प्रज्ञायोग की साधना - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

August 1995

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गायत्री मन्त्र हमारे साथ-साथ

‘ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥’

देवियो, भाइयो! भगवान के अवतार समय-समय पर हुये है, और जब, जिस काम के लिए, जरूरत पड़ी है, तब-तब उसी काम के लिए उन्होंने अवतार उसी तरह का धारण किया है। यह समय इस तरह का है कि इसमें आस्था संकट छाया हुआ है। सब जगह आस्थाएँ कमजोर पड़ गयी हैं। आदर्शों के लिए कहिये, उत्कृष्टताओं के लिए कहिए सबके बल आस्थाएँ कमजोर पड़ने के वजह से जो आदमी काम कर रहा है, चिन्तन कर रहा है, यह गलत कर रहा है। उसका निवारण करने के लिए भगवान का नया अवतार होना चाहिये। वह प्रज्ञा-अवतार होना चाहिये। निष्कलंक भी इसी को कहते है दसवाँ अवतार या चौबीसवें अवतार निष्कलंक अवतार है। जिसे प्रज्ञा अवतार कहते है। प्रज्ञा-दूरदर्शी विवेकशीलता को कहते है। केवल वही निष्कलंक है और सब में कलंक लगा हुआ है। इसलिये यह महाप्रज्ञा के अवतार का जो समय है, इसको आप बहुत महत्वपूर्ण मानें और इसी का स्मरण करें। अपनी उपासना में इसी का समावेश करे।

गायत्री को त्रिपदा कहा गया है। सरस्वती, काली, लक्ष्मी, इसके ही भीतर आ जाती है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी इसी के अन्तर्गत आ जाती है। ब्रह्मा जी को तप करके सारे विश्व को-सृष्टि को बनाने के लिए जो शक्ति मिली थी, इसी के,द्वारा मिली थी। अब यही महाप्रज्ञा आदि-शक्ति गायत्री के रूप में नया अवतार ग्रहण कर रही है।, आस्था संकट का निवारण करने के लिए। कैसे होगा यह अवतार? आपको मालूम है न कि सीता जी का जन्म क्यों हुआ था। रावण को मारने के लिए जब सीता जी की जरूरत थी। तक ऋषियों ने अपना रक्त एकत्र करके एक घड़े में बन्द किया था। उसे जमीन में गाढ़ दिया था। राजा जनक ने उस घड़े को निकाला और सीता जी को जन्म हुआ। दुर्गा का अवतार कैसे हुआ, आपको मालूम है? सब के सब देवता इकट्ठे होकर प्रजापति के पास गये और प्रजापति से कहा” अब ये दैत्य हमसे सँभालने में नहीं आते आप ही कोई तरकीब बताइये। उन्होंने कहा कोई तरकीब बताइये। उन्होंने कहा कि ”तुम सब की शक्ति को इकट्ठा करके अभी हम दुर्गा का अवतार करेंगे और वह सारे के सारे दैत्यों का संहार कर देगी।

भगवान सब को समान मानते है। आप भी उसमें शामिल है और जो नहीं आये है वे भी शामिल है। सब मिलकर के एक ऐसी सामूहिक उपासना करेंगे-प्रज्ञा की-महाप्रज्ञा की-आदि -शक्ति की जिससे इस समय का जो आस्था संकट है और जिसने सारे के सारे इस विश्व को अस्त्र -व्यस्त कर रखा है, उसका निवारण किया जा सकना संभव हो सके। कैसे करना चाहिये? क्या करना पड़ेगा इसके लिए इसका नाम प्रज्ञा-योग रखा है हमने क्योंकि इसमें कई चीजें शुमार है। इसलिए प्रज्ञा-योग योग की साधना, हम सब लोगों को करनी चाहिये। प्रज्ञा-योग क्या है? प्रज्ञा-योग में ज्ञान, कर्म और भक्ति की जिनको आप सरस्वती लक्ष्मी, काली, कहते है। ये तीनों शक्तियाँ शामिल है। जिन्हें आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहते है, तीनों ही चीजों का इसमें समावेश है। यह आपको करना पड़ेगा। कैसे करना पड़ेगा? चलिये, आप लोग नोट करते जाइये इनको या फिर ध्यान में रखिये। छपा हुआ भी है। प्रज्ञा-योग कैसे करना चाहिये? प्रज्ञा-योग कैसे करना चाहिये? प्रज्ञा-योग का पहला चरण है कि आप चारपाई पर से करे चारपाई पर पड़े हुये। जब सबेरे उठें तो उठने से पहले जमीन पर पैर रखने से पहले आप यह विचार करें कि हमारा नया जन्म हुआ है और आज हम नया जन्म ले रहे है। रात में जब आपका बिस्तर लगे और जब आप सोने की तैयारी करें, उस समय आप इस तरीके से करें कि हमारा आज मृत्यु का दिन आ गया। और अब हम भगवान की गोद में जा रहे है। चौरासी लाख योनियों में घूमने के बाद मनुष्य का जनम बड़ी मुश्किल से मिलता है। आप यह विचार कीजिए कि हम अच्छे से अच्छा आज का उपयोग करेंगे। आज का दिन बेकार नहीं जाने देंगे। और रात को जब आप सोये, तब आप समझिये कि आज का दिन, जन्म खत्म हुआ। आज की बातों की समीक्षा कीजिये। सबेरे प्रातःकाल सारे दिन की स्कीम बनाइये कि आज हमको करना क्या है? और आज हमको करना क्या है और शाम को इसकी समीक्षा कीजिये कि हमने कोई गलती तो नहीं की है और की है तो उसका सुधार कैसे होना चाहिए और परिमार्जन कैसे होना चाहिये? सुबह और शाम को यह आपका प्रातः कालीन, संध्या कालीन क्रम होना चाहिए।

इस तरह सायंकालीन संध्या आपकी बिस्तर पर ही होनी चाहिये। बिस्तर के बाद कर्म-योग का नम्बर आता है। कैसा कर्मयोग? कर्मयोग का जबाब यह है कि आपको करना क्या है? यह तो केवल विचार हुआ। ज्ञान कहते हैं विचार करने को और कर्म-योग कहते हैं काम करने को। काम करने में क्या करना है? आप स्नान करके, कपड़े, कपड़े बदल कर झाडू लगा करके, अपने पूजा के सारे सामान को साफ करके बैठिए। सबसे पहला कम शुद्धता है। अगर आपका मन शुद्ध है, शरीर शुद्ध है, जीवन शुद्ध है, आजीविका शुद्ध है तो समझना चाहिये कि आपकी उपासना की शुरुआत हुई और यदि आपका मन गन्दा है, आपका शरीर भी गन्दा है, आपकी कमाई भी गन्दी है, आपके विचार भी गन्दे है तो आप समझिये कि आप जो पूजा कर रहे है उसका परिणाम नहीं मिलेगा। इसलिए शुद्धता पहला काम है। शुद्धता के लिए कुछ विधियाँ बताई गयी है। कौन-कौन सी विधियाँ है? पवित्रीकरण है, आचमन है, प्राणायाम है, न्यास है। ये आपने हमारी सब पुस्तकों में पढ़े होंगे। इन सब क्रियाओं का मतलब यह होता है कि आप अपने मन को, अपने वचन को, अपनी वाणी को, अपनी क्रियाओं को और अपने इष्ट चिन्तन को, इन्द्रियों को सबको पुनीत बना रहे है। पवित्र बना रहे है। जो मलिनताएं उनके अन्दर छायी हुई होगी, उनको हम निकालेंगे। न्यास का अर्थ यह ही होता है कि हमारी जो इन्द्रियाँ हैं पाँचों इनका उपयोग हम ठीक तरीके से तरीके से करेंगे। अच्छे काम में करेंगे। गलत या गन्दे रूप में नहीं करेंगे प्राणायाम का अर्थ होता है कि जो साँस हम लेंगे तो हमारी वह हर साँस इस तरीके से चलेगी कि इसमें कहीं कोई कमी और खामी न हो। इसी तरीके से जो आप सारे शरीर के ऊपर जल छिड़कते है, तीन वार आचमन करते हैं, उसका भी अर्थ यह है कि हमारे मन, वचन और कर्म तीनों ही स्वस्थ बनेंगे। इसके लिए सबसे पहले उपासना की आवश्यकता होगी।

इसके बाद में आपको देवपूजन करना पड़ेगा। “देव पूजन किसका? भगवान का? भगवान तो निराकार है।” मगर पूजा के समय पर उनको साकार बनाया जाता हैं। गायत्री का कोई चित्र आपने रखा हो, कोई मूर्ति रखी हो, कुछ न कुछ तो आपको रखना ही पड़ेगा। बिना प्रतीक पूजा नहीं हो सकती। प्रतीक -पूजा होना आवश्यक है। भगवान निराकार है तो साकार भी होते है। आपने हमें शरीर में देखा है तो हम यह शरीर थोड़े ही है। हम तो जीवात्मा है। उसको आपको दिखायें? नहीं दिखायेंगे आपको। वह तो निराकार है। गायत्री-माता की मूर्ति या चित्र जो भी आपने रखा हो, उसके सामने पाँच चीजों से पूजन किया जाता है। पाँच चीजें क्या है? वैसे सोलह चीजें भी है। जल एक, अक्षत दो, धूप या सुगन्ध तीन, पुष्प, चार और मीठा या प्रसाद पाँच। वे क्यों? उनको फूलों की जरूरत नहीं पड़ गई। आपको स्मरण दिलाया गया है कि भगवान की आपकी पूजा तब सार्थक मानी जायेगी, जब आप इन चीजों को प्रतीक मानकर के अपना जीवन भी उसी तरीके का बनायें। जल सरस होता है, प्रवाही होता है। आपको सरस होना चाहिए। जल के समान कोमल होना चाहिये। अक्षत? अक्षत का मतलब यह है कि जो आप कमाते है उसमें से एक अंश भगवान के लिए लगाइये। धूप? चाहे आप धूप जलाये, कुछ भी जलाये सुगन्ध जगायें तो आपका जीवन चन्दन के तरीके से सुगन्ध फैलाने वाला हो। फूल? फूल कैसा कोमल होता है? कैसा सुन्दर होता है? आपका जीवन ऐसा सुन्दर होना चाहिये। याचक की सार्थकता इसमें है कि वह भगवान के चरणों पर चढ़े, गले में पड़े। आपका जीवन ऐसा होना चाहिए। मिठास या मीठा? कोई मीठी चीज भगवान को खिलाते है, नमकीन नहीं। “ इसका अर्थ यह होता है कि आपकी वाणी, आपका व्यवहार ऐसा हो जिसमें मिठास भरी हो। जब आप कोई व्यवहार करें तो ऐसा व्यवहार करें जिसमें मिठास भरी हुई हो। इस तरीके से देव-पूजन में पाँचों चीजों का मतलब यह होता है कि हम स्वयं शिक्षा ग्रहण करें उनसे। ऐसा नहीं कि भगवान को इनकी आवश्यकता है। धूपबत्ती आप जलाएँगे नहीं तो भगवान के लिए कोई मुश्किल आयेगी। दीपक आन नहीं जलाएँगे तो भगवान को इनकी आवश्यकता है। धूपबत्ती आप जलाएँगे नहीं तो भगवान के लिए कोई मुश्किल आयेगी। दीपक आप नहीं जलाएँगे तो भगवान को दिखाई नहीं पड़ेगा। यह मतलब नहीं है। भगवान के लिये नहीं, बल्कि अपनी याददाश्त को सही करने के लिये और अपनी जीवन-क्रिया की माप-तौल करने के लिये उसका मापदण्ड रखने के लिए ये क्रम लिखें गये है।

चलिए, अब इसके बाद क्या करना चाहिए? इतना सब कुछ कर लेने के बाद जप और ध्यान करना चाहिए। जप किसका करना चाहिये? कितना करना चाहिये? गायत्री-मंत्र का जप करना चाहिये क्योंकि प्रज्ञा की देवी वह ही है। कितनी माला, करनी चाहिये? तीन-तीन तो कम से कम करनी चाहिये। ज्यादा कर सकें तो, आप ज्यादा कर लीजिये। तीन क्यों? तीन इसलिए कि आत्म-परिष्कार के लिए, एक। जीवात्मा का नित्य संशोधन हो इसके लिए दो। तीसरी माला वातावरण संशोधन के लिए। इसका उद्देश्य यह है कि जो सारा का सारा वातावरण गन्दा हो रहा है, उसकी सफाई करने के लिए, एक माला और एक यह कि हम और आप मिलकर काम कर रहें। जो मिशन है,- जो प्रज्ञा-अभियान है, उसकी सफलता के लिए एक और वातावरण के परिशोधन के लिए अपनी जीवात्मा के संशोधन के लिए एक। तीन मालाएँ तो कम से कम आपको करनी ही चाहिये। ज्यादा कर सकें तो ज्यादा करिये। ज्यादा में कोई मनाही नहीं है। यह नियमित है। मैक्सीमम-ज्यादा कर सकते हैं आप। ज्यादा के लिए कोई सीमा नहीं है आपके लिए। अच्छा यह गायत्री का जप हुआ। इस तरीके से जप कीजिए कि किसी पास बैठे को पने किया है, सूर्य भगवान को। पूजा-उपासना करने के पीछे, यह भावना करनी चाहिये। क्या करना चाहिये? पूजा उपासना के बाद में आप जल चढ़ायें और साथ-साथ में यह भावना करें कि भगवान को अर्थात् भगवान के संसार को, हम अपने सुखों को बाँटेंगे और संसार में अर्थात् भगवान का विराट रूप है, विराट विश्व है, इसमें जो दुख फैले हुये है, उनको घटाने के लिए हम कोशिश करेंगे। सूर्य अर्घ्य देते समय यही भावनाएँ होनी चाहिए। हमारे पास जो भावनाएँ होनी चाहिए। हमारे पास जो सम्पदा है, वह जल के रूप में भगवान के चरणों पर गिरे और वह फैल जाये। यह भावना सूर्य अर्घ्य की है।

अब एक और रह जाती है और वह ‘तप’ आपको विशेष रूप से ध्यान देना है और गौर करना है। रविवार के दिन या गुरुवार के दिन, में से कोई एक दिन चुन लीजिये। सप्ताह में एक दिन तो तप करना ही चाहिये। वैसे तो रोज ही करना चाहिये आदमी को पर अगर रोज नहीं कर सकता तो कम से कम एक दिन तो अवश्य करना चाहिये। रविवार और गुरुवार में से आपको ठीक पड़ता हो उसे चुन ले। छुट्टी वाले दिन प्रायः लोग पकौड़े-कचौड़ी बनाते रहते है। मित्र, यार-दोस्त आते रहते है। उस दिन और कोई दिन अच्छा होता हो, ऐसा मालूम पड़ता हो आपको तो उस दिन भी कर सकते हैं लेकिन एक दिन आपको तप का अभ्यास अवश्य करना चाहिये, अपने आप को तपाने का। तपाने से ईंटें पक्की हो जाती है। तपाने से सोना साफ हो जाता है। तपाने से लोहा साफ हो जाता है। तपाने से पानी का स्टीम बन जाती है। अपने आपको तपाना आवश्यक मानिये। यह तो था भगवान का योग और यह अब शुरू होता है तप। तप में क्या काम करना चाहिये? तप का आपको प्रतीक बताता हूँ। थोड़ा-थोड़ा कर लीजिये। उसका सिद्धान्त आपको याद रहना चाहिये। सिद्धान्त आप भूल जायेंगे तो मुश्किल पड़ेगी। एक तो है अस्वाद व्रत का परिपालन। आप उसे एक समय का ही रखिये अगर दोनों समय आपके लिए सम्भव नहीं है तो स्वाद का त्याग कीजिए। नमक और शक्कर दोनों चीजों का त्याग करने का मतलब यह है कि आपने स्वाद पर विजय प्राप्त कर ली। जिह्वा इन्द्रिय पर ध्यान रखिये। आपको डुबो देने वाली, आपको परेशान करने वाली, हैरान करने वाली यह इन्द्रिय, बड़ी खराब है। आगे से आन जब कोई जप करेंगे, तप करेंगे, कोई मन्त्र का उच्चारण करेंगे तो ध्यान रखेंगे। इसलिए पहला काम है जीभ पर कंट्रोल करना। वाणी पर भी कंट्रोल करना चाहिये, लेकिन खाने पर तो करना ही करना चाहिये, स्वाद पर। एक समय नमक मत मिलाइये। तब ज्यादा नहीं खायेंगे फिर आप पेट के लिए खायेंगे। फिर आप स्वाद के लिए भोजन नहीं करेंगे। तो अस्वाद का अभ्यास हममें से प्रत्येक आदमी को करना चाहिये। चाहे सप्ताह में एक टाइम ही हो। यह एक तप हुआ।

नम्बर दो? वाणी जो हमारी है इससे हम उच्चारण करते है तो समझ-सोच कर उच्चारण नहीं करते-कि हमको क्या कहना है? किससे क्या बात करनी चाहिये? जो हम कह रहे है वह दूसरे के लिए फायदेमन्द है या नुकसान देय है और दूसरे आदमी का दिल दुखाने वाली है? क्या, क्या नहीं है? हम कुछ नहीं सोचते। जो मुँह में आता है उलटा–सुलटा वही हम बकते रहते है। यह न बग करके एक-एक शब्द को समझ-सोचकर बोलना चाहिये। अभ्यास के लिए हमको मौन धारण करने की जरूरत है। दो घण्टे को मौन रहिये आप। तमाम दिन कैसे मौन रहेंगे। कभी बोलेंगे, कभी चिट्ठी लिखेंगे, कभी हाथ से लिखेंगे, कभी क्या करेंगे? कम से कम दो घण्टे का मौन तो रखिये ही। उस समय रखिये जब लोग, मिलने-जुलने वाले, आपके पास ज्यादा आते-जाते है। मौन के लिए सुबह का वक्त ठीक हो सकता है और शाम का वक्त भी ठीक हो सकता है। दिन में आपको अपनी दुकान से टाइम न मिलता हो तो आप सबेरे-शाम का रख लीजिए। नहीं साहब, हम तो सोया करेंगे तब मौन रखा करेंगे। रात को सोने में क्या मौन रखना? उस तरह के टाइम पर जिस पर कि लोगों के मिलने-जुलने की संभावना हो। घर वाले तो आपसे मिलते ही है सुबह-शाम और रात को घर वालों को तो आप बता भी सकते है। समझा भी सकते है। कह भी सकते है भई, बोलना मत हमसे। यह समय हमारे मौन धारण करने का हैं मौन भी एक तप है। हम आजकल मौन का अभ्यास करते है। इससे पहले भी ऋषियों ने मौन के अभ्यास किये है। वाणी से वाणी का मौन जिसका अभ्यास करने से वाणी में तेजस्विता आती है। वाणी से हम जो कुछ कहते है उसका दूसरों पर असर पड़ता है, पर जब हमारी आचरण अस्त-व्यस्त है तो किसी पर असर नहीं पड़ेगा। इससे आप संगीत गाये, गाना गाये, व्याख्यान दें, परामर्श दें, प्रवचन दें, कोई नहीं करेगा वह काम। अतः वाणी हमारी शुद्ध हो, इसके लिये हमको मौन का अभ्यास करना चाहिये। स्वाद का अभ्यास करना चाहिये। इतना ही नहीं हमारा आहार भी पुनीत हो। आहार को पुनीत करने के लिए आपको अस्वाद का अभ्यास करना चाहिये।

इसके सिवाय दूसरी बात है- ब्रह्मचर्य। ब्रह्मचर्य में दो-बातें आती है- एक तो शारीरिक संयम। उस दिन, जिस दिन आपको व्रत रखना है, उस दिन आपको ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। धर्मपत्नी आपकी है तो भी करना चाहिये और धर्मपत्नी नहीं है तो भी करना चाहिये। धर्मपत्नी नहीं है तो कैसे करें? वास्तव में ब्रह्मचर्य जो खण्डित होता है, आदमी की कल्पनाओं से होता है। शरीर की कोई बात नहीं है। शरीर तो स्वप्नदोष भी हो जाते। स्वप्न-दोष से पानी का क्षय हो जाना कोई नुकसान का नहीं है जितना कि हम महिलाओं के सम्बन्ध में गलत दृष्टिकोण रखें। उस दिन आप खासतौर से अपने मन में यह विचार कर लीजिये कि कोई विचार आपके मन में इस तरह का न आयें। आये तो इस विचार के ठीक उलटे विचार शुरू कर दीजिये। कोई गन्दा विचार आपके दिमाग में आया है तो उसके ठीक उलटा विचार शुरू कर दीजिए। लीजिये आपको खाने के सम्बन्ध में आता है तो उन लोगों का ध्यान रखिये जिन लोगों ने अस्वाद व्रत रखे थे। काम वासना का विचार आया है तो यह ध्यान रखिये कि हनुमान जी थे, भीष्म पितामह थे, स्वामी दयानन्द थे, शंकराचार्य थे, इन लोगों ने किस तरीके से अपना जीवन जिया? किस तरीके से शक्ति संग्रह किया? इस बात का विचार कीजिए। विचारों को विचारों से काट दीजिये। विचारों को रोका नहीं जा सकता। एक तरह के विचारों को हटा करके दूसरे तरह के विचारों को उस स्थान पर ले आयें तो हमारा विचारों पर कण्ट्रोल करना सुगम हो जायेगा। ब्रह्मचर्य माने संयम। इस तरीके से वाणी का तप और काम-इन्द्रिय का तप, इन दोनों तपों को करना चाहिये।

तप चार के होते है। सारी इन्द्रियों का जप-तप पैसे का तप दो, समय का तप तीन और विचारों का तप चार इन्द्रियों की बात हो चुकी। अब दूसरा तप है- पैसे का आप जो भी पैसा खर्च करें, उसमें एक-एक पैसे को ध्यान में रखिये कि कहीं यह गलत खर्च तो नहीं हो रहा है। कहीं किसी पैसे का आप गलत खर्च तो नहीं कर रहे है। हमने दो सौ रुपये महीने में बहुत सारी जिन्दगी काट डाली। यहाँ आने से पहले हम अखण्ड-ज्योति कार्यालय में जितने समय तक रहे है, हमने दो-सौ रुपये महीने में अपना समय काटा है। पैंतीस साल के करीब हम अखण्ड-ज्योति कार्यालय में रहे है। वहाँ भी, हमारी गवाही सुरक्षित है ताकि कोई आदमी यह न कहे कि पाँच आदमियों की गृहस्थी दो सौ रुपये में नहीं चल सकती? जरूरत चल सकती है। पैसे का संयम कीजिये। पैसे का संयम करेंगे तो बुरे कामों से बच जायेंगे। नशाखोरी से बच जायेंगे। दुर्व्यवहारों से बच जायेंगे। अगर पैसे खर्च करते है तो फिर आपके अन्दर लम्बे बुराइयाँ पैदा हो जायेंगी और उनको फिर आप रोक नहीं पायेंगे।

इस तरीके से इन्द्रियों का संयम एक पैसे का संयम दो, अब तीसरा संयम आता है-समय का, समय का भी आप टाइम-टेबल कर सकेंगे। टाइम-टेबल बनाकर आप काम करेंगे जो बिनोवा ने इतनी लम्बी यात्रा भी पूरी कर ली थी और इसके साथ-साथ में पढ़ने-लिखने का काम भी जारी रखा। तेईस भाषाओं के विद्वान थे वे। उन्होंने अपने समय का विभाजन इस तरीके से किया हुआ था कि एक सेकेण्ड भी बेकार नहीं जाता था। विश्राम भी समय पर था। बिनोवा शाम को छः बजे सो जाते थे। “ गर्मियों में सात बजे सूर्य अस्त होता है तो भी वे छः बजे सो जाते थे। उन्होंने यह कभी नहीं देखा कि सूरज आगे चलता है कि पीछे चलता है। उन्होंने घड़ी के ऊपर जिन्दगी को नियमित रखा। जितने भी संसार में महापुरुष हुये है उन्होंने काल को पार्टी से बाँधकर रखिये। घड़ी को अपनी कलाई से बाँधकर रखिये। घड़ी के कहने पर अपना चलने का, फिरने का, खाने का पीने का सोने का, उठने का कार्यक्रम बनाये। अपना समय आपके अधिग्रहीत होना चाहिये समय आपका अस्त-व्यस्त नहीं जाना चाहिये। ऐसा न हो कि समय को आप बेमिसाल और बेहिसाब खर्च करे। समय का निग्रह है यह।

समय संयम के बाद आता है विचारों का निग्रह। विचारों का निग्रह कर नहीं पाते लोग। चाहे जो सोचते रहते है। रात को सोते हुए आँख खुल गई तो न जाने कहाँ के विचार कर रहे है? किस तरह कर हरे है? असम्भव बातों के भी विचार कर रहे है।” रात को सिनेमा देखा था। फलाँ औरत देखी थी। कैसी अच्छी है वो उसकी हम ओटोग्राफ लेकर आयेंगे। अरे बाबा। कहाँ तक का किराया तो दे नहीं पायेंगे फिर ओटोग्राफ कैसे लेकर के आयेंगे। इस तरीके के विचारों का निग्रह करना आना चाहिये। विचार जिस काम में लगाना चाहिए, उसी काम में अगर आप लगायें तो आप वैज्ञानिक हो सकते है साहित्यकार हो सकते है। जितने भी संसार में सफल जीवन के मनुष्य हुये है उन लोगों ने अपने विचारों पर कण्ट्रोल करना सीखा था। विचार को इस तरीके से खत्म किया कि जहाँ करना है बस उसी जगह करना हैं जहाँ नहीं करना है, उस जगह नहीं करना। मन के ऊपर नियंत्रण करने की विधि यही है कि विचारों को अस्त व्यस्त न होने दे। विचारों को काम में लगा दे। आप अस्त-व्यस्त है। कहीं घूमने के लिए विचार बन रहा है। तो वहाँ से हटाइये और जो आपके पास में ढेरों की ढेरों समस्यायें है, उनके ऊपर बनाइये। बच्चों को कैसे पढ़ायेंगे? धर्मपत्नी का स्वास्थ्य कैसे अच्छा करेंगे? अपने जीवन को भी ठीक कैसे बनायेंगे? आप इस तरीके से योजनायें बनाने में, विचार करने में विचारों को लगने दीजिए, जब खाली समय हो तब। और जब खली नहीं है तब? अपने काम को अपने सम्मान का प्रश्न बनाकर के सारे मन को उसी में लगा दीजिए। मन को एक मिनट खाली मत रहने दीजिये। कोई काम आपके पास है तो उस काम को इस तरीके से करिये मानो यह हमारे लिए सबसे बड़ी जिम्मेदारी का काम है, जो काम आपने हाथ में ले रखा है, उसे पूरी जिम्मेदारी का काम है, जो काम आपने हाथ में ले रखा है, उसे पूरी जिम्मेदारी समझकर कीजिये। फिर देखिये आपका काम कैसा बढ़िया, कैसा शानदार, कैसा अच्छा खूबसूरत काम हो गया?

इस तरीके से विचारों का संयम एक समय का संयम दो, पैसे का संयम तीन, और इन्द्रियों का संयम चार। चार संयम अगर आप करने लगें तो मैं आपको तपस्वी कहूँगा। इसकी शुरुआत करने के लिए आप जीभ से और कामेन्द्रिय से कामवासना के विचार और स्वाद के विचार, इन दोनों को निकालना शुरू करें। यह यह सबसे पहला शुरुआत का चरण है। इसके बाद के जो चरण है वे वही है जो मैंने अभी आपको निवेदन किया। इस तरीके से रविवार या गुरुवार के दिन आप शुरुआत करें ओर पीछे तो आप तमाम दिन कीजिए। यह तो हर दिन करने की चीज है। आपको यह नहीं कहा जा रहा है कि आप केवल गुरुवार को ही करेंगे। फिर आपको चाहे जो छूट मिल जायेगी। फिर चाहे जब आप करेंगे। गुरुवार से आप शुरुआत करेंगे। प्रज्ञायोग यही है। दूसरा काम आपको यह करना है कि सोते और उठते समय नये जन्म और पुराने जनम को याद रखेंगे। शुद्धता रखेंगे। शुद्धता रखने के लिए पवित्रीकरण, प्राणायाम और न्यास सब करेंगे। जल, अक्षत, धूप के अनुरूप अपना जीवन बनायेंगे। भक्ति-योग के लिये तीन मालाएँ करेंगे एक अपने लिये, एक अन्तःकरण संशोधन के लिये और एक अपने शरीर को सामर्थ्यवान बनाये रखने के लिए। और सविता का ध्यान करेंगे गायत्री जप के साथ-साथ में सविता आपको बल दे और ज्ञान-बुद्धि दे। अर्घ्यदान करते हुये बराबर यह बात कहेंगे कि “अपने सुख बाँटेंगे और दूसरों का दुख बाँटेंगे और दूसरों का दुख बँटायेंगे। रविवार और गुरुवार में से किसी एक दिन आप यह करेंगे। बस, इतना ही प्रज्ञा-योग हैं प्रज्ञा-योग आप नियमित रूप से कीजिए। हमारी छपी हुई किताब है। समझ में न आये तो फिर आकार सीख लेना कभी। प्रज्ञा-योग की आप साधना कीजिये। इस समय यह आपके लिये पर्याप्त है। आज की बात समाप्त।

॥ ॐ शान्तिः॥


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