पुनर्स्थापित विशेष लेखमाला-2 - प्रज्ञा परिजनों के सप्त महाव्रत

August 1995

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प्रज्ञापरिजनों अर्थात् हर एक वह व्यक्ति जो लोक सेवा के क्षेत्र में प्रवेश करना चाहता है, आँशिक या पूर्ण समय-दानी के रूप में। इन सभी के लिए जो सृजेता बनना चाहते है उस देव ने जो आचार संहिता विनिर्मित की थी, उसको प्रथम लेख के रूप में अहमन्यता के विषपान से बचे रहने के रूप में विगत अंक में प्रकाशित किया गया था। यहाँ प्रस्तुत है उसी कड़ी में परिजनों के लिए सप्त महाव्रत जो जन-जन के लिए भी उतने ही उपयोगी है जितने कि लोक सेवी के लिए।

प्रज्ञा परिजनों को आत्म-कल्याण और लोक मंगल का दुहरा उत्तरदायित्व संभालना है इसमें उन्हें अपना व्यक्तित्व अपेक्षाकृत अधिक पवित्र, प्रखर एवं व्यवस्थित बनाना है इसके लिए कुछ विशेष सद्गुणों को बढ़ाने के लिए अनवरत प्रयत्न करना चाहिये। जो समझना, अपनाना और बढ़ाना है वह इस प्रकार है-

लक्ष्य और चिंतन-

जीवन को ईश्वर प्रदत्त सर्वोपरि उपहार समझें और उसका उद्देश्य स्रष्टा के विश्व उद्यान को अधिकाधिक समुन्नत सुसंस्कृत बनाना माने। इस प्रयास में आत्म कल्याण के दोनों उद्देश्य पूरे होते हैं।

बड़प्पन की महत्त्वाकाँक्षाओं को घटाये। महानता प्राप्ति की उत्कंठा उभारें। वासना-तृष्णा के, लोभ मोह के भव बंधनों में न जकड़े। सदुद्देश्यों के आकाश में सत्प्रवृत्तियों के पंख पसारे और जीवन मुक्तिं की तरह परम लक्ष्य की उपलब्धि के लिए उड़ चलें। पीछे मुड़कर न देखें। वर्तमान को संभाले, भविष्य की सोचें।

ज्ञान योगी की तरह सोचे। कर्मयोगी की तरह पुरुषार्थ करें। सहृदयता उभारें और उसे पतन-पराभव के निराकरण में नियोजित रखें।

प्रातः उठते ही एक दिन का जन्म, सोते ही एक रात का मरण सोचें और अवसर के श्रेष्ठतम सदुपयोग का भाव भरा निर्धारण करें। महाप्रज्ञा के अवतरण में सहकर्मी बने। प्रज्ञा अभियान में सम्मिलित रहें। हर दिन गायत्री मंत्र की न्यूनतम तीन माला का जप तथा सविता का ध्यान-धारणा श्रद्धा पूर्वक चलाये, उसमें व्यतिरेक न करें।

श्रमशीलता -

समय ही जीवन है। जिसने समय का जितना सदुपयोग किया वह उतना ही जिया, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए एक-एक कण क्षण की सुनियोजित विधि व्यवस्था में श्रम निरत रखें। आलस्य प्रमाद को पक्के शत्रु समझे और उन्हें पास न फटकने दें। इस सम्बन्ध में अपनी अभ्यस्त आदत को स्वयं सुधारे पैनी नजर से देखें कि काम उदास मन से, उपेक्षापूर्वक, मंदगति से तो नहीं हो रहा है? समुचित तत्परता और स्फूर्ति बरती गयी या नहीं? समय श्रम और परिपूर्ण मनोयोग से ही काम का स्वरूप निखरता और प्रयोजन पूर्ण होता है।

किसी काम को छोटा न माने। हाथ में आये काम को ठीक समय पर, सही रीति से, समुचित योग्यता लगाकर करने को प्रतिष्ठा का प्रश्न मानकर चले। खाली समय होने पर दूसरों द्वारा बताये जाने की प्रतीक्षा न करके स्वयं क्षेत्र से अव्यवस्था हटाने के रूप में वह कहीं भी प्रचुर मात्रा में मिल सकता है। प्रगति का एक ही मापदण्ड है- किसने अपने कार्यों में कितना उत्साह दिखाया और उछल कर आगे आया।

सुव्यवस्था-

सौंदर्य उपासक बने। स्वच्छता, सादगी और सुरुचि का समावेश ही सौंदर्य है। अपने शरीर, वस्त्र बिस्तर,निवास एवं कार्य क्षेत्र पर इस सन्दर्भ में पैनी दृष्टि रखें कि कहीं गन्दगी कुरूपता अस्त-व्यस्तता तो दिखाई नहीं पड़ रही है। जहाँ दीखे वहाँ फिर कभी के लिए टालने, की अपेक्षा तुरन्त सुधारने का प्रयत्न करें।

निजी कार्यक्षेत्र को सुन्दर, सुव्यवस्थित बनाने के अतिरिक्त साथियों को भी अपना मानें और उस परिकर को भी अधिक सुव्यवस्थित बनाने की बात सोचें। जो समझ में न आये उस विनय एवं सद्भावना पूर्वक करायें भी, भूल बताने, दोष लगाने व्यंग्य-उपहास करने पर तो सेवा सहायता भी कटुता उत्पन्न करती है, यह ध्यान में रख कर ही साथियों से सुव्यवस्था में योगदान दें।

रात को जल्दी सोये। प्रातः जल्दी उठे। डायरी लिखे। अपने समय, श्रम, चिन्तन, धन एवं प्रभाव की सम्पदा के अनुपयोग, दुरुपयोग एवं सदुपयोग का लेखा-जोखा रखें। अव्यवस्था ढूँढ़ें और उसे साहस पूर्वक सुधारें अभ्यस्त ढर्रों की समीक्षा करें और उसमें अधिकाधिक प्रगतिशीलता का समावेश करने के लिए प्रयत्नशील रहें।

ध्यान रखे! योजनाबद्ध काम करने, प्रसंगों के हर पहलू पर विचार करने, परिवर्तन सोचने, साधन जुटाने, सहयोग पाने की व्यवस्था बुद्धि ही स्तर उठाती, सम्मान दिलाती एवं सफल बनाती है।

शिष्टता-

दूसरों को सम्मान और अपना विनय वचन व्यवहार में समन्वित रखने को शिष्टता कहते हैं। उस सत्प्रवृत्ति को अपने स्वभाव का अंग बनायें, उच्छृंखलता न बरतें, उसे अपनी गिरावट और दूसरों की अवहेलना द्वारा दुःखद परिस्थितियाँ उत्पन्न करने वाली निकृष्टता समझें। यह दोष स्वभाव में घुस गया हो तो उसे कड़ी आत्म समीक्षा करके खोजें और निरस्त करने के लिए संकल्प पूर्वक प्रयत्न करें। अभ्यास वश जब भी ऐसे प्रसंग बन पड़ें कान पकड़ने जैसी छोटी आत्म प्रताड़ना देकर प्रायश्चित करें।

मिलन और विदाई का शिष्टाचार न भूलें। चित प्रसन्न रखें और मंद मुस्कान बनाये रहने की आदत डालें। न थकान प्रकट होने दें, न उदासी। कहें कम, सुने अधिक। शेखी न बनायें। “मैं” के स्थान पर’ ‘हम लोग” शब्द का प्रयोग करें। चापलूसी न करे पर सज्जनोचित सद्व्यवहार में कमी न पड़ने दें। आवेश, उत्तेजना, कर्कशता, खीझ, झल्लाहट से दूर रहे। जो कहना है, शान्त चित्त और शालीन शब्दावली में कहें। गाली-गलौज तक न उतरे। रोष प्रकट न करने, सुधारने, दबाने के ऐसे भी तरीके है जिनमें अपनी शालीनता न गँवानी पड़े। उतावली में किसी निष्कर्ष पर न पहुँचे। तथ्य समझने का प्रयत्न करें और पक्ष-विपक्ष की स्थिति को समझाते हुए निर्णय पर पहुँचे।

नागरिक कर्तव्यों का पालन करें। सामाजिक नीति-मर्यादा का ध्यान रखे। आलोचना से बचें व्यंग्य-उपहास निन्दा-चुगली के दुुर्गुण न अपनाये। जहाँ सुधार की आवश्यकता है वहाँ आत्मीयता का समावेश रखते हुए हानि-लाभ के पक्ष रखें और अनुरोध युक्त सुझाव भर प्रस्तुत करें।

संयमशीलता-

अपनी श्रम, समय, चिंतन, धन एवं प्रतिभा के रूप में उपलब्ध क्षमताओं का महत्व समझें और उनके सदुपयोग से प्रगति-पथ पर अग्रसर होने की बात सोचें। इन विभूतियों का एक कण भी बर्बाद न होने दें। अपव्यय अपने ही उज्ज्वल भविष्य का विनाश है।

इन्द्रिय संयम बरतें। चटोरेपन से बचें और कामुक चिन्तन की हानियाँ समझें दिनचर्या बनायें और कठोरता पूर्वक पालन करें। न श्रम से जी चुरायें न समय को प्रमाद में गँवाये। स्वाध्याय की आदत डालें। आत्म-निर्माण की योजना बनाने के चिंतन मनन में मन को लगायें। कुविचार आते ही उनके प्रतिपक्षी सुविचारों की सेना उनसे लड़ने के लिए खड़ी कर दें। नित्य हिसाब रखें किंतु सत्प्रयोजनों में, कृपणता भी न बरतें। संग्रही न बनें पर आमदनी से खर्च कम रखें, कुछ बचत रखें, उधार लेने की आदत न डाले। अपने प्रभाव का ऐसा उपयोग करें जिससे सम्पर्क क्षेत्र की दुष्प्रवृत्तियाँ घटे और सत्प्रवृत्तियों का बीजारोपण और परिपोषण उभरे। सादा जीवन उच्च विचार को हर समय ध्यान में रखे। विलासिता और मूर्खता और ठाठ-बाट की क्षुद्रता से इसलिए बचें कि उनसे अपना व्यक्तित्व गिरता है और अनुकरण करने वालों का पतन होता है।

अभ्यस्त कुसंस्कारों को खोजें और उन्हें संकल्प पूर्वक बुहार फेंके। इस सम्बन्ध में कठोरता बरतने, मन मारने और प्रतिकूलता सहने को ही तप कहते है। तप संयम से मनुष्य सच्चे अर्थों। में शक्तिशाली बनता है।

उदार आत्मीयता-

आत्म निर्माण की दृष्टि से अन्तर्मुखी तो बनें पर एकाकीपन का अभिशाप न अपनाये। हिल-मिलकर रहें। मिल−जुलकर काम करें और बाँट-बाँट कर खायें। अपने को समाज का एक घटक भर माने और सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझें। अन्यों की अपेक्षा अपनों के प्रति आपाधापी की संकीर्ण स्वार्थपरता न अपनाये। चिंतन और व्यवहार में पारिवारिकता के सिद्धान्तों का अधिकाधिक समावेश करे।

सामूहिकता के साथ जुड़ी हुई शक्ति और प्रगति को गंभीरता पूर्वक समझे और बिखराव की अपेक्षा सम्मिलित सहयोग की व्यवस्था बनायें। पारस्परिक सहयोग का आदान-प्रदान जितना भी बन पड़े, करते रहे किन्तु वह होना सदुद्देश्य के लिए ही चाहिए। कुचक्र रचना और षड्यंत्र करने वाले संगठन सहयोग न अपनाये।

आत्मीयता का क्षेत्र व्यापक करें। कुछ लोगों को ही अपना मानने और उन्हीं की फरमाइश पूरी करने, उपहार लादते रहने के व्यामोह दलदल में न फँसे। अपनी सामर्थ्य को सत्प्रवृत्ति संवर्धन में लगाये। देश, धर्म और समाज संस्कृति को प्यार करें। आत्मीयता को व्यापक बनायें। सबको अपना और अपने को सबका समझें। इस आत्मविस्तार का व्यावहारिक स्वरूप लोक मंगल की सेवा साधना से ही निखरता है। उदारता बरतें और बदलें में आत्म-संतोष लोक सम्मान तथा दैवी अनुग्रह की विभूतियाँ कमाएँ।

प्रगल्भता-

दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाएँ और उसी आधार पर नीति निर्धारित करें। प्रचलित ढर्रे में से उतना ही स्वीकार करें जो उचित हो। लोक-मंगल का ध्यान रखें किन्तु लोक मत पर ध्यान न दें। जन समूह का प्रचलित प्रवाह अवांछनीयता की ओर है उसके साथ न बहे। हर प्रसंग पर न्याय नीति अपनाये और कौन क्या कहता है उसकी उपेक्षा कर सकने का साहस जुटायें। एक आँख प्यार की, दूसरी सुधार की रखें। औचित्य को समर्थन सहयोग न दें। सम्भव हो तो विरोध भी करें और संघर्ष भी। यह नीति अपनों के साथ भी बरती जाय और दूसरों के साथ भी। मित्र या स्वजन होने पर भी उसकी अवांछनीयताओं में सहयोगी न बने।

इन दिनों सामाजिक प्रचलनों में अनैतिकता, मूढ़, मान्यता और अवांछनीयता की भरमार है। उलटा करके सीधा करने की नीति अपनानी चाहिए। इसके लिये नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति आवश्यक अनुभव करें और उसे पूरा करने में कुछ कसर उठा न रखें। आत्म सुधार में तपस्वी, परिवार निर्माण में मनस्वी और सामाजिक परिवर्तन तेजस्वी की भूमिका निबाहें। अनीति के वातावरण में मूक दर्शन बन कर न रहें। शौर्य, साहस के धनी बनें और अनीति उन्मूलन तथा उत्कृष्टता अभिवर्धन में प्रख्यात पराक्रम का परिचय दें।

जन संपर्क के कुछ सामान्य अनुशासन

प्रज्ञा परिजनों में से जिन्हें भी लोक सेवा के क्षेत्र में प्रवेश करना है उन सभी को कुछ मर्यादाओं का ध्यान रखना चाहिए। सेवा कार्य जितना महत्वपूर्ण है उससे भी अधिक लोक सेवी के व्यक्तित्व को प्रखरता का मूल्य हैं मिशन को लोकप्रिय बनाने में, दूसरों को प्रभावित, परिवर्तित करने, सुधारने, उभारने में प्रयासों का जितना प्रभाव होता है, उससे कहीं अधिक सफलता लोक सेवी के चिंतन, चरित्र, स्वभाव पर आधारित व्यक्तित्व का पड़ता है। इस प्राथमिक आवश्यकता की पूर्ति प्रज्ञा अभियान के हर सदस्य-युग शिल्पी को पूरी करनी चाहिए-इस संदर्भ में मोटी में मोटी मर्यादाएँ यह हैं-

(1) चटोरेपन की आदत छोड़े। किसी के घर जा कर अपनी स्वाद लिप्सा को प्रकट न होने दे। (2) महिलाओं से एकान्त वार्ता न करें। जब उनसे कुछ कहना हो तो आँखें नीची रख कर वार्ता करें। (3) दिमाग शीशे की तरह साफ रखें। जहाँ से जो पैसा प्राप्त हो उसकी रसीद भिजवायें। खर्च का हिसाब प्रमाण सहित नोट करायें। (4) वार्ता तथा व्यवहार में अपनी नम्रता तथा दूसरों के सम्मान का समुचित ध्यान रखें। (5) वेश विन्यास में ब्राह्मणोचित सादगी रखें। विशेषतया केश सज्जा तथा अन्य प्रकार की श्रृंगार से बचे।

इसके अतिरिक्त भी सज्जनता, शालीनता, शिष्टाचार से सम्बन्धित अन्यान्य नियम मर्यादाओं का जितना अधिक पालन किया जा सके उतना ही व्यक्तित्व निखरेगा और उस आधार पर सेवा कार्यों का अधिक ठोस परिणाम निकलेगा।


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