प्रतिभा और संकल्प शक्ति का केन्द्र -मन

August 1995

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प्रगति पथ पर होने के लिए अभावों ओर असुविधाओं से लड़ने के लिए प्रतिकूलताओं की अनुकूलताओं में बदलने के लिए न के वल साधन सामग्री की अभिवृद्धि आवश्यक है, वरन् यह और भी अधिक अभीष्ट है कि मानवी संकल्प शक्ति को बढ़ाया जाय। मात्र साधनों की बहुलता से तो मनुष्य विलासी और आलसी ही बनता चला जाएगा। इससे उसकी अकर्मण्यता, अशक्तता और अदक्षता ही बढ़ेगी। प्रगति के इतिहास में साधनों एवं परिस्थितियों का उतना योगदान नहीं है जितना कि विचारणा और आकांक्षा का हैं संकल्प इन्हीं के समन्वय को कहते है। संकल्प इन्हीं के समन्वय को कहते है। संकल्प इन्हीं के समन्वय को कहते है। संकल्प की प्रखरता ही प्रगति का पथ-प्रशस्त करती है। जहाँ इसकी कमी होगी वहाँ प्रगति का रथचक्र उतना ही अवरुद्ध एवं दलदल में फँसा दिखाई पड़ेगा।

विकासवाद के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में एककोशीय एवं बहुकोशीय जन्तुओं की शरीर रचना बहुत ही सरल थी। प्राचीनतम प्राणी “प्रोटोजोन्स “ वर्ग के थे। वे एक कोशीय थे। अमीबा, यूग्लीना, पैरामीसियम, वर्टीमेला का आरम्भ इसी रूप में हुआ था। पीछे उनमें संकल्प शक्ति जगी, वे सुरक्षा और सुविधा की आवश्यकता अनुभव करने लगे इसके लिए उन्हें पारस्परिक सहयोग का उपाय सूझा और उसके लिए वे सम्मिलित प्रयास करने में जुट गये। ‘बालकाक्स’ एवं ‘स्पंज’ वर्ग के जीव छोटे परिवार बनाकर रहने लगे। उनने मिल-जुल कर काम करने व्यवस्था बनायी। कर्तव्य और उत्तरदायित्व बाँटे। इनमें से कुछ आहार जुटाने में, कुद स्फथ्व्ध्ज्ञज्ञ स्मप्ज्ञछन् म्।, क्फद वयव्स्ज्ञिज्ञ संचालन में लग गये। आदिम काल की वर्ण व्यवस्था यहीं से आरम्भ हुई। सहयोग के आधार पर न केवल सुविधा बँटी, वरन् उनका निज का स्वरूप एवं अस्तित्व भी विकसित होता चला गया। एककोशीय जन्तुओं ने अपना काय कलेवर बहुकोशीय ‘मल्टी सेल्यूलर’ वर्ग के जन्तुओं में विकसित कर लिया। वे सरल से जटिल होते गये। इसी चेतनात्मक स्फुरणा को प्रकृति की मौलिक क्रिया माना गया है। विकास के मूल में यही तत्व काम कर रहा है। इसी को संकल्प शक्ति का चमत्कार भी कह सकते है।

एककोशीय जीवों की तुलना में बहुकोशीय जीवों की काया काफी समुन्नत, बनावट की दृष्टि से जटिल बनती गयी। स्पंज, हाइड्रा, जेलीफिश, कोरल, एनीमोन आदि बहुकोशीय जीवों की स्थिति तक पहुँचने पर भी उनके शरीरों में भोजन और मल विसर्जन के लिए एक ही छिद्र था। इन दो प्रयोजनों के लिए दो द्वार तो आगे चल कर बने। विकास का रथ इसी मार्ग पर बढ़ता चला गया। हड्डियाँ विकसित हुई, मेरुदण्ड बने, बिना खोपड़ी वाले जीवों के शरीर में मस्तिष्कीय चेतना की उपयोगिता देखते हुए खोपड़ी के मजबूत किले बनकर खड़े हो गये। जलचरों ने थल में रहना सीखा। उनमें से कुछ तो हवा में उड़ने की हिम्मत करने लगे। यही विकासक्रम उद्धिज, स्वेदज, अंउज, जरायुज प्राणियों के स्प में अग्रार हुआ। इसी मार्ग कोशीय जीवन वर्तमान स्थिति तक पहुँचा है।

विकास की इस प्रक्रिया के आधारभूत कारण खोजने में वैज्ञानिकों ने अपने-अपने ढंग से प्रयत्न किये है और अपने-अपने दृष्टिकोण, निष्कर्ष प्रस्तुत किये है। लेमार्क और ह्यूगोडिव्राइस जैसे विकासवादी वैज्ञानिकों ने इस सम्बन्ध में बहुत कुछ खोजा और बताया है। अपनी शताब्दी में चार्ल्स डार्विन ने बहुत ख्याति प्राप्त की है। प्रायः सभी प्रगतिशील देशों में इस संदर्भ में काफी खोजें हुई है। इन प्रतिपादनों में जीवतत्व को मात्र रासायनिक पदार्थ मानकर विज्ञानवेत्ता एक विचित्र उलझने में फँस गये है। ‘प्रोटोप्लाज्मा ‘ में काय कलेवर को बनाने और चलाने की क्षमता तो है पर क्रमिक विकास की ओर बढ़ सकने जैसी क्षमता उसमें किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं होती। फिर विकास क्रम किस प्रकार निरन्तर अग्रसर होता चला आया?

नये वैज्ञानिक प्रतिपादनों के अनुसार प्रोटोप्लाज्मा के समतुल्य ही एक दूसरे जीवतत्व की सत्ता स्वीकार की गई है। वह है ‘ईडोप्लाज्मा’। वंश परम्परा में अब दोनों का समान योगदान माना जाने लगा है। ‘ईडोप्लाज्मा’ के संयोग से वह बात बनती है। यह दोनों तत्व एक नहीं है। उनकी सत्ता स्वतन्त्र है। वे एक दूसरे के पूरक भर है। यहाँ प्रोटोप्लाज्मा को पदार्थ सत्ता का और ईडोप्लाज्मा को चेतना का प्रतिनिधित्व करते हुए पाया जाता है।

मूर्धन्य जीव विज्ञानी ई. के. लैंकास्टर का कथन है-भौतिक जगत में चल रही हलचलों के साथ जीवन सत्ता का तालमेल नहीं बैठता। उस निरूपण के पक्ष में प्रस्तुत किये गये प्रतिपादन ओछे पड़ते है। जीवन का एक स्वतन्त्र विज्ञान होना चाहिए। पदार्थ विद्या के बटखरों से उसकी नाप तौल ठीक प्रकार से हो सकना सम्भव नहीं दीखता।”

पदार्थ में केवल अस्तित्व है। उसमें न तो जीवन है और न हलचल। वनस्पति में अस्तित्व के साथ-साथ जीवन भी है। प्राणियों में अस्तित्व, जीवन और अनुभूति तीनों है। किंतु विवेचना बुद्धि और स्वतन्त्र इच्छा की न्यूनता है। जीवन निर्वाह आवश्यकताओं के अनुरूप ही उनके चिन्तन की गाड़ी एक बनी बनायी पटरी पर लुढ़कती जाती है। मनुष्य की चेतना सुविकसित स्तर पर पहुँची हुई इसीलिए मानी जाती है कि उसकी संकल्प शक्ति, विवेचनात्मक क्षमता ने काफी प्रगति कर ली है जब कि अन्य जीवधारी शारीरिक दृष्टि से अपेक्षाकृत अधिक बलिष्ठ होते हुए भी चेतना की आणविक हलचलों में समानता हो सकती है। पर यह सम्भव नहीं दीखता कि पदार्थ कभी चेतन के समतुल्य प्रगति कर सकने में समर्थ हो सकेगा। जीवन को रासायनिक सिद्ध करने के प्रयत्नों से काम चलता न देखकर कोल्बिन, हैमरीज, किचनर, अरर्हेनिस आदि वैज्ञानिकों ने अपने-अपने शब्दों में यह कहा है कि” जीवन किसी अन्य लोक से भूलता-भटकता पृथ्वी पर आ पहुँचा है, पर वह है पदार्थ से भिन्न।

पास्टयूर और टैण्डल ने कहा है-जीवन पदार्थ से नहीं जीवन से ही उत्पन्न होता है, हो सकता है।” विकास-इतिहास की पृष्ठभूमि का पर्यवेक्षण करते हुए वे कहते है-आदिम काल में “सैल’ किसी दबाव से नहीं स्वेच्छा से वंश−वृद्धि करते थे। पीदे वे नर और मादा के रूप में बँट गये। संयोग का आनन्द लेना और उत्तरदायित्व संभालना शुरू किया। ऐसी-ऐसी अनेक उलट-पुलट करते -करते जीवधारी वर्तमान स्थिति तक बढ़ते चले आये है।

आइन्स्टीन कहते थे-” अणु सत्ता पर किसी अविज्ञात चेतना का अधिकार और नियन्त्रण है। पदार्थ मौलिक नहीं है उसका उद्भव चेतना की प्रतिक्रिया से ही संभव हुआ है। आज यह तथ्य प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं होते तो भी मेरा विश्वास है कि आज न सही कल यह सब सिद्ध होकर ही रहेगा।”

जीवन का मूल स्वरूप उसकी चिन्तन स्फुरणा के साथ जुड़ा हुआ है। विचारणा और आकाँख के समन्वय से जो संकल्प उठता है, उसी में प्रगति की समस्त संभावनाएँ सन्निहित है। विकासवादी प्रगति पर दृष्टिपात करने पर हमें किसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है। एक जैसी परिस्थितियों में रहने पर भी एक की प्रगति, दूसरे की यथास्थिति और तीसरे की अवगति का अन्तर देखकर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि संकल्प शक्ति की न्यूनाधिकता का ही प्रभाव है। साधनों के अभाव में भी आगे आगे बढ़ते है। सहयोग के बिना भी प्रगति करते है। इसके पीछे उनकी प्रखर संकल्पशक्ति ही काम करती है। संकल्प ही मानव जीवन की सर्वोपरि शक्ति है। उसके सहारे सामान्य स्थिति से आगे बढ़कर असामान्य स्तर तक पहुँचा जा सकता है। प्रगति का मूलतन्त्र ‘संकल्प ‘ को मानकर चला जाय और सर्वप्रथम उसी के उपार्जन, अभिवर्धन का प्रयत्न किया जाय तो यह निश्चित रूप से व्यावहारिक एवं बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयास माना जायगा।

वस्तुतः मनःसंस्थान ज्ञान, अनुभव एवं कौशल का ही नहीं प्रती का भी क्षेत्र है। उत्कृष्टता के प्रति आस्था के बीज भी इसी भूमि में जमते है। संकल्प शक्ति का उद्भव केन्द्र यही है इस संदर्भ में हृट मेक्स ए लाइफ सिग्नीफिकेण्ट’ नामक पुस्तक में सुप्रसिद्ध मनः शास्त्री विलियम मोक्स ने कहा है कि मन के भीतर अतिमानवी सामर्थ्य विद्यमान है, जिन्हें करतलगत कर सकना हर किसी के लिए संभव है। इसका आरम्भिक क्रियात्मक चरण है-ढर्रे की गतिविधियों को उलटने तथा दूरदर्शिता युक्त महानता के मार्ग का अवलम्बन करने के लिए अपने संकल्पों को परिपुष्ट तथा दृढ़ करना-इच्छा शक्ति को प्रखर बनाता है। संकल्प की दृढ़ता पशुवत् अभ्यस्त स्वभावों से छुटकारा पाने तथा आत्मविजय प्राप्त करने का प्रमुख आधार है। इसका सम्पादन तथा अभिवर्धन निरन्तर के अभ्यास से संभव है।, जो जितना अधिक संकल्पवान है वह उतना ही अधिक संकल्पवान है। वह उतना ही अधिक समर्थ है। प्रगति के विकास का यहीं सुनिश्चित मार्ग है।

मानवी संकल्पशक्ति की क्षमता असीम है। उसको जागृत करना और सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त कर सकना संभव हो सकता है। योगवाशिष्ठ में कहा गया है-

फलं ददाति कालेन तस्य-तस्य तथा तथा-तपोवा देवता वापि भूतवा स्वैव चिदन्पथा। फलं ददात्पथ स्वैरं नभः फल पिनातवत्।

कहने का तात्पर्य यह है कि जीव अपनी इच्छा से संकल्प शक्ति से ही देवता, तपस्वी बनता रहता है। प्रगति और अवनति का आधार मनुष्य का अपना कर्तृत्व ही है।


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