देखते-देखते वे धरती के गर्भ में विलुप्त हो गए

August 1995

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प्रकृति को सृष्टि की संचालिका के रूप में मान्यता मिली हुई है मानव भी सृष्टि का एक अंग है, अतः वह भी इस व्यवस्था के अधीन है। उसके जीवन में भले-बुरे जो भी प्रसंग उपस्थित होते है, उन्हें अकस्मात् या अकारण कह कर नहीं टाला जा सकता। वह क्रिया की सुनिश्चित और स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। भले ही हमारी बुद्धि इन दोनों के बीच कोई तारतम्य बिठाने में असफल रहे,

ऐसी ही एक घटना ब्रिस्टल इंग्लैण्ड की है 9 दिसम्बर 1873 की सुबह जब एक गश्ती पुलिस पार्टी स्थानीय स्टेशन के निकट पहुँची, तो वहाँ एक दम्पत्ति को अत्यन्त भयभीत स्थिति में पाया। दोनों रात्रिकालीन पोशाक में थी। पति के हाथ में एक पिस्तौल थी और वह लगातार उससे गोली दाग रहा था। यह देखकर पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया। टामस बी. कम्पस्टन नामधारी वह व्यक्ति इतना आतंकित था कि थाने में भी मुश्किल से ही कुछ बोल सका। उसने बताया कि वह पति-पत्नी कल लीड्स शहर से यहाँ आये थे और पड़ोस के विक्टोरिया होटल में एक कमरा किराये पर लेकर ठहरे हुए थे। थके होने के कारण रात गहरी नींद आयी। अभी वे सो ही रहे थे कि एक विचित्र ध्वनि से उनकी नींद खुल गई। फर्श पर दृष्टि गई तो देखा कि वह एक ओर खिसक रहा है और उसमें एक विवर पैदा हो रहा है। उसकी असाधारण शक्ति से कम्पस्टन उसमें सामने लगे। बड़ी मुश्किल से उसकी पत्नी ने उसे उसके अन्दर खींचने से रोका। इस घटना से वे दोनों इतने डरे कि खिड़की से बाहर कूद पड़े और दौड़ते हुए स्टेशन पहुँचे। तब से वे यहीं बैठे दिन निकलने का इन्तजार कर रहे थे।

बाद में कम्पस्टन की पत्नी ने घटना को और विस्तार से बताया। उसका कहना था कि रात जब वे सोने की तैयारी कर रहे थे, तो एक अनोखी ध्वनि से चौंक उठे। होटल मैनेजर से इस सम्बन्ध में पूछताछ करने पर उसे सामान्य ध्वनि कहकर आश्वस्त कर दिया। लगभग 4 बजे प्रातः पुनः वहीं ध्वनि सुनाई पड़ी। वे दोनों उठ बैठे। फर्श हिलता प्रतीत हो रहा था। जब नीचे दृष्टि गई, तो उसमें एक छिद्र पैदा होता दिखाई पड़ा, जो धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा। डर से उनकी चीखें निकल गई। विवर अब तक काफी बड़ा हो चुका था और उसी अनुपात में उसकी आकर्षण शक्ति बढ़ गई थी। कम्पस्टन उस ओर खिंचने लगे और भीषण संघर्ष के बाद ही उसे बाहर निकाला जा सका।

होटल मैनेजर ने भी यह स्वीकार किया कि कुछ अजीबोगरीब आवाजें पिछली रात सुनाई पड़ी थी, पर इसके अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार की असामान्यता से उसने स्पष्ट इनकार किया। पुलिस ने जब उस कमरे की जाँच की, तो उसमें सब कुछ सामान्य नजर आया, पर कम्पस्टन दम्पत्ति बार-बार यही कहते पाये गये कि वे जो कुछ कह रहे हैं, वह शत-प्रतिशत सच है।

मिलती-जुलती घटना इंग्लैण्ड के ही शेफ्टन मैलेट शहर की है। ओवेन पारफिट एक भूतपूर्व सैनिक था। अवकाश ग्रहण के बाद वह पक्षाघात का शिकार हो गया। उसकी दोनों टाँगें बेकार हो गयीं। एक और दुर्भाग्य आया कि दायें हाथ को भी आँशिक लकवा लग गया। इस प्रकार वह दूसरे की सहायता के बिना एक इंच भी नहीं खिसक सकता था। उसकी देख-रेख उसकी बड़ी बहन एवं एक अन्य महिला करती थी। उन दोनों ने ऐसा नियम बना लिया था जब एक किसी काम से घर के अन्दर होती तो दूसरी उसके सामने मौजूद अवश्य रहती।

उस दिन सुसाना स्नूक नामक दूसरी स्त्री किसी कारणवश बाहर गयी हुई थी। ओवेन के समक्ष उसकी बहन बैठी थी। दोनों किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे, तभी एक गगनभेदी घोष सुनाई पड़ा। दोनों बुरी तरह डर गये। ओवेन तो इतना भयभीत हुआ कि देर तक सामान्य नहीं हो सका। जब कुछ ढाढ़स बँधा, तो पानी का इशारा किया। बहन जब जल लेकर वापस आयी, तो देखा कि ओवेन कुर्सी से बाहर एक ओर लुढ़का पड़ा है और मुँह से गों-गों की आवाज आ रही है। फर्श में दरार पड़ी हुई थी। उसने गिलास को एक ओर रखा और भाई को उठाना चाहा, पर समीप पहुँचने पर तीव्र खिचाव का अनुभव किया। वह तुरन्त दूर हट गई। दरार का फैलाव बढ़ता जा रहा था। ओवेन उसके तीव्रतर आकर्षण से शनैः-शनैः उस ओर घिसट रहा था। कुछ ही देर में उसके दोनों हाथ दरार में झूल गये। बहन भय से चीख उठी। चिल्लाहट सुनकर पास पड़ोस के लोक इकट्ठे होते और बचाने का कुछ उपाय सोचते, इससे पूर्व ही धरती उसे निगल चुकी थी। बहन सब कुछ असहाय बनी देखती रह गई। भीड़ जब जमा हुई, तब तक फर्श भी पहले जैसा जुड़ चुका था। और अब दरार का कोई निशान भी वहाँ शेष नहीं था।

एक अन्य घटना लिमिंगटन, इंग्लैंड की है। जेम्स वार्सन नामक एक मोची रहता था। वह बहुत मद्यपी था। जब शराब के नशे में होता, तो अपनी शारीरिक क्षमता का बहुत बढ़-चढ़ का बखान करता और अक्सर शक्ति -परीक्षण संबंधी अत्यन्त मूर्खतापूर्ण शर्तें रख देता।

एक दिन ऐसी ही हालत में उसने अपने एक मित्र से बाजी लगायी कि वह काँवेण्ट्री तक 40 मील की पूरी दौड़कर ही तय कर सकता है और फिर दौड़ते हुए ही वापिस भी लौट सकता है। शर्त के अनुसार दौड़ प्रारम्भ हुई उसके तीन मित्र गाड़ी पर पीछे-पीछे चल रहे थे। आरंभ की कुछ दूरी वार्सन ने बड़ी सरलता से तय कर ली। शरीर पर थकान के बिलकुल ही चिन्ह नहीं थे। वह बढ़ा जा रहा था। तभी अचानक वार्सन लड़खड़ाया गिरा, उसकी तेज चीख निकल गई, पर यह कहाँ अन्तर्धान हो गया। गाड़ी तुरन्त रोकी गई। तीनों मित्र उतरे, उस स्थान का निरीक्षण किया। वहाँ अब भी एक अत्यन्त छोटे व्यास का सुरंगनुमा छिद्र मौजूद था। उसमें निकट से आँख लगाकर देखा, कुछ दिखाई तो नहीं दिया, पर तीनों ने ही उसमें एक विचित्र प्रकार का खिचाव महसूस किया। उनके लिए सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि यदि वार्सन सचमुच ही पृथ्वी में समा गया था, तो उस जैसे डील-डौल वाले व्यक्ति का इतनी संकीर्ण सुरंग में प्रवेश कर जाना कैसे संभव हो सका? यह बात समझ में नहीं आ रही थी।

अवध नरेश भगवान श्री राम की धर्मपत्नी सीता माता का धरती में समा जाना भी ऐसी ही एक घटना ही तो है। लव-कुश से युद्ध के पश्चात् जब भगवान राम का परिचय अपने पुत्रों से आ, तो वे उन पर मुग्ध हुए बिना न रह सके। योग्य संतति का सारा श्रेय भगवान सीता को दे रहे थे। उधर सीता भी इस मिलन से मन-ही-मन हर्षित हो रही थीं कि “माँ। मैंने बहुत संताप झेले है। अब अपनी शरण में ले लो।” प्रार्थना स्वीकार कर ली गई। धरती फटी और धरती पुत्री धरती की गोद में समा गई।

रसिक सन्त जयदेव के जीवन से सम्बन्धित एक घटना है। एक बार उन्होंने अपने श्रद्धालु शिष्य के आग्रह पर उसके गाँव की यात्रा की। शिष्य अत्यन्त समृद्ध और उदार था। वह जानता था कि विदाई के समय वे किसी प्रकार का धन स्वीकार न करेंगे। उनका परम धन तो गोविन्द है। फिर पद्मावती के लिए कुछ स्वीकार कर ले। सन्त शिष्य की बात अस्वीकार न कर सके। एक गाड़ी में बहुत सारी सम्पदा रख दी गई। गाड़ीवान और जयदेव चल पड़े। चलते-चलते वे एक घने वन में पहुँच गये। वहाँ चोरों ने उनकी सम्पत्ति लूट ली और उनके हाथ-पाद्द काटकर एक कुएँ में डाल दिये। जयदेव इसे भगवान का मंगल विधान समझ कर वहीं कीर्तन करने लगे। उसी समय राजा लक्ष्मणसेन की सवारी वहाँ से गुजर रही थी। संकीर्तन ध्वनि सुनकर वे कुएँ के निकट आये और जयदेव को बाहर निकाला अपने साथ ले गये। उपचार से जल्द ही उनके घाव सूख गये।

थोड़े दिन पश्चात् राजप्रासाद में एक भोज का आयोजन हुआ। इसमें साधु और भक्तगण आमंत्रित थे। ऐसी ही एक मण्डली में साधु वेशधारी वे चोर भी थे, जिन्होंने जयदेव की दुर्गति की थी। सन्त ने पहली ही दृष्टि में उन्हें पहचान लिया। उनके धनाभाव से द्रवित होकर जयदेव ने उन्हें प्रचुर सम्पदा देने का राजा से निवेदन किया। अच्छी आवभगत के उपरान्त बहुत-सा वैभव देकर उन्हें विदा किया गया। जयदेव ने उनकी रक्षा के लिए कुछ कर्मचारियों भी साथ कर दिये। रास्ते में उन कर्मचारियों ने साधुदेव वाले उन ठगों से जयदेव के विशेष अनुग्रह का कारण जानना चाहा। उन्होंने कहा-जयदेव इससे पूर्व एक राजा के मंत्री थे। राजा ने उनके एक बड़े अपराध पर उन्हें प्राण दण्ड दिया था, पर हमारी कृपा से जीवित बच गये। हमने केवल उनके हाथ-पैर बाँध कर, मारपीट कर छोड़ दिया। जयदेव हमारे आभारी है, इसलिए उन्होंने विदा के समय हमें विपुल धनराशि दिलाई। ठगों का इतना कहना था कि पृथ्वी फट गयी और वे दोनों उसमें समा गये। राजा ने इस सम्पूर्ण प्रकरण का रहस्य जयदेव से जानना चाहा। उन्होंने बताया कि धरती माता को क्यों हस्तक्षेप करना पड़ा।

पाप जब बढ़ जाता है, तो प्रकृति यदा-कदा ऐसा ही दण्ड पापियों का देती और उनके अवांछनीय भार से पृथ्वी को मुक्त कराती है। अनेक प्रकरणों में यह तथ्य समझ में तो आता है, पर अगणित प्रसंगों में यह अनसुलझी पहेली-सा बना रहता है कि कर्ता के सर्वथा पापमुक्त जीवन में भी ऐसे मामले क्यों कर देखने को मिलते है, जिनमें वह धरित्री द्वारा निगल लिया गया हो अथवा निगलने का प्रयास किया गया हो? इसके पीछे कोई सूक्ष्म निमित्त होना ही चाहिए, जिसे हमारी बुद्धि अभी जान नहीं सकी है ओर न विज्ञान उसे पहचान सका है। इसके लिए हमें सूक्ष्म की भूमिका में जाना पड़ेगा, तभी सत्य-तथ्य की सही जानकारी मिल सकेगी और यह जाना जा सकेगा कि प्रकृति अनगढ़ नहीं है, यहाँ सब कुछ सुव्यवस्थित सुनियोजित एवं किसी क्रम के अधीन है।


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