पतन क्रम (Kahani)

August 1995

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अबोध बालक को भैरव की प्रतिमा के सम्मुख बलि चढ़ाते हुए एक तान्त्रिक पकड़ा गया। उसे विक्रमादित्य के दरबार में अपराधी की तरह उपस्थित किया गया। परिचय पूछने पर उसने बताया। कुछ वर्ष पूर्व मैं वेद पाठक ब्राह्मण था। कुत्साओं के कुचक्र में फँसकर एक के बाद एक बड़े कुकर्म करता गया। स्थिति यहाँ तक आ पहुँची कि बात हत्या की नृशंसता अपनाने में भी कुछ अखरा नहीं। विक्रमादित्य ने आश्चर्य से पूछा-आपका पतन क्रम किस कारण आरम्भ हुआ किस प्रकार बढ़ा और स्थिति यहाँ तक कैसे पहुँची? इसका विवरण बतायें। अपराधी ब्राह्मण ने लम्बी साँस खीचते हुए कहा-राजन्! कभी मैं अपरिग्रही जीवन जीता था। स्वल्प साधनों में सुखपूर्वक निर्वाह करता और ब्रह्म कर्म में रत रहता था। पड़ोसी का विलास-वैभव देखकर मन ललचाया। सोचा-ऐसा ही ऐश्वर्य भोगा जाय। संतोष, अपरिग्रह और ब्रह्म में क्या धरा है। दिशा मुड़ी तो हर कदम अधिक बड़े अनाचार की ओर उठता चला गया।

राजा ने पूछा-उस पतन -क्रम की श्रृंखला भी बताये। अपराधी ने एक-एक करके उन आदतों और घटनाओं का वर्णन किया, जिनके कारण दुष्टता का दुस्साहस बढ़ता और प्रचण्ड होता चला गया था। ब्राह्मण ने कहा-स्वल्प श्रम में अधिक धन कमाने के लिए जुआ खेलना आरम्भ किया। जुए के लिए अधिक धन की आवश्यकता पड़ी, तो चोरी करने का सिलसिला चल पड़ा। चोरी से मुफ्त का माल मिला तो मदिरा पान और वेश्यागमन की आदत पड़ गई। उन दुराचार के अड्डों से अधिक संपर्क रहने पर बड़े अपराधों का शिक्षण मिला और अभ्यास पकता चला गया। अनाचारी तन्त्रियों की शाखा में जाते, उनसे बलि कर्म द्वारा भैरव प्रसन्न करने, अनायास ही बहुत धन पाने की कामना करने का उपाय मुझे भी बहुत रचा। क्रूर कर्मों में निरत रहते-रहते बाल वध में भी न दया आई और न आत्मग्लानि हुई। यही है मेरे पतन क्रम की श्रृंखला जो चिनगारी की तरह हुई और ईंधन का आश्रय मिलते ही दावानल की तरह बढ़ती चली गई।


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