मानव जैसे ही माँ धरित्री का प्रथम स्पर्श करता है उसके साथ ही उसकी जिज्ञासा प्रादुर्भूत होने लगती हैं। विश्व ब्रह्माण्ड के विविध क्रिया−कलाप प्रकृति का मनमोहक सौंदर्य इसके सहचरों की विविध अठखेलियाँ उसे मुग्ध करतीं और उल्लास प्रदान करती है। जिज्ञासु मन कुछ देर के लिए भले ही मोहित हो जाय किंतु समय-समय पर जिज्ञासा की तरंग मानस सागर को आंदोलित करती रहती है। आखिर ये सब है क्या? बड़े होने पर जीवन की इन भूल–भुलैयाओं में मन के बहिर्मुखी हो जाने पर भी तरंगों का आन्दोलित होना शांत नहीं होता है। किसी न किसी तरह किसी किसी रूप में जिज्ञासा मन को मथती रहती है।
शैशव काल में जिन सगे संबंधियों के शरीर को दुलारा सँवारा था, बड़े होने पर वे कहाँ चले गये? आदि अनेकानेक जीवन दर्शन की समस्यायें मन को चिंतन हेतु प्रेरित करती है। बालक सिद्धार्थ का मन भी ऐसी ही विविध समस्याओं की तरंगों से आन्दोलित हुआ था? कालक्रम के प्रवाह में बहिर्मुखी हो जाने के कारण युवराज कुछ सम्मोहित भले ही हो गये हों, पर मानस सागर की जिज्ञासा एक तरंग-प्रचंड लहरों में बदलती चली गई। इनके समाधान हेतु उनने अंतराल में प्रविष्ट हो अन्वेषण प्रक्रिया की शुरुआत की और बोधि का सारभूत फल प्राप्त किया, जिसके प्रभाव से लहराता गरजता, उफनता मनस्-लहराता गरजता, उफनता मनस्-सागर उद्वेलित स्थिति से प्रशांत स्थिति में पहुँच गया अनेकों को शांति पहुँचाने में सफल हुआ।
इन सारी जिज्ञासाओं के समाधान हेतु जिस तरह से राजकुमार सिद्धार्थ ने प्रयत्न किया उसी तरह सहस्राब्दियों पूर्व आर्यावर्त के देवभूमि के ऋषियों ने निरंतर प्रयास का जागृतिक सत्य के स्वरूप को जानने परमार्थिक निरपेक्षित स्वरूप ऋत् से एकाकार होने में सफलता प्राप्त की। इन्हीं शोध निष्कर्षों के विभिन्न सिद्धांत, संहिताओं आरण्यकों ब्राह्मणों उपनिषदों में स्थान-स्थान पर संकलित है। कालान्तर में महर्षि पतंजलि के तद्विषयक सूत्रों का गहन अध्ययन कर स्वानुभूति के बल पर उसको अभिनव स्वरूप प्रदान किया। इसे भारतीय चिंतन के एक महत्त्वपूर्ण स्तम्भ योग दर्शन के रूप में जाना जाता है।
अतः प्रकृति का अध्ययन करने तथा बाह्य प्रकृति को समझने के रूप में ऐसा विशद वैज्ञानिक अध्ययन भू-मण्डल के किसी और भाग में नहीं ही हुआ। कालक्रम के प्रवाह में पड़कर मानव मन की स्वाभाविक बहिर्मुखी प्रवृत्ति अपने अंतराल की संपदा तथा इसके अन्वेषण विधियों को विस्मृत करती चली गई। बाह्य प्रकृति के सम्मोहन का जादू मन पर चढ़ता चला गया। इसी को समझने, विश्लेषित करने, नूतन घटकों तथा इनकी सामर्थ्य का अन्वेषण करने में बौद्धिक क्षमता का उपयोग हुआ। इन गवेषणाओं को ही आधुनिक विज्ञान के नाम से जाना जाता है।
मानव की अहंवृत्ति अपनी वाह्य उपलब्धियों पर इतराती गई। दिन-दिन उद्घोष कर यह प्रचारित किया गया कि योग, धर्म आदि हठी, पूर्वाग्रही एवं अंधविश्वास से परिपूर्ण है जबकि विज्ञान तर्कसंगत तथ्य पूर्ण एवं सत्य का पथ-प्रदर्शक है। यह व्याख्या तुरंत रुचिकर भले ही प्रतीत हो-पर है बालुका प्रकार में भारी भरकम प्रतीत होने पर भी सागर के एक थपेड़े में ही तितर-बितर हो जाती है।
प्रकृति स्वभावतः सापेक्ष और नित्य परिवर्तनशील है। इसका यह स्वाभाविक गुण विज्ञान वेत्ताओं के सम्मुख नित्य नूतन पहेलियाँ रखता जाता है। आज जिन सूत्रों की गवेषणा की गई थी कल वही असत्य हो जाता है। आज जिन सूत्रों की गवेषणा की गई थी कल वही असत्य हो जाता है। प्रो. माइकल मर्फी डॉ. एलिजावेथ रौशर डॉ. फेड बुल्क आदि ले इसको विज्ञान का पथ प्रशस्त करने वाला प्रकाश संकेतक माना है।
वस्तु स्थिति भी यही हैं। योग की प्रक्रियाएँ इसके अंग उपांग पूर्णतया वैज्ञानिक एवं तर्क सम्मत हैं। जिस तरह से विज्ञान विद् बाह्य प्रकृति का अध्ययन कर इसके विविध रहस्यों का पता लगाते है। ठीक उसी तरह से परमात्म तत्त्व का जिज्ञासु अंतः प्रकृति की विविध परतों को भेद कर आत्म तत्त्वों को प्राप्त करता-निरपेक्ष सत्ता से एकाकार होता है।
योग के आठ अंगों में यम-नियम आसन-प्राणायाम नामक चार प्रक्रियाएँ ऐसी है जिन्हें वैज्ञानिकों की प्रयोगशाला उसे व्यवस्थित करना तथा संदर्भ ग्रंथ के संकलन जैसा कहा जा सकता है। जिस प्रकार प्रयोगशाला एवं विभिन्न संदर्भ-ग्रंथ वैज्ञानिक शोध का आधार है। उसी प्रकार आत्मपथ का जिज्ञासु भी इन माध्यमों से शरीर एवं मन को सुव्यवस्थित कर अपने को तद्विषयक शोध कार्य में प्रवृत्त करता हैं। इस शोध के प्रयोग कार्य में जुटने से पूर्व जो प्रक्रिया है वह है प्रत्याहार इस के बिना न तो आत्मविज्ञानी का काम चलेगा, न ही पदार्थ विज्ञानों का। कारण यह है कि प्रत्याहार का तात्पर्य मन को इन्द्रिय विषयों के जाल जंजालों में उलझा मन किसी प्रकार के अन्वेषण करने में नितांत अक्षम है।
धारणा से प्रयोग की शुरुआत होती है। एक प्रारंभ करता है अथातो ब्रह्म जिज्ञासा से दूसरे का प्रारंभ होता है। अर्थात् प्रकृति जिज्ञासा” से। जिज्ञासा के एक ही पर्वत शिखर से निःसृत इन द्विविध धाराओं के बाह्य स्वरूप में वैषम्य होते हुए भी प्रक्रिया में अद्भुत साम्य है। ध्यान का अंतर गंभीरता अतः प्रकृति का विश्लेषण करती इसके चक्रव्यूह की विविधताओं को भेदती तथा आत्मतत्त्व की ओर प्रवृत्त होती है। ध्यान की बाह्य गंभीरता पदार्थों एवं उसके विविध घटकों का विश्लेषण करती हुई उसके रहस्योद्घाटन के लिए उन्मुख होती है।
इस तरह यह प्रयोग कुछ दिन करने-फिर छोड़ बैठने से काम नहीं चलता है। इसी कारण सूत्रकार ने योगदर्शन में साधन पाद के चौदहवें सूत्र में कहा है “स तू दीर्घकाल वैरर्न्तय सत्कार सेवितो दृढ़ भूमि” अर्थात् बहुत कुछ समय तक निरंतर उद्देश्य के प्रति सत्कार भाव से दृढ़ मनोबल-पूर्वक प्रयोग करते जाना चाहिए। इसी तरह वैज्ञानिकों का एक्सपेरिमेंट एक्सपेरिनस शब्द से उत्पन्न हुआ। इसके दो भाग हैं एक्स और पेरिल इसमें एक्स का तात्पर्य है निरंतरता। पेरिल का तात्पर्य है खतरा उठाना कष्ट झेलना अर्थात् विविध कष्टों से जूझते हुए दत्तचित्त हो निरंतर उद्देश्य के प्रति जुटे रहना ही “एक्सपेरिमेंट” है।
यह प्रयोग परीक्षण की निरंतरता जिसे योग भाषा में ध्यान करते है, निष्कर्ष की ओर कदम बढ़ाती है। इस निष्कर्ष तक पहुँचने में अनेकानेक विघ्न बाधाएँ भी है जो विविध स्वरूपों में आती है। योग विज्ञानी इन्हें सिद्धियाँ कहते है। आत्मिक प्रगति की यात्रा में पुरस्कार रूप में प्राप्त होते रहने पर भी इनका महत्त्व आत्मिकी के लिए अधिक है। इनका सम्मोहक सौंदर्यशाली स्वरूप प्रायः सभी को अपने में उलझा देता है। प्रकृति गत होने के कारण इनमें चंचलता होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि प्राचीन और आधुनिक काल के जिज्ञासु इनके सम्मोहन में पथ भ्रष्ट हुए। यह विविध सिद्धियाँ मात्र अंतः प्रकृति में हो ऐसा नहीं बाह्य प्रकृति में हों ऐसा नहीं, बाह्य प्रकृति में स्वरूप भेद होने पर भी इनको उपस्थित देखा जा सकता है।
आधुनिक समय के विज्ञानवेत्ता अब बहिरंग से अंतरंग की यात्रा करते दिखाई देते हैं क्योंकि वे वास्तविकता की समझ चुके है। यही कारण है कि क्वाण्टम भौतिकी के पिता माने जाने वाले मैक्स प्लाँक की बातों में स्वामी विवेकानंद प्रति ध्वनि सुनाई देती है गैरी जुकोव भी एक चितरंजन सत्ता के सर्वत्र व्याप्त होने की बात कह गीता के कथन “मयि सर्वमिदं प्रोक्तं सूत्रे मणिगणाइव” का समर्थन करते है। डेविड वाँम कार्ल प्रीवाम आदि है। हाइज़ेनबर्ग अपनी पुस्तक “दी पार्ट एण्ड होल” में अपने सिद्धांत प्रिंसिपल ऑफ अनसर्टेनिटी के प्रतिपादन में अपने को वेदांत दर्शन का ऋणी मानते है। आधुनिक भौतिकी की गवेषणायें भी भारतीय चिंतन की ही पुष्टि करती है। इनके निष्कर्ष के अनुभूत होने की स्थिति को ही तो योग विज्ञानी समाधि का नाम देते है। समाधि स्वरूप सजीव व निर्जीव है। विज्ञान की स्थिति अभी सजीव की ओर पहुँचने को है। निष्कर्ष के अनुभव अकथनीय अवर्णनीय होते हैं इनको बता पाना मात्र संकेतों से ही संभव है। कोई भी भाषा इन अनुभवों की अभिव्यक्ति करने में असमर्थ है।
स्वामी विवेकानंद ने शिकागो हुई विश्व धर्म परिषद में हिन्दुत्व पर अपने निबंध को पढ़ते हुए 19 सितम्बर 1893 में कहा था विज्ञान की गति भी वेदांत की ओर है इसकी विविध धारायें विभिन्न मार्गों से एकत्व की खोज में है। उनका कथन आज विभिन्न वैज्ञानिकों की विविध शोधों से प्रमाणित होता दीखता हैं। मनीषियों का कथन सही ही है-रुचीनाँ वेचित्रयादृजु कुटिल नाना पथ जुषाँ। नृणामेकों गम्यस्त्वमसि पथ सामार्णव इव” जिस तरह से विविध धारायें विभिन्न स्थानों से सीधा उलटा मार्गों को तय कर सागर की ओर जाती है। उसी तरह से विविध मार्गों से मनुष्य परम तत्त्व की ओर उन्मुख होती हैं।”