मानव मस्त फकीर रे! (Kavita)

August 1995

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सारे बंधन तोड़ हुआ यह मनवा मस्त फकीर रे! लाँघ चला सारी सीमाएँ, तोड़ चला जंजीर रे!

हमने घर-परिवार न छोड़ा, स्वजनों का भी प्यार न छोड़ा, जिसका ऋण है जनम-जनम का हम पर, वह संसार न छोड़ा,

अपनी जैसी लगी हमें तो सब के मन की पीर रे! सारे बंधन तोड़ हुआ यह मनवा मस्त फकीर रे!

क्षुद्र स्वार्थ से नाता तोड़ा, रिश्ता सारे जग से जोड़ा, श्रेष्ठ लोक-मंगल के पथ पर, हमने हर चिंतन है मोड़ा,

जनहित के कारण अब तो बस साधना हुआ शरीर रे! सारे बंधन तोड़ हुआ यह मनवा मस्त फकीर रे!

आडम्बर न सुहाता हमको-छापा-तिलक न भाता हमको, धरती पुत्रों का पद रज-कण-है पावन -सुखदाता हमको,

चंदन-सी इस मातृभूमि की माटी बनी अबीर रे! सारे बंधन तोड़ हुआ यह मनवा मस्त फकीर रे!

सज्जनता को नमन करेंगे, दुश्चिंतन का दमन करेंगे, जीवन भर जन-सेवा में हम गुरुवार का अनुगमन करेंगे,

संस्कृति की रक्षा को आए बनकर सब रघुवीर रे! सारे बंधन तोड़ हुआ यह मनवा मस्त फकीर रे!

मन में संवेदना भरेगा, मुख से शीतल वचन झरेंगे जप-तप-तीरथ भले न हो पर। हम सेवा-साधना करेंगे,

हर दुखियारों का आँसू है पावन गंगा-नीर रे! सारे बंधन तोड़ हुआ यह मनवा मस्त फकीर रे!

शचीन्द्र भटनागर


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