सावधान! घोर वन, तीन हजार सत्रह फुट सत्तासी! सत्तासी! सत्तासी! ‘ हवाई जहाज की सूचना नालिका से आदेश मिला। एक खटका हुआ, एक झटका लगा और वह आकाश में पत्थर की भाँति नीचे गिर रहा था।
‘एक, दो, तीन, चार’ हाथ पैराशूट की रस्सी पकड़े हुए थे। यदि गिनने में तनिक भी गड़बड़ हुई शीघ्रता से या अधिक एक-एक कर गिना गया तो प्राण बचेंगे, इसका कोई ठिकाना नहीं। ‘पाँच, छः, सात, आठ’ वह सहज स्वाभाविक ढंग से गिन रहा था तीन हजार सत्रह, फुट ऊपर आकाश से फेंक दिये जाने पर भी मस्तिष्क व्यवस्थित रखकर ठीक-ठीक गिनता था। गिनने में विलम्ब हो तो धरती पर टकराकर हड्डियाँ चूर-चूर हो जाएँगी और जल्दी हो जाय-तो पैराशूट वायु के प्रवाह में कहाँ ले जाएगा, इसका क्या ठिकाना। नीचे चारों ओर शत्रु की छावनियाँ है। कोई पैराशूट से उनका स्वागत कैसे होगा-कोई भी समझ सकता है।
‘नौ, दस, ग्यारह.............मिनट जा रहा है वह।’ पिच्यासी, छियासी, सत्तासी, अीसरुत हाथ ने रस्सी खींच दी। एक अच्छा झटका लगा। पीठ पर गठरी के समान बँधा पैराशूट खुलकर आकाश में हंस के समान तैरता धीरे-धीरे उतरने लगा।
कृष्णपक्ष की त्रयोदशी की रात्रि है। वह जानता है कि उसे जहाँ गिराया गया है, वहाँ नीचे घोर वन है। यह प्रारब्ध पर ही निर्भर है कि पैराशूट उसे कहाँ पटकता है।
माँ! जगदम्बा! गिनती बन्द होते ही मन ही मन वह अपनी आराध्य मूर्ति का ध्यान और उनका स्मरण करने लगा। नीचे कुछ देखने का प्रयत्न उस घोर अन्धकार में व्यर्थ था। उसे मृत्यु का भय नहीं है। मृत्यु को तो उसने जान-बूझकर आमंत्रित किया है।
“माँ! मातृभूमि की, तुम्हारी पावन पीठ भारत धरा की थोड़ी-सी सेवा यह शिशु कर सके।” दयामयी ने जैसे उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। उसके पैरों का स्पर्श किसी वृक्ष की ऊपरी टहनी से हुआ। एक क्षण में पैरों की पकड़ में एक डाली आ गयी। उसने दोनों पैर डाल में लपेट दिया। शरीर की नस-नस उखड़ जाएगी, ऐसा उसे लगा और पैराशूट उलट गया।
पैराशूट को टहनियों की उलझन से अलग करके तह करने में दो मिनट लगे। पेड़ से नीचे उतर आया वह। चारों ओर घोर वन है, यह अनुमान करते ही उसने समझ लिया। उसके दूसरे चार साथी भी कहीं आस-पास उतरे हो सकते है। तनिक झुटपुट हो जाए तो निश्चय करे कि किधर जाना चाहिए।
सैनिक जब युद्ध क्षेत्र में होता है- उसका प्रत्येक क्षण बहुमूल्य होता है और जब कोई सैनिक पैराशूट से शत्रु प्रदेश में बतार दिया जाता है- उसका प्रत्येक क्षण कितनी सावधानी से काम में लिया गया, इसी पर उसका जीवन र्नीर करता है। प्रातःकाल होने से पहले उसे बहुत कुछ कर लेना था। बिना आधे क्षण रुके वह अपने काम में लग गया। पैर के पास ही कमर से छेरा निकालकर उसने गड्ढा खोदना प्रारम्भ किया। पैराशूट छिपा देना चाहिए और अग्नि जलाई नहीं जा सकती। उससे तो आस-पास के लोग चौकेंगे। बड़ी सावधानी से पैराशूट को उसने मिट्टी में दबाया। बूटों से मिट्टी कुचलकर उस पर थोड़े सूखे पत्ते समेटकर डाल दिए, जिससे उधर से कोई निकले तो नयी खोदी मिट्टी देखने से उसे संदेह न हो।
इतने सबके बावजूद संयोग और नियति को व्यूह रचना ने उसे अंग्रेजों के खेमें के पास पहुँचा ही दिया। अब वह अंग्रेज अफसरों के सामने खड़ा था।
तुम बंगाली हो? उस पर से एक सवाल गुजरा।
बंगाली तो मैं पीछे हूद्द, पहले भारतवासी हूँ।
‘कहाँ घर है तुम्हारा!’ उस धूर्त सैनिक अफसर ने बंगला बोलना प्रारम्भ कर दिया। अंग्रेज होते हुए भी बंगाल में रहकर उसने बंगला सीख ली थी। ‘हम तुम्हारे घर, तुम्हारे स्वस्थ और सुरक्षित होने का समाचार भेज देंगे।
‘मेरा घर है महाकाली के चरणों में।’ वह सुनकर हँस पड़ा। वहाँ रुपये नहीं, मस्तक भेंट किए जाते है।
‘तुम घर का पता न देना चाहों तो कोई बात नहीं।’ अफसर ने पूरी कूटनीति की परीक्षा करने का निर्णय कर लिया था। तुम्हें सेना में ले लिया जाएगा। कैप्टन बनाया जाय-यह मैं लिख दूँगा। और प्रयत्न करूँगा कि चार महीने की छुट्टी देकर घर जाने की सुविधा दी जाय तुम्हें।
‘मैं। सेना में हूँ। अवकाश लेने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। ‘ उसने गम्भीरता से कहा।
‘यह तो मैंने तुम्हारी सुविधा की दृष्टि से कहा था।’ अफसर ने जान-बूझकर उसकी बात का उल्टा अर्थ लिया-तुम अगले मोर्चों पर रहना चाहोगे तो बड़ी प्रसन्नता से रह सकोगे।
लेकिन भारत को पराधीन रखने वालों का विनाश करने के लिए मैं सैनिक बना हूँ। उसने अपने स्वर को अब कठोर कर लिया उनकी दासता करना स्वीकार होता तो मातृभूमि से बाहर भटकता न फिरता।
‘अभी तुम युवक हो। जापानियों ने तुम्हें भटका दिया है। अफसर शान्त बना रहा-कदाचित् तुम नहीं जानते कि अंग्रेजों ने भारत को स्वराज्य देना निश्चित कर लिया है और उसके लिए योजनाएँ बनायी जा रही है। ‘
‘बहुत खूब!’ उसने हँस कर व्यंग किया-बड़े दयालु है आप लोग!
‘अभी तुम परिस्थिति से परिचित नहीं हो।’ अफसर को बुरा लगा, पर शान्त ही रहा वह कुछ दिनों में ही तुम्हें सब बातों का पता लग जाएगा। अभी तो तुम इतना करो कि मैं जो पूछता हूँ उसे ठीक-ठीक बता दो। केवल जापानियों के सम्बन्ध में तुम्हें बतलाना है। अपने देश की सेवा ही करोगे इससे तुम।
मैंने आपको स्पष्ट बता दिया है कि मैं कुछ नहीं बताऊँगा। उसने चौथी बार कहा-
‘तुम जानते हो कि क्या परिणाम होगा?’ अफसर ने भी रुख बदल दिया-तुम शत्रु के जासूस हो युद्धबंदी बनाने का तुम्हारे लिए प्रश्न ही नहीं उठता। एक बार और सोच लो। सेना मैं कैप्टन हो कते हो और घर जा सकते हो पर वैसे तुम्हारे तीन साथी और पकड़े गए है।। उन्होंने वह सब बता दिया है, जो वे जानते है। तुम उनके नायक हो, उनसे कुछ अधिक बता सकते हो, उनकी बतायी बातें तुमसे फुट हो जाय इतना ही हम चाहते है। तुम कुछ भी न कहोगे, तो भी हमारी कुछ भी हानि नहीं होनी है। “
तीन साथी और पकड़े गए है। उन्होंने सब कुछ बता दिया है।’ उसने मस्तक झुकाकर सोचा।इसका केवल यह अर्थ है कि कोई ऐसा एक भी साथी पकड़ा नहीं गया है। किसी ने कुछ बताया नहीं है। यह धूर्त केवल धोखा देना चाहता है। भेदनीति से।
‘तुम सोचना चाहो तो मैं आधे घण्टे पीछे आ सकता हूँ।’ अफसर ने कहा-
मैं सोच चुका हूँ जो कुछ कहना था, वह कह चुका हूँ। ‘वह स्थिर रहा परिणाम नहीं सोचा तुमने। अफसर ने चेतावनी दी।
‘तुमसे अधिक मैं जानता हूँ।’ उसने उपेक्षा से कहा-मैं महाकाली का पुत्र हूँ। मेरा परिणाम तुम्हारे हाथ में नहीं, मेरी दयामयी माँ के हाथ में है।
‘आज शाम को ही तुम्हें गोली से उड़ा दिया जाएगा।’ अफसर मुड़ा-मैं एक आर और आऊँगा।’ जवाब में वह मुस्करा दिया।
उन दिनों जापान की सेनाएँ बर्मा में बढ़ती जा रहीं थीं। बार-बार अंग्रेजी सेना को बड़ी वीरता के साथ पीछे हटने को विवश होना पड़ता था। टोकियो में श्री रासबिहारी बोस के यहाँ भारतीय देशभक्तों की बैठकें प्रायः नित्य होती थीं। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस उस समय बर्लिन में थे। उन्हें बर्मा लाना है। यह योजना कुछ गिने चुने उच्च अधिकारियों तक सीमित थी।
बर्मा में पर्याप्त भारतीय थे। वे अपनी मातृभूमि को स्वतन्त्रता के लिए किसी से कम उत्सुक नहीं थे। लेकिन अंग्रेजों के प्रचार ने बहुतों को भ्रांत कर दिया था। वे जापान के प्रति संदिग्ध हो गए थे। साथ ही उन्हें प्रोत्साहित एवं संगठित करने के सूत्र भी वहाँ नहीं थे। कुछ जापानी अधिकारियों और रासबिहारी बोस में पहले ही यह मन्त्रणा हो चुकी थी।
परिणाम का कुछ पता नहीं है मातृभूमि के लिए मस्तक देना है। बिना किसी भूमिका और आश्वासन के स्पष्ट स्थिति जापान स्थित भारतीय देशभक्तों के आगे स्पष्ट कर दी गयी। ‘देश के निमित्त प्राण देने वाला धन्य है। ‘जापान में रहकर देश के लिए आत्मबलि की जागृत भावना का नित्य आदर्श देखा जा सकता था। भारतीयों के रक्त में त्याग का स्रोत निहित है। जापानी बलिदानी वीरों ने उ प्रदीप्त कर दिया था। सभी भारतीय युवकों एवं तरुणों ने अपने रक्त से हस्ताक्षर किए प्रतिज्ञा पत्र पर।
कुछ उपयुक्त व्यक्ति चुन लिए गए सामान्य सैनिक शिक्षा तो सबके लिए आवश्यक थी। किन्तु कुछ लोगों को पैराशूट से नीचे उतरना सिखला गया। उन्हें सब आवश्यक बातें बतला दी गयी। केवल आवश्यक बातें बतला दी गयी। केवल सप्ताह की शिक्षा-अधिक के लिए अवकाश ही नहीं था। एक जापानी हवाई जहाज पाँच भारतीय तरुणों को एक रात्रि बर्मा वनभूमि पर आकाश से उतार गया।
पास में नक्शे नहीं थे। कहाँ कौन-सी बस्तियाँ है, किन बस्तियों में है, किन बस्तियों में जाना चाहिए, किन स्थानों एवं बस्तियों में सावधान रहना चाहिए यह सब बतला दिया गया था। टोकियो में सोचा यही गया था कि पाँच में से एक भी बच सका तो सफल समझना चाहिए इस प्रयत्न को। सचमुच केवल एक शत्रु की आँख से बच सका। चार पकड़ लिए गए।
पैराशूट ठीक बिन्दु पर किसी को गिरा सकें, यह सम्भव नहीं है। मील-इधर-उधर हो जाना साधारण बात है। अपरिचित भूमि में-वन में कोई कहीं तक रटे हुए नक्शों के आधार पर मार्ग पा सकता है। इधर-उधर भटकना पड़ा। सावधान शत्रु के जासूसों ने देख लिया। पकड़ लिए गए चार देशभक्त भारतीय सूर्योदय होने के कुछ देर के भीतर।
वन्दे मातरम्। चारों अलग-अलग रखे गये। उन्हें प्रलोभन दिए गए, धमकाया गया और जहाँ तक बना यातनाएँ दी गयी। चारों ही अडिग थे। जापानी सेना बड़ी बा रही थी अंग्रेजी सेना के सेनापति ने वीरता पूर्वक हट जाने में कुशल समझ ली। प्रातः पकड़े गण् चारों भारतीय एक छोटे मैदान में एकत्र किए गए दण्ड देने के लिए। उन्होंने हवाई जहाज से गिराये जाने के बाद पहले-पहले एक दूसरे को देखा। जय ध्वनि को उन्होंने।
महाकाली की जय! उसने यह दूसरी जय ध्वनि भी की। उसने का-मित्रो! यह नाटक बहुत देर नहीं चलेगा। डरने की कोई बात नहीं।
‘हम मृत्यु से नहीं डरा करते। हमारे ऋषियों ने कहा है-जीवन शाश्वत है।’ दूसरे तरुण ने कहा-शरीर तो मिट्टी हमें दी उसी की सेवा में विसर्जित करने का अवसर तो मिला।’
अभी वह अवसर नहीं आया। उसकी इस बात को कोई समझ नहीं सका। उन सभी को आश्चर्य था-उन्हें अफसर के सुख से निकले केवल एक शब्द की प्रतीक्षा। चार भारतीय जिनके हाथ हथकड़ियों से पीछे जकड़े थे, उनके सामने खड़े थे। बड़ा आश्चर्य हो रहा था उन सैनिकों को मृत्यु की उस अन्तिम घड़ी में भी ये परिहास करने वाले-कैसे है ये लोग?
‘वन्दे मातरम्।’ एक तरुण ने कहा।
‘महाकाली की जय!’ पहले जयनाद के बाद उसने अकेले जयनाद किया। माता जन्मभूमि की वन्दना और उसकी सेवा के लिए तो अभी पूरा जीवन पड़ा है। यह अवसर तो महाकाली की मनोहर क्रीड़ा देखने की है।
‘क्रूर उत्पीड़न ने इसे उन्मत्त कर दिया है।’ साथियों के नूत्र सहानुभूति से भर आए।
इतने अंग्रेज अफसर ने आदेश दिया- ‘फाय’ ..........’ लेकिन शब्द पूरा हो सके इससे पहले एक, दो चार-लगातार धमाके होते चले गए। धुएँ से दिशाएँ भर गयी। सैनिकों ने बन्दूकों का उपयोग किया भी हो तो उन धमाकों में कुछ पता नहीं लगा। जंगल में यह अनुमान लगाना कठिन था कि शत्रु कहाँ है, कितना बड़ा दल है, धमाके होते ही जा रहे थे।
‘वन्दे मातरम्।’ मैदान में खडत्रे किसी कन्ठ ने पुकारा।
‘वन्दे-मातरम्।’ मैदान में खड़े चारों बन्दियों ने उत्तर दिया।
देखते-देखते स्थिति बदल गई। अंग्रेज अफसर और हब्शी सैनिकों के शरीर छिन्न-भिन्न हुए पड़े थे। अंग्रेजी सेना जारियों में बड़ी उतावली से पीछे हट जाने के लिए तंबू, शस्त्रागार के शस्त्र करने का उसके पास अवकाश नहीं था।
माँ! माँ! दयामयी माँ!आज एकान्त पाते ही वह रो पड़ा वैसे एकान्त पाते ही वहां माँ माँ पुकारकर रो लिया करता था। और जब मृत्यु के भयंकर पंजे प्रत्यक्ष से दीखते थे-वह र्नीय रहता। अनेक बार लोगों को भ्रम हुआ करता था कि वह पागल है।
उसे तो उस दिन भी हताश होते हुए नहीं देखा गया, जब नेताजी जापान लौट रहे थे। आजाद हिन्द सेना के वीर रो रहे थे और वह चुपचाप खड़ा था। उसने केवल इतना कहा-मैं स्वदेश जाऊँगा।’
अकेले? किसी ने मना नहीं किया। मना करने का कुछ अर्थ भी नहीं था। प्रारब्ध ने सारे प्रयत्न को कुचलकर धर दिया था। जापान हथियार डाल चुका था-अब तो भाग्य के विधान के सम्मुख मस्तक झुकाना था। उसे अनुमति मिल गई थी। एक साथी ने पूछा भी बड़े खेद से-इस प्रकार मरने की अपेक्षा हम सबके साथ भाग्य की प्रतीक्षा करना अच्छा नहीं।
मुझे मारेगा कौन? उसे भय का कारण नहीं जान पड़ता था। यों वह इस बात से अनजान नहीं था कि मार्ग बहुत लम्बा है। वन हिंस्र पशुओं और उनसे भी हिंस्र नरीक्षी जातियों से भरा है। अंग्रेजी सेना ने सब पगडण्डियाँ घेर रखी है। लेकिन उसकी आस्था यह सब देखने नहीं देती। महाकाली के पुत्र को मारने के लिए हाथ उठाने वाला मरे बिना रह नहीं सकता।
महाकाली की जय। पैरों में छाले पड़ गए थे। वस्त्र चिथड़े हो गये थे। दाढ़ी और नाखून बढ़ गए थे। वन पशु तो उसके मित्र थे नरभक्षी लोगों ने उसका आखेट करने के बदले उसे फल-कन्द खिलाए। कोई विश्वास करे या न करें, लेकिन पता नहीं क्यों नरभक्षी लोगों ने उसे देखते ही साधु समझ लिया था। उसकी सेवा उन लोगों के लिए पुण्य बन गयी थी।
तू मुझे जाने देगा या मारेगा। सैनिक प्रहारियों से सीधा सवाल करता था वह।
अबे जा। एक नि’शस्त्र फटेहाल भिखारी किसी सैनिक से इस प्रकार तो सैनिक उसे पागल न समझे तो समझे क्या? गोली तो दूर, उसे गाली भी किसी ने नहीं दी।
कलकत्ते पहुँचकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। काली मन्दिर के पुजारी के लिए उस दिन उसकी भक्ति एक समस्या हो गयी। लेकिन उसे हटाने या रोकने का किसी में साहस नहीं हुआ। आद्याशक्ति पर अपनी अडिग आस्था के बलबूते सभी चुनौतियों को चुनौती देने वाले आजाद हिन्द फौज के कैप्टन अनिल विश्वास बाद के दिनों में स्वामी जगदम्बानन्द के नाम से प्रख्यात हुए। उनके ग्रन्थों में जहाँ एक ओर नेता जी के रोचक प्रसंग है वहीं भक्ति विश्वास और आस्था को जीवंत करने वाली रोमांचक घटनाएँ भी।