सूक्ष्म के जागरण की विधाः गायत्री साधना

August 1995

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आध्यात्मिक दौर भौतिक दोनों ही प्रकार की सूक्ष्म शक्तियों से गायत्री माता ओत-प्रोत है। आध्यात्मिक क्षेत्र में वह प्रधानतः ब्रह्मतेज के रूप में परिलक्षित में वह प्रधानतः परब्रह्म परमात्मा का प्रकट स्वरूप है। वह साधक को ब्रह्म निर्वाण पर तक सुविधा पूर्वक पहुँचाती है। देवी भागवत् पुराण में इस बात को स्पष्ट कर दिया गया है’

परब्रह्म स्वरूपा च निर्वाण पद दायिनी। ब्रह्म तेजोमयी शक्तिस्तधिष्ठातृ देवता॥

अर्थात् गायत्री परब्रह्म स्वरूप तथा निर्वाण पद देने वाली वह ब्रह्मतेज शक्ति की अधिष्ठात्री देवी है।

यह महाशक्ति सत्, रज, मत, इन तीनों गुणों से प्रभावित कर मनुष्य जीवन में ज्ञान, क्रिया और धन के रूप में प्रकट होती है। उपासक को ज्ञानवान, क्रियावान तथा धनवान् बना देती है।

इन तीनों शक्तियों का कोष इन चक्रों में भरा हुआ है, गायत्री महाशक्ति की साधना द्वारा वे सूक्ष्म चक्र भी जागृत होते है-

इच्छाशक्ति भूः कारः क्रिया शक्तिर्भुवस्तथा। स्वःकारः ज्ञाते शक्तिश्च, भुर्भुवः स्वः स्न रुपंक॥

भूले पद्मश्च भूर्लोकी विशुद्धं्च भुवस्थता। सुर लोकः सहस्रा गायत्री स्थान निर्णयः॥

भूः इच्छाशक्ति। भुवः क्रियाशक्ति। स्वः जनशक्ति। यह भूर्भुवः स्वः का रूप है। भूः मूलाधार चक्र-भूलोक स्वः सहस्रार चक्र-सुरलोक यही गायत्री का स्थान है।

मनुष्य के मेरुदण्ड में छः प्रधान चक्र है। इन चक्रों में जो शक्तियाँ और सिद्धियाँ भरी हुई है उन्हें प्राप्त करने के लिए गायत्री उपासना द्वारा ही इन छहों चक्रों पर अधिकार है। इस कुण्डलिनी को गायत्री का ही स्वरूप माना गया है। मनुष्य के अन्तः जगत को प्रकाशवान् बनाने वाले दस प्राण अवस्थित है। तथा जिनके कारण जिन सूक्ष्म दस महाविद्याओं का ज्ञान होता है वह सभी विज्ञान भी गायत्री पर निर्भर है।

कुण्डलिनी समुद्भूता गायत्री प्राण धारिणी। प्राण विद्या महाविद्या यस्य वेत्ति से वेदवित्॥

अर्थात् कुण्डलिनी के रूप में प्रकट होने वाली, चैतन्य प्राण को धारण करने वाली चैतन्य शक्ति गायत्री, यह गायत्री ही प्राण विद्या है, यही महाविद्या है, जो इस रहस्य को जानता है वही तत्त्वदर्शी है।

मूलादि ब्रह्यरंध्रान्ता गीयते मननाद्यतः। मनतात् त्रातिषट् चक्रं गायत्री गायत्री तेन कथ्यते॥

मूलाधार चक्र से लेकर ब्रह्मरंध्र पर्यन्त षट्चक्र जिसकी उपासना से खुल जाते है उसे गायत्री कहते है।

मानव शरीर अनेक स्थूल शक्तियों का भण्डार है, परन्तु उसका बाह्य जगत के व्यर्थ विचारों एवं कार्यों। में अपव्यय होता रहता है। उस अपव्यय को रोककर यदि उस वृत्तियाँ अन्तर्मुखी बना ली जाएँ और अन्तर जगत में ही काम करने लगें तो निश्चय ही प्रचण्ड प्राप्त कर सकता है।

अंतर्जगत का अत्यन्त विस्तृत विज्ञान है। वह दस विद्याओं के रूप में दस भागों में बँटा है। वैदिक वाङ्मय में इन विद्याओं का विस्तार से वर्णन है- (1) उद्गीथ विद्या (2) संवर्ण विद्या (3) मधु विद्या (4) पंचाग्नि विद्या (5) उपकौशल विद्या (6) शाँडिल्य विद्या (7) दहर विद्या (8) भूमा विद्या (9) मनध विद्या (10) दीर्घायुष्य विद्या। ये दस विद्यार्थियों ऋषियों की सम्पत्ति थी। इन सम्पत्तियों के द्वारा ही वे अपरिग्रही एवं साधनहीन होते हुए भी इस भूलोक में कुबेर भण्डारी बने हुए थे। जो कुछ देवताओं के पास है, उसे वे इसी मानव शरीर से इसी लोक में करतल गत कर लेते थे।

तन्त्र विज्ञान में भी दस विद्याएँ नामों से उपलब्ध है। यद्यपि आसुरी वाम मार्गी तंत्रिका विधान देव सम्प्रदाय के दक्षिण मार्गी वैदिक विधान से भिन्न है। फिर भी उसके द्वारा भी उन्हीं सिद्धियों को प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। तंत्र मार्ग में (1) इन्द्राणी (2) वैष्णवी (3) ब्रह्माणी (4) कौमारी (5) नारसिंही (6) वाराही (7) माहेश्वरी (8) भैरवी (9) चण्डी (10) आग्नेयी, इन दस नामों से दस महाविद्याओं की साधना की जाती है। इन महाविद्याओं का विस्तृत वर्णन इन पंक्तियों में संभव नहीं। यहाँ तो इतना ही जानना पर्याप्त होगा कि गायत्री के तीनों अक्षर एक प्रकार से आध्यात्मिक त्रिवेणी के समान है। जिस प्रकार गंगा, यमुना और सरस्वती के मिलन से तीर्थराज प्रयाग की भौतिक त्रिवेणी बनी है उसी प्रकार गायत्री के तीन अक्षरों से निहित इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की तीन महाधाराओं के मिलन से आध्यात्मिक त्रिवेणी बनती हैं प्रयाग की त्रिवेणी में खान करने का जो महाफल है उसका तो वर्णन ही हो सकना कठिन है। शास्त्रों में उल्लेख है कि-

इड़ा भोगवती पिंगला यमुना नदी इड़ा पिंगल योर्मऽध्ये सुषुम्प्रा स सरस्वती॥

इड़ा नाड़ी गंगा है, पिंगला यमुना है। इन दोनों के बीच में सुषुम्ना है वही सरस्वती है।

त्रिवेणी योगः सा प्रोक्ता तत्र स्रानं महाफलम्।

यह योग की त्रिवेणी है इसमें स्नान करने का महाफल होता है।

जो कुछ इस विशाल ब्रह्माण्ड में है वह सब इस शरीर रूपी पिण्ड में भी सूक्ष्म रूप से मौजूद है। जो वस्तु हमें बाहर से उपलब्ध होती है उन सबको साधना के द्वारा अन्तर जगत से भी प्राप्त का जा सकता है। बाहर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जो भीतर न हो। शिव संहिता में कहा गया है- कि ‘इस देह में मेरु सप्तद्वीप, सरिता, सागर, शैल, क्षेत्र, क्षेत्रपाल, ऋषि मुनि, नक्षत्र, ग्रह, पीठ, पीठदेवता, शिव, चन्द्र, सूर्य, आकाश, वायु, अग्नि जल, पृथ्वी, तीनों लोक सब प्राणी निवास करते है। जो ब्रह्माण्ड में है वही पिण्ड में है। इस रहस्य को जो जान लेता है वही योगी है।’

आध्यात्मिक साधनाओं द्वारा जो इन अन्तरंग शक्तियों पर अधिकार कर लेता है उसके लिए वे वैसी ही उपयोगी हो जाती है जैसी बिजली एटम, भाप आदि की शक्तियों पर अधिकार प्राप्त करके आज वैज्ञानिकों ने उन्हें मानव की सेवा में प्रयुक्त कर दिया हैं भौतिक जगत में जो शक्ति भौतिक क्षमता सम्पन्न दिखाई पड़ती है वहीं अंतर्जगत में आध्यात्मिक क्षमता के रूप में प्रकट होती है। गायत्री की आध्यात्मिक शक्ति साधक के सम्मुख सिद्धियों के रूप में सामने आती है। उसे हर क्षण लगता है कि अदृश्य लोक के कोई देव, दानव हर पल उसकी सेवा में उपस्थित रहते है और उसकी आज्ञा पालन करने के लिए हर क्षण तत्पर रहते है। यक्ष, राक्षस, गंधर्व, अप्सरा, किन्नर, आदि उसके वश में हो जाते है और उसकी सेवा में उपस्थित हो जाते है।

यहीं मातृ तत्व संसार में परमाणु शक्ति स्थूल, सूक्ष्म, प्राण, भाव आदि रूपों में काम कर रहा है। उसे अभिवादन करते हुए जगद्धात्री स्रात में उल्लेख है कि-परमाणु स्वरूप, द्विअणु रूपिणी, स्थूलातिस्थूल, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, प्राण, अपान, व्यान आदि रूपिणी, भावाभाव स्वरूपा जगद्धात्री आपको नमस्कार है।

यह भौतिक शक्ति गायत्री 24 अक्षरों के अनुसार 24 प्रकार की है। हमारे प्राचीन वैज्ञानिक ऋषियों की भाषा में इन्हें 24 मातृका कहा गया है। इनके नाम इस प्रकार है- (1) चन्द्रमेश्वरी (2) अजितबाला (3) दुहरतारि (4) नालिका (5) महाकाली (6) श्यामा (7) शान्ता (8) ज्वाला (9) तारिका (10) अशोका (11) श्रीवत्सा (12) चण्डी (13) विजया (14) अकुशा (15) पन्नगा (16) निर्वाणी (17) बला (18) घारिणी (19) धरणप्रिया (20) नरदत्ता (21) गान्धारी (22) अम्बिका (23) पद्मावती (24) सिद्धाियका। भौतिक विज्ञान के विज्ञानियों ने इनकी शोध अपने ढंग से की है। वे इस शक्ति को “एनर्जी ऑफ फोर्स” के नाम से पुकारते है। हीट पावर (ताप), इलेक्ट्रिकल एनर्जी, (ताकत), एनर्जी ऑफ स्टैस्टिमिटी (स्थिति), एनर्जी ऑफ ग्रवीटेशन (मध्याकर्षण ), एनर्जी ऑफ मोशन (गति), कॉइनेटिक एनर्जी (क्रिया) कॉस्मिक इलेक्ट्रिसिटी (विश्व विद्युत ) इन्टेलिजेन्स (ज्ञान ), सुपर फोर्स (उच्च शक्ति) आदि अनेकों भेदों में इस शक्ति को विभक्त किया गया हैं और इसके गुण कर्मों को जानकर आविष्कारों का तारतम्य मिलाया गया है।

शरीर में काम करने वाली विद्युत शक्तियों का भी वैज्ञानिकों ने पता लगाया है ओजस् के औडिलिक फोर्स तथा उँगलियों तथा नेत्रों के तेज में शारीरिक चुम्बकत्व जैसे नामों से इसके भेदों का पता लगाया है। पाश्चात्य वैज्ञानिक डॉक्टर किलनर ने औरोस्कोप नामक एक ऐसे यंत्र का आविष्कार किया है जिसके द्वारा मानव शरीर अंतर्गत विभिन्न प्रकार की विद्युत शक्तियों की संख्या तथा मात्रा का पता लगाया जा सकता है। यह शरीर विद्युत योग साधनों से उत्पन्न सूक्ष्म दृष्टि भी स्पष्टतः देखी जा सकती है। तत्वदर्शियों ने उसके स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है कि “बिजली के बल्ब के समान तपते हुए चन्द्रमा के समान अग्निमयी वह शक्ति दृष्टिगोचर होती है।

योग शास्त्रों में शरीर के अन्तः प्रदेशों में काम करने वाले सहस्रों तत्वों का पता लाखों वर्ष पूर्व लगा लिया गया था। आधुनिक विज्ञान ने भी इस मार्ग पर कदम उठाने शुरू किये है और पिछले दिनों तक जो शोधे हुई है, उनके अनुसार ईथेरिक बौडी (प्राण भण्डार) माइस्टिक रोज (हत पदम्), सोलर प्लेक्सस (सौर जगत), कॉर्डियक प्लेक्सस (अनाहत चक्र), थायराइडलैण्ड (कंठ ग्रन्थि) पीनियल (आज्ञाचक्र ) पिट्यूटरी बॉडी (शक्ति ग्रन्थि) आदि का पता चलाया है और यह माना है कि इन विलक्षण संस्थानों द्वारा मनुष्य की प्रसुप्त प्रतिभाओं और विशेषताओं के भाव, अभाव से मंदता और तीव्रता से भारी सम्बन्ध है। फिर भी वे यह नहीं जान सके कि औषधि, सर्जरी आदि की सीमा के बाहर के इन सूक्ष्म संस्थानों का विकास किस प्रकार सम्भव है। इसका उत्तर एवं मार्गदर्शन तो योगशास्त्र ही दे सकता है और देता रहा है।

इन सूक्ष्म शक्ति-संस्थानों के जागर के लिए साधना विज्ञान के अनुसार बन्ध एवं मुद्राओं का विधान शास्त्रों में मौजूद है गायत्री के 24 अक्षरों से सम्बन्धित इस प्रकार की 24 साधनायें प्रसिद्ध हैं (1) महामुद्रा (2) नभोमुद्रा (3) उड्डियानबंध (4) जालन्धर बन्ध (5) मूलबन्ध (6) महाबन्ध (7) खेचरी (8) विपरीत किरणें (9) योनि मुद्रा (10) वज्रोली (11) शक्ति चालिनी (12) तडापी (13) माण्डवी (14) शाम्भवी (15) आश्विनी (16) पाशिनी (17) काक्री (18)मातंगी (19) भुंजगिनी (20) पार्थिवी (21) आपम्भरी (22) वैश्वानरी (23) कयकी (24) आकाशी। इसके अतिरिक्त आठ प्राणायाम (1) सूर्यभेदन (2) उज्जायी (3) सीत्कारी (4) शीतली (5) भस्रिका (6) भ्रामरी (7) मुर्छा (8) प्लाविनी। यह भी इन्हीं सूक्ष्म संस्थानों के जागरण के लिए है।

ये सभी गायत्री उपासना के माध्यम से सम्पन्न किये जा सकते है यह कहा गया है कि ‘6 गायत्री द्वारा योग साधना के पिपीलिका मार्ग दादरा मार्ग, विहंगम मार्ग यह तीन मार्ग है। इन पर चलने से परा पश्यन्ती, मध्यमा वैखरी चारों वाणियाँ प्रस्फुटित होती है। अविद्या होती है। अविद्या अस्मिता राम, द्वेग अभिनिवेश यह पाँचों क्लेश दूर होते है। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय यह चारों अवस्थायें परिमार्जित होती है। मूलाधार स्वाधिष्ठान, मणिपूर अनाहत, विशुद्ध आज्ञाचक्र, यह छहों चक्र जाग्रत होते है एवं मस्तिष्क के मध्य भाग में व्यवस्थित सहस्रार कमल में ब्रह्मतेज विकसित होने लगता है। आकाश, महाकाश पराकाश, तत्वाकाश, सूर्याकाश, इन पाँचों आकाशों में उसकी गतिविधियों विस्तृत होने लगती है। स्रातों भूमिकाओं में शुभेक्षा, विचारणा, तनुमानसा, सत्वापति असंसक्ति, पदार्थ भाविनी, तुर्यगा अपनी नियमित गतिविधि से विकसित होती जाती है। गायत्री के माध्यम से योगसाधना करने वाला साधक योगमार्ग के नौ विघ्नों व्याधि, भ्रांति संशय, प्रमाद, आलस्य, आदि पर विजय प्राप्त कर उच्चस्तरीय प्रगति को प्राष्ठ होता है, यह एक सुनिश्चित तथ्य है।


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