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। हँसते हुए चैतन्य महाप्रभु पूरी मण्डली के साथ टीले पर चढ़े आ रहे है। कही बहरे तो नहीं हो गए ये लोग।

और फिर जो कुछ घटा, वह जीवन का अनिवार्य अनुभव कुछ पल की तरह बीत गए। कोढ़ी का कायाकल्प हो गया था। इसी बीच ठाकुर साहब भी यात्रा पूरी कर घर लौट आए। इधर घर पहुँचते ही ठाकुर चन्द्रशेखर सिंह ने उस कोढ़ी को स्मरण किया “ यह गंगाजल पहले दे आओ मातादीन को। वह स्वयं आ गया! सेवक ने शीशी लेकर मुड़ते ही देखा कि मातादीन द्वार के सम्मुख चला आ रहा है। “लो भाई अपना गंगाजल! ठाकुर तुम्हारे लिए वहाँ से ले आए है।” प्रणाम करे वह ठाकुर को, इससे पहिले ही सेवक ने शीशी आगे बढ़ा दी। प्रशंसा का कुछ अंश उसे भी तो पाने की ललक थी। “मातादीन तुम? ठाकुर चौक पड़ें वे तो पहचान न सकते यदि सेवक इस प्रकार परिचय न देता। आगे बोलने के लिए उनके पास शब्द नहीं थे। नीचे से ऊपर तक बार-बार वे उसे देख रहे थे। आश्चर्य की बात थी ही। टीला चंगा, हृष्ट-पुष्ट मातादीन नयी धोती की कछनी लगाए उनके सामने खड़ा था। वह चलकर आया था। उसके शरीर पर कोढ़ तो दूर एक चिन्ह भी नहीं था किसी घाव का। कौन कह सकता है कि उसे कभी गलित कुष्ठ भी हो चुका है।

“जी मैं-मैं अच्छा हो गया “ ठाकुर को प्रणाम करने के अनन्तर उसने उनके आश्चर्य को दूर किया। “मैंने बहुतेरा मना किया पर वे नहीं माने। ऊपर मेरी कुटिया के सामने आकर खड़े हो गए मेरे पास। इस अधम के शरीर से निकलती दुर्गन्धि की उन्होंने उपेक्षा कर दी उन्होंने पीव भरे घावों की। मैंने पृथ्वी में लेटकर प्रणाम किया उन्हें। और कर भी क्या सकता था? दोनों हाथों से झुककर उठा लिया उन्होंने मुझे और छाती से चिपका लिया। कोढ़ी में पता नहीं क्या हो गया था। इतना प्यार तो मुझे जीवन में किसी ने नहीं दिया था। किसी प्रकार रोते-रोते सुनाया उसने।

सन्तों की महिमा का वर्णन कर कौन कर सकता है। ठाकुर ने उसे गले लगा लिया। “हम तो केवल पृथ्वी के प्रयाग में स्नान कर आए। और तुमने उस दिव्य प्रयाग को अपने यहाँ बुला लिया अपनी श्रद्धा से। जो तीर्थ को भी पावनता तीर्थ बना देते है। जिनके दर्शनों का फल तुरन्त प्रत्यक्ष हो जाता है। हमारी प्रयाग यात्रा सच पूछों तो तुम्हारे दर्शन से पूरी हुई।” ठाकुर के नेत्र भी निर्झर बन बरस रहे थे।


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