भोगी बनें कि उद्योगी?

August 1995

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सुवर्णजात प्रतिदिन सहस्र मुद्राओं का दान करते थे। कोई भी याचक उनके पास से निराश खाली हाथ नहीं लौटता था। तो भी यह एक रहस्य ही था कि उनके निजी सेवक अनुराग ने कभी कुछ माँगा तो वह एक ही नपा तुरंत उत्तर देते “ तुम्हें जब कुछ भी देने के लिए हाथ बढ़ाता हूँ, सूर्य देवता हाथ पकड़ लेते है। क्या करूँ, विवश हूँ।

अनुराग जड़ बुद्धि नहीं था। वह निरन्तर अवसर की प्रतीक्षा में रहने लगा। एक बार अमावस्या का पूर्ण सूर्य ग्रहण पड़ा। उस समय अनुराग अपने स्वामी के समीप ही था। ग्रहण प्रारम्भ होते ही उसने कहा ”स्वामी इस समय तो सूर्य को राहु ने पकड़ लिया है। अब तो वे रोक नहीं सकते अब तो कुछ कीजिए।” सुवर्णजात पकड़ में आ गए, इस बार इनकार नहीं कर सके। उन्होंने अपने सेवक को बहुत साधन एवं सुवर्ण मुद्राओं का दान कर दिया।

अनुराग के मन की दमित इच्छाएँ जो धन के अभाव में प्रसुप्त पड़ी थी, एकाएक भड़क उठी। अब तक जहाँ उसका संयमित जीवन बीत रहा था, अब भोग-विलास का भूत उस पर चढ़ा बैठा। मकान बनाने से लेकर विवाह करने तक की जा भी महत्त्वाकाँक्षाएँ तत्काल पूर्ण हो सकती थी, अनुराग ने पूरी कर ली। देखते-देखते न केवल सारा धन स्वाहा कर लिया बल्कि अनेक रोग और दुर्बलताएँ भी उसने पैदा कर ली।

जब तक धन रहा-काम की कौन पूछता। निदान धन्धा भी उसने छोड़ दिया था। अब, जब उसके पास कुछ न बचा, तो फिर सुवर्णजात के पास गया और काम पर रखने की याचना करने लगा। सुवर्णजात ने उत्तर दिया-तात रिक्त स्थान की पूर्ति कर ली गई। अब उस सेवक को हटाना नीति विरुद्ध है। अतएव उसे हटाकर तुम्हें काम पर रखना तो असम्भव है। अलबत्ता तुम्हें ऐ उपाय बता सकता हूँ। तुम ‘श्री’ बीज लगाकर यदि भगवती लक्ष्मी की उपासना करो तो उनसे तुम्हें अवश्य ही धन प्राप्त हो सकता है।

अनुराग उस दिन से देवी की उपासना करने लग गया। काफी दिनों तक उपासना करने के बाद भगवती लक्ष्मी प्रसन्न हुई और वर माँगने को कहने लगी। धन सम्पत्ति की आकांक्षा करने पर वह बोली-वत्स! घर जा कुछ काम कर उद्यम उद्योग जुटा, तो मैं। स्वतः मेरे पास आ जाऊँगी। किन्तु भोग वृत्ति में आसक्त अनुराग के पास इतना समय कहाँ था। वह लक्ष्मी जी से हठ करता रहा। लक्ष्मी जी बोली अच्छा तो तुम भोगी लाल और उद्योगी लाल के पास जाकर देख आओ। दोनों में से किसकी लक्ष्मी तुम्हें पसन्द है, वहीं मैं तुम्हें दे दूँगी।

अनुराग ने क्रम-क्रम से जाकर दोनों स्थान देखे। भोगी लाल के पास धन सम्पत्ति तो बहुत थी। उसका वह मनमाना उपभोग भी करता था। पर अपनी भोगवृत्ति के कारण उसने अपना स्वास्थ्य चौपट कर लिया था। घर पर लड़कों में दिन भर कलह मची रहती। ‘कर’ को लेकर आए दिन राजकीय कर्मचारी उसे सताते रहते। बेचारा तीन रोटी खाता और मुश्किल से तीन घंटे सो पाता। सारा जीवन आतंक, भय, चिन्ता, निराशा और व्याधियों से ग्रस्त।

उधर उद्योगी लाल के पास जाकर देखा तो उनका कारोबार खूब फैल रहा था। घर का हर सदस्य श्रम के प्रति एकनिष्ठ भाव से समर्पित था। यहाँ पारस्परिक सद्भाव, प्रेम, सहकार की छटा देखते ही बनती थी। घर के सभी सदस्य खूब स्वस्थ प्रसन्न दिखे।

वापस लौट कर अनुराग ने देवी से कहा-भगवती! अब मुझे धन नहीं चाहिए। सारा मर्म समझ लिया। धन का यथार्थ लाभ भोग में नहीं उसका सदुपयोग करने में है। धन का सदुपयोग वही कर सकता है जो नीति और परिश्रम पूर्वक अपनी कमाई आप करता है। इसलिए अब मुझे वरदान का धन नहीं चाहिए आवश्यकतानुसार आप पैदा कर लूँगा।


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