सभ्यता की पूँजी एक सर्वश्रेष्ठ निधि

August 1995

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सोने की परीक्षा आग में डालकर कसौटी पर कसने से होती है। मनुष्य का व्यक्तित्व एवं स्तर इस कसौटी पर रखा जाता है कि वह दूसरों के सम्पर्क में आने पर किस प्रकार का आचरण करता है। एकाकी मनुष्य के बारे में दूसरा कोई कुछ नहीं जानता कि वह क्या है- कैसा है। पर जब दूसरों के संपर्क में आता है तो कुछ प्रतिक्रिया होती है और यह पता चलता कि वह कितना सभ्य और सुसंस्कृत है। जिन्हें दूसरों के साथ सज्जनोचित व्यवहार करना नहीं आता उनकी गवार असभ्य आदि संबोधनों से निन्दा की जाती है। ऐसे लोग अप्रमाणिक माने जाते है और किन्हीं महत्वपूर्ण कार्यों के लिए अयोग्य समझे जाते है। सामूहिक कार्यों में उन्हें सदा पिछली पंक्ति में रखा जाता है ताकि अपने असभ्य आचरणों से कोई विक्षेप उत्पन्न न करें।

प्रत्येक मनुष्य सम्माननीय है। हर किसी का जन्मजात अधिकार है कि वह दूसरों से सम्मान एवं सद्व्यवहार की अपेक्षा करें साथ ही दूसरों के साथ वैसा ही शालीन व्यवहार करना उसका कर्तव्य है जैसा कि दूसरों से अपने लिए अपेक्षा करता है। इस सज्जनोचित सद्व्यवहार के आदान-प्रदान का नाम शिष्टाचार है। यदि समाज में रहना तो समाज व्यवस्था की प्रथम आचार संहिता शिष्टाचार का पालन सीखना ही चाहिए। जो इससे अनभिज्ञ अथवा अनभ्यस्त है वह समाज का प्रामाणिक सदस्य न माना जा सकेगा उसे असभ्य अविकसित विक्षिप्त या उद्दण्ड कहलाने की भर्त्सना सहनी पड़ेगी। ऐसे लोग दूसरों का सम्मान एवं सहयोग प्राप्त करने से वंचित रहते है। और अन्य गुणों के रहते हुए भी केवल इसी एक कमी के कारण सदा तिरस्कृत उपेक्षित रहना पड़ता है।

आदम काल में मनुष्यों का पारस्परिक व्यवहार कुछ ठीक रहा है। संपर्क में सबसे पहले कुटुम्बी जन आते है जीवन का अधिकाँश समय उन्हीं के साथ रहकर व्यतीत करना पड़ता है। उसे अपने सज्जनता का विकास अभ्यास परिपक्व करने के लिये परिवार क्षेत्र में ही सर्वप्रथम शिष्टाचार पालन करना चाहिए। इसका श्री गणेश बालकपन से ही आरम्भ कर देना चाहिए अन्यथा बड़े होने पर गंवारपन की आदत पड़ जड़ पकड़ लेती है और उसका छूटना कठिन हो जाता है। समझा जाता है कि अपने तो अपने है। उनके साथ कैसा भी व्यवहार करने से हर्ज नहीं, शिष्टाचार तो बाहर वालों से बरतना चाहिए। ऐसा सोचना भारी भूल है। अपनी शिष्ट आदतों तो इसी घर की पाठशाला, व्यायामशाला में सीखनी परिपक्व करनी पड़ती है। प्रत्येक आदत चिरकाल न अभ्यास से स्वभाव का अंग बनती है। अचानक अजनबी व्यवहार किया जाय तो वह बन ही नहीं पड़ता। प्रयत्न करने पर भी अटपटापन बना रहता है। संगीत अभ्यास की तरह अच्छी आदतों को भी निरन्तर काम में लाना पड़ता है अन्यथा वे कलात्मक विशेषताएँ धूमिल पड़ती जाती है।

घर में बराबर वाले छोटे और बड़े तीन वर्ग के लोग रहते है। तीनों ही समान रूप से दूसरे का सम्मान प्राप्त करने के अधिकारी हैं। समझा जाता है। कि मात्र छोटों को बड़ों का सम्मान करना चाहिए। बड़े छोटों के साथ असभ्यता बरत सकते है। “बराबर वाले तो बराबर वाले ठहरे उन पर कोई विशेष प्रतिबंध नहीं है। “ यह मान्यता गलत है। छोटे बड़े या बराबर वाले होने से अंतर नहीं आता है। आयु या रिश्तों के छोटे-बड़े होने से पारस्परिक सम्मान या सद्भाव प्रदर्शन में कोई अन्तर नहीं आता है। छोटे को तो बड़ों के साथ विनम्र होना ही चाहिए पर बड़ों को यह छूट नहीं हैं कि किसी को इसलिए तिरस्कार करें कि वह छोटा है। छोटा होना कोई कसूर रूप से सहन करना पड़े। बराबर वाले यदि अपनी प्रतिष्ठा चाहते है तो बराबरी की हैसियत के कारण सत्कर्म और भी अधिक बरतनी पड़ेगी। एक ओर से असभ्यता बरतनी पड़ेगी। एक ओर से असभ्यता बरती गई तो दूसरी से भी उसकी प्रतिक्रिया होगी। छोटी बड़े का प्रतिबंध न होने से वह प्रतिक्रिया और भी स्वाभाविक ही जायेगी। इसलिये उनके साथ सम्मान बरतना प्रकार में अपने सम्मान को सुरक्षित रखने की एक महत्वपूर्ण शर्त ही समझनी पड़ेगी।

शिष्टाचार के नियम हर देश और समाज में अलग-अलग होते है। यह परम्परायें बदलती भी रहती है पर उनके मूल सिद्धान्त सदा सुस्थिर ही रहते है। हम दूसरों का सम्मान करते है।, उनके मिलने से प्रसन्न होते हैं, सद्भावनाओं का आश्वासन देते हैं और सहयोग के इच्छुक है- इन भावनाओं की अभिव्यक्ति दूसरों पर किस प्रकार की जा सकती है उसी को अपनी प्रथा परम्पराओं के अनुरूप अभिव्यक्ति को शिष्टाचार कहा जाएगा। इससे न केवल दूसरों के प्रति अपने सम्मान का प्रकटीकरण है वरन् इस बात के प्रमाण का प्रस्तुतीकरण भी है कि हमारा व्यक्तित्व कितना परिष्कृत एवं सुसंस्कृत हैं। दूसरों के साथ भद्दा और रूखा व्यवहार करके हमें उन्हें ही चोट नहीं पहुँचाते वरन् यह भी सिद्ध करते है कि मानव समाज में बरती जाने वाली आचार संहिता का प्रामाणिक ज्ञान भी हमें नहीं हो पाया है। यह कभी किसी भी भले आदमी के लिये लज्जा की बात है।

सभ्य परिवारों को अपने सामान्य व्यवहार में शिष्टाचार की परम्परा स्थापित करने में पूरी सतर्कता बरतनी चाहिए, अन्यथा उसके सदस्य न केवल बाहर असभ्यता का लाँछन पाने और तिरस्कृत होने का दुःख सहेंगे वरन् परस्पर सौजन्य सद्भाव के अभाव में मनोमालिन्य उपेक्षा एवं असहयोग बढ़ाते रहेंगे और आये दिन टकराव होता रहेगा। यह किसी परिवार के टूटने बिखरने और गई गुजरी स्थिति में रहने की दुर्भाग्यपूर्ण पूर्व सूचना है। जो परिवार शिष्टाचार और परम्पराओं की स्थापना में जितनी अपेक्षा करते हैं वे अपनी सुदृढ़ता और प्रगति के पैरों आप कुल्हाड़ी मारते है। परिवार संचालकों को न केवल घर में अर्थ व्यवस्था का सुख सुविधा का उत्कृष्ट मनोरंजन का ध्यान रखना चाहिए कि पारस्परिक सद्व्यवहार की शिष्टाचार की नींव गहरी जा रही है या नहीं। जड़े गहरी न होने नर पेड़ पनपते नहीं इस तथ्य को जितनी अच्छी तरह समझ लिया जाय इतना ही अच्छा है।

बड़ों का कर्तव्य है कि वे अपने शिष्ट व्यवहार में अग्रणी रहकर पूरे परिवार को उस प्रकार के अनुकरण की परम्परा डाले। उपदेश देने से जानकारी भर मिलती है। उदाहरण प्रस्तुत किये बिना किसी को अनुकरण के लिये तैयार नहीं किया जा सकता। आचरण के सम्बन्ध में तो यह तथ्य स्पष्ट है कि जैसा बड़े करते है, छोटे उनका अनुकरण करते है। यह बड़प्पन आयु और रिश्ते के हिसाब से भी होता है और सहज प्रतिभा के आधार पर भी। घर के कमाऊ एवं सुयोग्य व्यक्ति अपना वर्चस्व अनायास ही पूरे परिवार पर स्थापित कर लेते है। गुणों के कारण उनकी दाब सब मानते है। आयु, रिश्ता, प्रतिभा, कोई भी आश्रय इनमें से कई का सम्मिश्रण बड़प्पन के कारण हो सकता है। घर के बड़ों का यह विशिष्ट उत्तरदायित्व है कि वे परिवार के सदस्यों को शिष्ट एवं सभ्य बनावें। इसके लिये उनका सर्वप्रथम कर्तव्य यह हो जाता है कि स्वयं अपना उत्कृष्ट आचरण प्रस्तुत करें और पूरे परिवार को उसका अनुकरण की अनवरत प्रेरणा प्रस्तुत करते रहें।

यह कदम उठाने के साथ-साथ परिवार के सभी छोटे-बड़ों को उनके स्वभाव एवं व्यवहार में रहने वाली त्रुटियों को बताने उनके निवारण का उपाय समझाने का प्रयत्न निरन्तर जारी रखना चाहिए। हर व्यक्ति इतना समझदार नहीं होता है कि अपनी गलती बाप ढूँढ़ सके और सुधार सके। वरन् स्थिति बिल्कुल उल्टी होती है। आमतौर से लोग अपने साथ वे हिसाब पक्षपात करते है। अपने को निर्दोष कहते ही नहीं समझते भी है-और हर अप्रिय प्रसंग में दूसरों को दोषी ठहराते है। अपनी गलती बताने वाले पर नाराज होते हैं। गलती को प्रतिष्ठा का प्रश्न बताते हैं और भूल को न्यायोचित बताने के लिए अड़ जाते हैं अधिक कहा जाय तो प्रतिशोध पर उतारू होते है। इस कठिनाई को ध्यान में रखते हुए ही सुधार कार्य हाथ में लिया जा सकता है। अन्यथा किसी की गलती बताना उलटे विग्रह विद्वेष का कारण बन सकता है। समझने वाला खिन्न होकर भविष्य के लिये मौन साथ सकता है। अथवा कोई अवांछनीय कदम उठा सकता हैं सुधारक को यह कठिनाई आरम्भ में ही समझ लेनी चाहिए और उससे निपटने के लिए उपयुक्त मनः स्थिति बनाकर ही सुधार की प्रक्रिया में लेनी चाहिए। यह झंझट का काम है- बुराई बँधने का डर है- यों सोचकर यदि चुप बैठे रहा जाय तो गलती क्रमशः बढ़ती ही जायगी और एक दिन ऐसी स्थिति आ जायगी जब चुप रहकर बुराई न बाँधने की नीति बहुत ही महँगी पड़ेगी।

उचित यही है कि अशिष्टता के खरपतवारों को निरन्तर उखाड़ते रहा जाय ताकि गृह उद्यान के बहुमूल्य वृक्षों के पनपने में भारी व्यवधान उत्पन्न करने वाली आदतों का प्रश्रय मिलने ही न पावे। परिवार के वरिष्ठ लोगों को शिष्टाचार पालन में स्वयं को आगे रहना ही चाहिए साथ ही अन्य सदस्यों की समय-समय पर उनकी छोटी-मोटी भूलों को समझाते रहना चाहिए और उन्हें छोड़ने का अनुरोध करना चाहिए यह कार्य स्नेह, सौजन्य एवं सद्गुण का गहरा पुण्य लगाकर ही ठीक तरह सम्पन्न किया जा सकता है। झिड़की, डाँट-डपट मार-पीट गाली-गलौज निन्दा, उपहास -व्यंग जैसे उपायों से गलती सुधरती नहीं वरन् और भी अधिक बढ़ती है। उल्टी प्रतिक्रिया होती है। और गलती करने वाला इसी बात पर अड़ जाता है। घर या बाहर कि किसी भी व्यक्ति, कभी भी गलती बताने और सुधारने की बात करनी हो तो फूँक-फूँक कर कदम धरना चाहिए कि कहीं सामने वाले के अहम् को चोट न लगे, वह अपना अपमान अनुभव करते हुए अपने स्नेह सद्भाव का स्मरण दिलाना चाहिए और उसे लाँछन लगाने निकालने की दृष्टि से नहीं वरन् अधिक सुसंस्कृत बनाने वाली सत्प्रवृत्तियों को अपनाने पर अधिक उज्ज्वल भविष्य बनाने की सम्भावना का प्रसंग प्रस्तुत करना चाहिए। उसी बात को दोष दर्शन के रूप में कह कर भर्त्सना की जा सकती है और उसी पथ्य को गुण अभिवर्धन के साथ जुड़े हुये प्रस्तुत किया जा सकता है। इनमें से पहला तरीका गलत और दूसरा सही है। यदि दूसरा तरीका अपनाया जाय तो परिवार के छोटे-बड़े सभी सदस्य उस सुधार चर्चा को ध्यान पूर्वक सुनेंगे और अपनी कठिनाई सफाई बताते हुये बहुत हद तक सुधार के लिये तैयार हो जायेंगे।

परिवार के प्रत्येक वयस्क एवं समझदार व्यक्ति को अपने स्वभाव में शिष्टाचार के नियमों का कूट-कूटकर समावेश करना चाहिए। यह सर्वोत्तम तरीका है, जिसके आधार पर घर के प्रत्येक सदस्य को सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाया जा सकता है। धर के बड़े लोग यदि इस कसौटी पर खरे उतरे तो फिर अन्य सब लोगों को वैसे ही अनुकरण की प्रेरणा मिलती रहेगी। यदि ऐसा वातावरण हो तो भी प्रत्येक वयस्क, अवयस्क, नर-नारी को यह प्रयत्न करना चाहिए कि उसके स्वभाव में सभ्यता के सभी पक्षों का समावेश होता चले। वस्तुतः यही सबसे बड़ी सम्पत्ति है जिसके आधार पर मनुष्य ऊँचे उठते और आगे बढ़ते है। साथियों का सहयोग, सविचार लिये बिना कोई व्यक्ति एकाकी कदाचित ही कुछ कहने लायक प्रगति कर सकता है। दूसरों की सहायता बिना हँसी-खुशी भी स्थिर नहीं रह सकती। कष्टों और कठिनाइयों में दूसरों का सहारा चाहिये ही। यह सब जुटा सकना उस ही के लिये ठीक है जो अपने मधुर स्वर से दूसरों को प्रभावित एवं आकर्षित कर सकता है। ऐसा सजीव चुम्बकीय शिष्टाचार में ही समर्पित रहता है।

घर में गरीबी हो या अमीरी इसका चलता है, चले भी तो उससे किसी को क्या लेना देना हो सकता है। पर यदि सभ्यता की पूँजी पास में है तो उस सुसंस्कृत परिवार के सदस्य प्रत्येक आगन्तुक पर सम्पर्क में आने वाले पर गहरी छाप छोड़ेंगे और उसकी भी यही आकांक्षा जगायेंगे कि हे भगवान्! और न सही तो हमारे परिवार को भी इतना सभ्य बना दें जैसा कि अमुक व्यक्ति को देखकर आयें है। शालीन परिवारों के साथ लेन-देन चलन-व्यवहार ब्याह-शादी करने में हर किसी को प्रसन्नता होती है हर कोई उन्हें सम्मान देता हैं और सहयोग भी। अध्यात्म का पहला पाठ है सभ्यता का अपने आप से, अपने घर से शुभारम्भ, सभ्य, सुसंस्कृत बनायें, फिर औरों को उपदेश दें।


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