अपनों से अपनी बात- - प्रज्ञावतार के लीला संदोह में भागीदारी का अब यह अंतिम अवसर

August 1995

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भगवान की बनायी इस सृष्टि की सुव्यवस्था, सौंदर्य एवं कलाकारिता वस्तुतः देखने योग्य है। सृष्टि क्रम में पतन और उत्थान के, ध्वंस व सृजन के दोनों ही पक्ष दिखाई देते हुए भी यहाँ सृजन व उत्थान प्रमुख हैं। ऋतुओं के प्रभाव पशु-पक्षी कृमि-कीटकों की अपनी नष्ट करने की प्रक्रिया चलती रहने के बावजूद यहाँ एक सत्य अटल है कि इसके बाद पुष्पों की शोभा, फल-संपदा न हरीतिमा का वैभव दिखाई पड़ेगा व वह अधिक समय तक रहेगा। उत्पादन का क्रम चलता रहे, इसके लिए अनिवार्य है कि दोनों ही क्रम-नष्ट होने व बनने के यथाविधि सतत् चलते रहें। सूर्य का उदय, अस्त होना, प्राणियों को जन्म लेना व फिर मृत्यु को प्राप्त होना इन तथ्यों की साक्षी देते है।

प्रगति क्रम के इस इतिहास को देखते हुए जिसमें पतन और पराभव के तत्व भी अपना काम करते हैं तथा उत्थान व ऊर्ध्वगामी की प्रक्रियाएँ भी साथ चलती रहती हैं, मनुष्य को कभी कोई परिस्थिति विशेष को देखकर कभी निराश नहीं होना चाहिए। पहिए नीचे जाते व फिर ऊपर उठते हैं। अभी जन्म लिया शिशु क्रमशः शैशव, किशोर्य, यौवन पूर्ण कर जरा को प्राप्त कर मरण को प्राप्त होगा किंतु उसी दिन से नवजीवन की भूमिका भी आरम्भ हो जाती है। निराशा की सघन अँधियारा रात्रि को प्रत्यक्ष देखते हुए भी ऊषा की लालिमा द्वारा नवीन अरुणोदय को उपलब्ध हो सकता है

विश्व के इतिहास में संकट की घड़ियाँ अनेकानेक बार आई हैं, जब लगा है कि कहीं सर्वनाश तो होकर नहीं रहेगा। किंतु स्रष्टा का हर समय आश्वासन रहा है। कि अपनी इस अद्भुत कलाकृति को विश्व वसुन्धरा व श्रेष्ठतम संरचना मानवी सत्ता को वह कभी नष्ट नहीं होने देगा। परिस्थितियों को उलटकर स्रष्टा द्वारा चमत्कार दिखाना ही अवतार की प्रकटीकरण क्रिया कहलाती है। कुछ ऐसा ही इन दिनों भी होने जा रही है जब हम चारों ओर निराशा भरी परिस्थितियाँ देखते व अनैतिकता, पतन-पराभव के उपक्रम को बढ़ते देखकर अपनी आस्था को क्रमशः ईश्वर पर डगमगाते पाते है। आज का समय असामान्य स्तर की विपन्नता का समय है। ऐसे में हर प्रज्ञावान को विश्वास रखना चाहिए कि अगले 5-10 वर्षों में जो कुछ होने जा रहा है, वह असाधारण है।

इन दिनों जन जीवन में सृजन की चेतना को उच्चस्तरीय बनाये रखने के लिए धर्मतंत्र अध्यात्म तत्त्वदर्शन पर एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ गयी हैं। वह है भावनात्मक पृष्ठ भूमि खड़ी कर जन श्रद्धा का सृजनात्मक सुनियोजन। अकर्मण्यता की स्थिति से निकल कर आस्तिकता का घर-घर बीजारोपण। प्रखरता भरा पराक्रम दिखाकर निकृष्टता को निरस्त करने के निमित्त अपने शौर्य साहस का परिचय देना। यह एक जाना माना तथ्य है कि सृजन के तत्व जब भी दुर्बल पड़ेंगे, आत्मिक क्षेत्र में अज्ञान और भौतिक क्षेत्र में दरिद्रता की विभीषिकाएँ जोर मानने लगेंगी, पूरा प्रयास करेंगी कि उनके इस उपक्रम से ध्वंस का संग्राम जुटने लगे। ऐसी ही परिस्थितियों में पतन से मोर्चा लेने वाली प्रखरता भी अपनी वरिष्ठता भुलाकर ललक लिप्सा वासना-तृष्णा के गर्त में गिरने लगती है। निकृष्टता को खुला क्षेत्र मिल जाता है अपनी विनाशलीला दिखाने के लिए। आज का समय कुछ ऐसा ही है जिसमें सृजन की शिथिलता और विनाश की स्वच्छन्दता का असंतुलित रूप ही साम्प्रदायिक विग्रह, जातिगत विद्वेष, भ्रष्ट आचरणों, गिरते नैतिक मूल्यों राज-तंत्र व समाज-तंत्र के अग्रणी नेता गणों के आदर्शों की दृष्टि से पतन, पारस्परिक संघर्षों एवं अंततः आस्था संकट की विभीषिका के रूप में दिखाई दे रहा है। देवतत्व के दुर्बल पड़ने और दैत्यों के स्वच्छन्द घुमाते रहने, सम्मान पाते दीखते पर यह असमंजस स्वाभाविक है कि अब इस धरित्री का क्या होगा?

हम सब बड़े सौभाग्यशाली है कि हम देवभूमि भारतवर्ष में जन्मे। यद्यपि हमने 1500 वर्षों से अधिक का अंधकार युग देखा है फिर भी हमारी साँस्कृतिक धरोहर अपने मूल बीज रूप में कहीं न कहीं मत्स्यावतार के सुरक्षित रखे गये बीज की तरह विद्यमान है, गायत्री और यज्ञ रूपी तत्त्वदर्शन की अमूल्य निधि एक पारस की तरह हमारे पास है और अभी भी हमने उम्मीद छोड़ी नहीं है। यह अच्छा चिन्ह है। जितने महापुरुष भारत भू पर विगत छह सौ वर्षों में कबीर के जन्म लेकर अपना संदेश फैलाने से लेकर अब तक जन्मे है।, उतने संभवतः पहले कभी भी एक समय, एक श्रृंखला में नहीं जन्मे। किन्हीं ने भक्ति की धारा बहाये, किन्हीं ने सुधारवादी आंदोलनों की, किन्हीं ने कर्मयोग द्वारा पुरुषार्थ परायणता की, किन्हीं ने पराक्रमी जीवनक्रम अपनाकर अपनी दीन दुर्बलता मिटाने की बात कहीं तथा कहीं ने एकाकी तप साधना कर सूक्ष्म जगत को प्रचण्ड ऊर्जा से अनुप्राणित करने की। परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम आचार्य इसी धारा में इस सदी के प्रथम दशक में भारत भूमि के उत्तर क्षेत्र में आगरा, जनपद के आँवलखेड़ा गाँव के जन्मे, एक साधारण किसान के पुत्र से महासाधक युगऋषि बनते हुए गायत्री की गंगा का अवतरण करने वाले भागीरथी पुरुषार्थ को सम्पन्न कर करोड़ों व्यक्तियों में आशा का संचार करने वाले एक प्रकाश पुँज करते चले गए। ऐसे ही महापुरुष की जन्मस्थली करोड़ों भारतवर्ष में तथा विश्वभर में निवास करने वाली आस्थावानों की प्रेरणा स्थली है। आगामी नवम्बर माह में होने वाली अनुष्ठान जो आस्था संवर्धन व अनीति से संघर्ष के निमित्त किया जा रहा है, प्रथम पूर्णाहुति तो है ही एक उद्घोषक है सबके समक्ष कि देवतत्व अब संगठित हो रहे है तथा असुरता से लड़ने को कटिबद्ध हो उठे है। यह इस तथ्य का भी परिचायक है कि जब-जब आस्था संकट की घड़ी में मनुष्य का पौरुष लड़खड़ाता है, वहाँ गिरने से पूर्व ही सृजेता के लम्बे हाथ असंतुलन में बदलने के लिए अपना चमत्कार प्रस्तुत करते इस रूप में दिखाई पड़ते है। यही है स्रष्टा का लीला अवतार प्रकटीकरण।

अवतारों की क्षमता और विशिष्टता का मूल्याँकन उनकी कलाओं के मापदण्ड से आँका जाता है। परशुराम जी तीन कला के रामचन्द्रजी बारह कला के श्रीकृष्ण सोलह कला के तथा बुद्ध बीस कलाओं के अवतार थे। पूर्णकलाएँ चौंसठ मानी जाती है। अपने युग का दसवाँ अवतार निष्कलंक प्रज्ञावतार है जो गायत्री के चौबीस अक्षर चौबीस कलाओं के रूप में प्रकट हो सतयुग वापस लाने की तैयारी करता दिखाई दे रहा है। गायत्री, महाशक्ति जो लुप्तप्राय सी हो गयी थी, सम्भवतः कट्टरवादी के कारण मात्र पुरुषों, वह भी ब्राह्मण वर्ण तक सीमित होकर रह जाती, युग ऋषि पूज्यवर गुरुदेव के सत्पुरुषार्थ से घर-घर पहुँच गयी। करोड़ों व्यक्ति अब गायत्री उपासना में निरत हो सच्चिन्तन करते दिखाई देते है। यही गायत्री महाशक्ति निराकार रूप में लोगों के चिंतन को मनःस्थिति को परिष्कृत कर उन्हें आमूलचूल बदलने के लिए धरती पर अवतरित हुई है व ज्ञान गंगा को इस तरह लाने का भागीरथी पुरुषार्थ करने का श्रेय जाता है उस सत्ता को जिसने आँवलखेड़ा गाँव में जन्म लेकर लघु से विराट बन एक विश्वव्यापी गायत्री परिवार की स्थापना कर डाली, लाखों सद्गृहस्थ पैदा कर दिए व संस्कारों के बीजारोपण की प्रक्रिया आरम्भ करवा दी।

गायत्री के चौबीस अक्षरों में से प्रत्येक को एक कला-किरण माना जा सकता हैं इन दिव्य धाराओं में बीज रूप में वह सब कुछ विद्यमान है जो मानवी गरिमा को स्थिर एवं समुन्नत बनाने के लिए अनिवार्य है। सूर्य जो गायत्री का देवता है, के सप्त मुख, सप्त अश्व, सप्त आयुध, सप्त रश्मियाँ प्रसिद्ध हैं परन्तु सविता की प्राणशक्ति गायत्री की शक्ति धाराएँ इससे अधिक है। गायत्री के चौबीस अक्षरों में साधनाएँ सिद्धियाँ और व्यक्तित्व परक ऋद्धियाँ अनेकानेक है। उनका वर्गीकरण चौबीस भागों में करने से विस्तार को समझने में सुविधा होती है। अन्तरंग के परिष्कार और साधन सुविधाओं के विस्तार यह दोनों ही तथ्य मिलने पर मनुष्य में देवत्व के उदय और समाज में स्वर्णिम परिस्थितियों के विस्तार की संभावनाएँ प्रशस्त होने लगती है। प्रज्ञावतार का कार्य क्षेत्र यहीं है। वह व्यक्ति नहीं शक्ति नहीं शक्ति के रूप में प्रकट होने जा रहा है। जिस व्यक्ति में इस प्रज्ञा तत्व की मात्रा जितनी अधिक प्रकट होगी, उसकी गिनती युग सृजेताओं की अवतार के लीला सहचरों में हो सकेगी।

निराकार सत्ता कैसे युगपरिवर्तन का सरंजाम जुटाती है, इसे जन समुदाय आने वाले दिनों में युगसंधि महापुरश्चरण की प्रथम पूर्णाहुति के रूप में प्रत्यक्ष देख सकेगा। यह निराकार चेतन सत्ता का ही चमत्कार है कि आज के आस्था संकट की इस वेला में लाखों व्यक्ति अपना संस्कारों की दृष्टि से गया-गुजरा अशक्ति -उद्विग्नता लौकिक आकर्षणों प्रलोभनों से भरा जीवन क्रम छोड़कर सच्चिन्तन के प्रवाह में जुड़ने चले आ रहे है। पच्चीस अश्वमेध इसके प्रमाण है। लाखों व्यक्तियों की दुष्प्रवृत्तियाँ छूट गयी। दुर्व्यसनों को त्यागकर देवत्व से जुड़ने को प्रायः छह से दस करोड़ व्यक्ति संकल्पित होते चले गए। श्रेष्ठ संकल्प लेते हुए उनमें अपना जीवन क्रम बदलकर संस्कारों को अपने जीवन में स्थान देना आज का युग धर्म माना और यही सतयुग की आधार शिला बनता चला जा रहा है। कोई विश्वास करे न करें, किंतु जब आगामी दश वर्षों में हुए ऐतिहासिक परिवर्तनों का इतिहास लिखा जाएगा तब सबको वास्तविकता समझ में आएगी कि अभी जो कुछ लिखा जा रहा हैं, उसके पीछे चेतना का कौन-सा प्रवाह कार्य कर रहा था।

आँवलखेड़ा की पूर्णाहुति मात्र 1259 कुण्डों के माध्यम से सम्पन्न होने वाला एक महायज्ञ अश्वमेध स्तर का प्रयोग मात्र नहीं है। इसका स्वरूप-प्रयोजन व लक्ष्य अत्यन्त विशिष्ट व स्पष्ट है। यह देव भूमि भारतवर्ष की, इस राष्ट्र की कुण्डलिनी महाशक्ति के जागरण, मनुष्य में देवत्व के अभ्युदय और धरती में स्वर्ग के अवतरण का ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान है। इसके अभूतपूर्व पुण्यफल हर स्थिति में सुनिश्चित समझे जाने चाहिए। सारे राष्ट्र के कोने-कोने से गायत्री साधकों द्वारा वहाँ किये जा रहे अखण्ड जप के क्या परिणाम होंगे, राष्ट्र भर में इस पूर्णाहुति की सफलता के निमित्त की जा रही अनवरत साधना-मंत्रलेखन-संस्कार संवर्धन की प्रतिक्रिया क्या होगी इसे स्थूल नेत्रों व तर्क बुद्धि से नहीं देखा व समझा जा सकता। इसे तो ऋषि रक्त के संचय व देव शक्तियों के सम्मिलन से उपजने वाली महाकाली के जन्म लेने की प्रक्रिया माना जाना चाहिए जो चेतना के स्तर पर सूक्ष्म जगत में छाए प्रदूषण को मिटाकर वह कार्य सम्पन्न करेगी जो कभी रक्त बीजों को शुम्भ निशुम्भ, मधु-कैटभ जैसे दैत्यों महाराक्षसों के विनाश के लिए उसने संपादित किया था। दुर्गावतरण सामूहिक धर्मानुष्ठान व विशिष्ट तान्त्रिक स्तर के उपचार की प्रक्रिया से ही होता है। वही अब नवम्बर 15 से होने जा रहा है व सतत् विस्तार लेते-लेते पूरी विश्ववसुधा को अपनी परिधि में ले लेगा।

राष्ट्र के नवनिर्माण का आधार किस तरह धर्म प्रधान होगा, संस्कारों के द्वारा घर-घर के वातावरण को कैसे स्वर्ग मय बनाया जाएगा, नारी शक्ति जो वर्षों से पददलित रही है। कैसे उठकर आगे आएगी एवं आधी जनशक्ति को भावसंवेदना का समुच्चय है, को उबार कर साँस्कृतिक नवोन्मेष का आधार खड़ा करेंगी, उसकी झाँकी प्रस्तुत पूर्णाहुति के माध्यम से देखी जा सकेगी। प्रजातंत्र के रक्षकों को उनके दायित्वों का बोध करा उन्हें ग्रामीण प्रधान इस देश को आर्थिक सामाजिक साँस्कृतिक उन्नति की दिशा में आगे बढ़ाने का मार्गदर्शन यह महाअनुष्ठान देगा। प्रवासी भारतीयों से लेकर समाज में सोई पड़ी प्रसुप्त प्रतिभा को बुद्धिजीवी समुदाय को झकझोरने तथा राष्ट्र के निर्माण के निमित्त जुट पड़ने का आह्वान ही नहीं वलात् उस दिशा में ले जाने का कार्य इस विराट पूर्णाहुति के द्वारा सम्भव होगा। आज इण्टर नेट इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने सारे विश्व को एक “ग्लोबस अम्ब्रेला” (विराट ब्रह्माण्डीय छाते ) के नीचे लाकर खड़ा कर दिया है। वह सृजनात्मक भूमिका निभा कर कैसे लोकनायक से लोकमंगल की भूमिका अदा कर सकता है इसका मार्गदर्शन भी यहीं से होगा। प्रतिभा सम्पन्न हीरकों की पूज्यवर एवं शक्ति स्वरूपा माताजी के आदर्शों लक्ष्यों के निमित्त मर खपने वाले लाखों समयदानी कार्यकर्ताओं की भेंट महाकाल के युगदेवता के चरणों में इसी अनुष्ठान के द्वारा चढ़ायी जाएगी परिणाम सोचे जा सकते है कैसे अद्भुत होंगे। हर किसी को विश्वास करना चाहिए। कि स्रष्टा का आश्वासन कभी अधूरा न रहा है, न रहेगा। उसे तो अपना कार्य करना ही हैं, हम स्वयं को उस धारा में न जुड़ा पाते हों वे ढेरों की जिन्दगी ही जीना चाहते हों तो बात अलग है। जो समझदार है, वे दूर आने वाली अवतारी सत्ता को आँधी देख रहे हैं व अपना तन, मन, धन समय का हर क्षण उसके लिए अर्पित कर रहे है। यदि यह समझदारी, दूरदर्शी विवेकशीलता अभी से बिना अवसर चूके हृदयंगम की जा सके तो आज से कुछ वर्षों बाद आ रहे सतयुग रूपी भवन की आधारशिला का एक नींव पत्थर बनकर स्वयं पर गर्व किया जा सकता है।


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